शताब्दीसँ बेसीक इतिहास रहल मैथिली गजलके
खास क' पछिला एक दशकसँ गजल रचना आ संग्रहक प्रकाशनमे गुणात्मक आ परिमाणात्म
दुन्नू हिसाबे वृद्धि भ' रहल छै । एहि क्रममे किछु संग्रह इतिहास रचि पाठक
सभक हियामे छाप छोडि देलकै तँ किछु एखनो धरि नेङराइते छै । कारण सृजनकालमे
कोनो नै कोनो अंगविहिन रहि गेलै सृजना । संग्रहक भीड़मे समाहित सियाराम झा
'सरस' जीक पोथी 'थोड़े आगि थोड़े पानि' पढबाक अवसर भेटल । जकरा सुरुसँ
अन्त धरि पढलाकबाद एकर तीत/मीठ पक्ष अर्थात गुणात्मकताक सन्दर्भमे विहंगम
दृष्टिसँ अपन दृष्टिकोण रखबाक मोन भ' गेल । पहिने प्रस्तुत अछि पोथीके
छोटछिन जानकारी:
पोथी - थोड़े आगि थोड़े पानि
विधा - गजल
प्रकाशक - नवारम्भ, पटना (2008)
मुद्रक - सरस्वती प्रेस, पटना
गजल संख्या - 80टा
विधा - गजल
प्रकाशक - नवारम्भ, पटना (2008)
मुद्रक - सरस्वती प्रेस, पटना
गजल संख्या - 80टा
पोथीमे जे छै-
थोड़े आगि राखू थोड़े पानि राखू
बख्त आ जरुरी लै थोड़े आनि राखू (पूरा गजल पृष्ठ 85 मे)
बख्त आ जरुरी लै थोड़े आनि राखू (पूरा गजल पृष्ठ 85 मे)
सरस जी प्रारम्भिक पृष्ठमे गहिरगर भावसँ भरल र्इ शेर प्रस्तुत केने छथि जे कि पोथीके नामक सान्दर्भिकता साबित क' रहल छै ।
पोथीमे 'बहुत महत्व राखैछ प्रतिबद्धता' शीर्षकपर दश पृष्ठ खरचा केने छथि
सरस जी । जैमे ओ समसामयिक विषय, मैथिली साहित्यक विविध प्रवृति आ गतिविधि,
अपन देखल भोगल बात, अध्ययन, संघर्ष, मैथिली आन्दोलनमे कएल गेल योगदान,
विदेशी साहित्यकार एवं साहित्यिक कृति सहित ढेर रास विषय वस्तु पर चरचा
केने छथि । मैथिली साहित्यिक क्षेत्रमे देखल गेल विकृतिपर जोडगर कटाक्ष
करैत ओ कहै छथि "आजुक 75 प्रतिशत मैथिलीक लेखक प्रतिबद्धताक वास्तविक
अर्थसँ बहुत-बहुत दूर पर छथि । से बात खाहे कविताक हो कि कथाक, निबन्धक हो
वा गीत लेखनक-सब किछु उपरे-उपर जेना हललुक माटि बिलाड़ियो कोड़ए ।" संगे
संग ओ लेखक सभकेँ सल्लाह सेहो दैत कहै छथि "लोक जे लेखन कार्यसँ जुड़ल अछि
वा जुड़बाक इच्छा रखैछ, तकरा बहुत बेसी अध्ययनशील होयबाक चाही । पढबाक
संग-संग गुनबाक अर्थात चिन्तन-मननक अभ्यासी सेहो हेबाक चाही । नीक पुस्तकक
खोजमे हरदम रहबाक चाही । जाहि विधामे काज करबाक हो, ताहि विधाक विशिष्ट
कृतिकारक कृतिकेँ ताकि-ताकि पढबाक चाही ।"
अपन भाव परसबाक क्रममे ओ किछु हृदयके छूअवला शेर सेहो परसने छथि । जेना-
पूर्णिमा केर दूध बोड़ल, ओलड़ि गेल इजोर हो
श्वेत बसंतक घोघ तर, धरतीक पोरे-पोर हो
श्वेत बसंतक घोघ तर, धरतीक पोरे-पोर हो
प्रेम, वियोग, राजनीतिक, सामाजिक लगायत विभिन्न विषयक गजल रहल एहि संग्रहमे रचनागत विविधताक सुआद भेटत ।
कत' चूकि गेलाह सरस जी ?
कुल 80टा गजल रहल पोथीमे एको टा गजल बहरमे नै कहल गेल अछि । देखी पहिल गजलक मतला आ एकर मात्राक्रम:
बिन पाइनक माछ नाहैत चटपटा रहल, र्इ मैथिल छी
घेंट कटल मुरगी सन छटपटा रहल, र्इ मैथिल छी
घेंट कटल मुरगी सन छटपटा रहल, र्इ मैथिल छी
पहिल पाँतिक मात्राक्रम - 2 22 21 221 212 12 2 22 2
दोसर पाँतिक मात्राक्रम - 21 12 22 2 212 12 2 22 2
दोसर पाँतिक मात्राक्रम - 21 12 22 2 212 12 2 22 2
मतलाक दुन्नू मिसराक मात्राक्रम अलग-अलग अछि ।
ढेर रास गजलमे काफिया दोष भेटत । बहुतो गजलमे एके रंगकेँ काफियाक प्रयोग
भेटत । कोनो-कोनो मे तँ काफियाक ठेकान नै । पृष्ठ संख्या 19, 25, 30, 31,
34, 52, 55, 57, 61, 64, 81, 82, 92, 93, 96 मे देख सकै छी ।
पृष्ठ-25 मे रहल र्इ गजलके देखू:
सात फेरीक बाद जे किछु हाथ आयल
तत्क्षणें तेहि-केँ हम चूमि लेलियै
तत्क्षणें तेहि-केँ हम चूमि लेलियै
दू दिसक गरमाइ सँ दूर मन घमायल
तेहि भफायल - केँ हम चूमि लेलियै
तेहि भफायल - केँ हम चूमि लेलियै
भोर मृग भेल, साँझ कस्तूरी नहायल
ओहि डम्हायल-का हम चूमि लेलियै
ओहि डम्हायल-का हम चूमि लेलियै
कैक शीत-वसंत गमकल गजगजायल
रंग-रंगक - केँ हम चूमि लेलियै
रंग-रंगक - केँ हम चूमि लेलियै
स्वप्न सबहक पैरमे घुघरु बन्हायल
अंग-अंगक - केँ हम चूमि लेलियै
अंग-अंगक - केँ हम चूमि लेलियै
सृजन पथ पर चेतना-रथ सनसनायल
वंश वृक्षक - केँ हम चूमि लेलियै
वंश वृक्षक - केँ हम चूमि लेलियै
कोन पिपड़ीक दंश नहुँए बिसबिसायल
ताहि नेहक - केँ हम, चूमि लेलियै
ताहि नेहक - केँ हम, चूमि लेलियै
एहिमे मतला सेहो नै छै । बिनु मतलाके गजल नै भ' सकैए । पृष्ठ संख्या 64 मे सेहो एहनाहिते छै:
परबाहि ने तकर जे, सब लोक की कहैए
बहसल कहैछ क्यो-क्यो, सनकल कियो कहैए
बहसल कहैछ क्यो-क्यो, सनकल कियो कहैए
कंजूस जेता तोड़ा नौ ठाँ नुकाक' गाड़य
तहिना अपन सिनेहक चिन्ता-फिकिर रहैए
तहिना अपन सिनेहक चिन्ता-फिकिर रहैए
जकरा ने र्इ जीवन-धन जीनगी ने तकरर जीनगी
छिछिआय गली-कुचिये, रकटल जकाँ करैए
छिछिआय गली-कुचिये, रकटल जकाँ करैए
कोंढी बना गुलाबक जेबी मे खोंसि राखी
जौं-जौं फुलाइछ, तौं-तौं सौरभ-निशां लगैए
जौं-जौं फुलाइछ, तौं-तौं सौरभ-निशां लगैए
अहाँ लाटरी करोड़क पायब तँ स्वय बूझब
निन्ने निपात होइए, मेघे चढल उड़ैए
निन्ने निपात होइए, मेघे चढल उड़ैए
तुलता ने कए पबै छी कहुनाक' सोमरस सँ
उतरैए सरस कोमहर, कोन ठामसँ चढैए
उतरैए सरस कोमहर, कोन ठामसँ चढैए
पृष्ठ संख्या 37, 42, 44, 50, 55, 59, 72, 78, 81, 94 मे रहल गजल गजलक
फर्मेटमे नै अछि आ पृष्ठ संख्या 94 के गजलमे मात्र 4टा शेर छै । कमसँ कम
5टा हेबाक चाही ।
कोनो शब्दके जबरदस्ती काफिया बनाओल गेल छै, जेना की पृष्ठ संख्या 45 मे रहल गजलक अन्तिम शेरमे 'घुसकावना' शब्दक प्रयोग भेल छै ।
मक्तामे शाइरक नामक प्रयोग भेलासँ गजलक सुन्नरता बढै छै जे कि एहि संग्रमे किछु गजल छोड़ि बांकीमे नै भेटत ।
अन्तमे--
गजलक सामान्य निअमकेँ सेहो लेखकद्वारा नीक जकाँ परिपालन नै कएल गेल अछि ।
गजलप्रति भावनात्मक रुपे बेसी आ बेवहारिक रुपे बहुत कम प्रतिबद्ध छथि लेखक ।
गजलप्रति न्यान नै केने छथि । गजलक गहिराइ धरि नै पहुंच सकलथि । एहन
प्रवृति वर्तमान सन्दर्भमे नवतुरिया सभमे सेहो बढल जा रहल छै जे की मैथिली
गजलक लेल सही सूचक नै छी ।
- कुन्दन कुमार कर्ण
http://www.kundanghazal.com
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