कहिओ सम कहिओ विषम
कहिओ बेसी कहिओ कम्म
होइत रहलै अकाल मृत्यु
कहिओ गोली कहिओ बम
खेलाइत रहलै देह पर
कहिओ देवी कहिओ जम
निकलैत रहल दिन-प्रतिदिन
कहिओ टका कहिओ दम्म
ठकि रहल अनचिन्हार के
कहिओ अहाँ कहिओ हम
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रविवार, 17 जनवरी 2010
गजल
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अनचिन्हार,
बिना छंद-बहरक
सोमवार, 4 जनवरी 2010
गजल
नरेन्द्र जीक गजल
कतबो कहबै सूरति हाल
बहिरा नाचत अपने ताल
कोठी-कान चढ़ाक राखत
कतबो ठोकब अहाँ सवाल
खन नवयुग खन वेद पढायत
फेकत रंग-बिरंगी जाल
भीतर सँ खूनी नरभक्षी
उपर पहिरत मानुष खाल
पढ़ल-लिखल नवयुवक देश के
ठेका पर भ' रहल बहाल
जेहन पछिला साल निखत्तर
तेहने अछि ई नवका साल
कतबो कहबै सूरति हाल
बहिरा नाचत अपने ताल
कोठी-कान चढ़ाक राखत
कतबो ठोकब अहाँ सवाल
खन नवयुग खन वेद पढायत
फेकत रंग-बिरंगी जाल
भीतर सँ खूनी नरभक्षी
उपर पहिरत मानुष खाल
पढ़ल-लिखल नवयुवक देश के
ठेका पर भ' रहल बहाल
जेहन पछिला साल निखत्तर
तेहने अछि ई नवका साल
रविवार, 3 जनवरी 2010
गजल
देखिऔ कोना भेलैक गाछ के कात भेने
चिड़ैया बाजब छोड़ि देलक परात भेने
अहाँक दरस-परस महग थिक सजनी
सटि सकितहुँ अहाँक देह मे बसात भेने
आशो राखी तँ कनेक नीक जकाँ राखी
दालिए-तीमन ने बचै छैक भात भेने
हरेक घर मे एकटा कए अगत्ती जन्मए
सरकारक निन्न टुटिते छैक खुरापात भेने
लागि गेल छैक भरना सभहँक भग-सोहाग
की हेतैक आगि लग सप्पत सात भेने
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बिना छंद-बहरक
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