हमर मने आशीष अनचिन्हारक एकटा आलेख दरभंगासँ प्रकाशित दैनिक मिथिला आवाजमे 9 फरवरी 2014केँ "मैथिली गजलमे लोथ गजलकारक योगदान" नामसँ भेल रहै तकर उत्तर दैत सुरेन्द्रनाथजी एकटा आलेख लिखला जे कलकत्तासँ प्रकाशित कर्णामृत केर अप्रैल-जून 2015मे "मैथिली गजलक पूंषत्वहीन आलोचना" केर नामसँ प्रकाशित भेल आ सुरेन्द्रनाथ जीक ऐ आलेखक उत्तर दैत हमर एकटा आलेख कर्णेमृतक नवीन अंक अप्रैल-जून 2016मे "संशोधन केर मतलब विनाश नै होइ छै" नामसँ प्रकाशित भेल अछि। ओना संपादक महोदय किछु काँट-छाँट सेहो केलखनि अछि तँए मूल आलेख देल जा रहल अछि पढ़ल जाए। संगे-संग ऐ मूल लेखक अंतमे कर्णामृतमे प्रकाशित लेखक कटिंग सेहो देल जा रहल अछि पहिले सुरेन्द्रनाथजीक तकर बाद हमर बला----
कर्मामृतमे प्रकाशित सुरेन्द्रनाथजीक लेखक कटिंग--
संपादक/ उपसंपादक महोदय लोकनिसँ आग्रह जे ऐ आलेखमे आएल सभ उदाहरण आ ओकर लक्षणकेँ यथावत् राखथि कारण गजल उच्चारणपर निर्भर करै छै आ उच्चारण वर्तनीपर। संगे-संग दू शेरक बीचमे जते जगह छै से रहऽ दियौ।
संशोधन केर मतलब विनाश नै होइ छै
(आलोचना)
आशीष अनचिन्हार
अप्रैल-जून 2015मे प्रकाशित सुरेन्द्रनाथ जीक आलेख " मैथिली गजलक पूंषत्वहीन आलोचना" पढ़लहुँ आ ओहिपर हम अपन किछु विचार राखऽ चाहब। ओना सुरेन्द्रनाथ जीक आलोचना हमर आलेखपर केंद्रित छल तँए पाठककेँ लगतिन जे ई प्रत्यालोचना थिक मुदा सुरेन्द्र नाथ जी अपने ठाम-ठीम किछु स्पष्ट करऽ कहने छथि तँइ ई आलेख लऽ कऽ हम आएल छी आ पाठक सभसँ आग्रह जे एकरा प्रत्यालोचना नै बल्कि सुरेन्द्र नाथजीक आग्रह मानबाक परिणाम बूझथि। जे-जे चीज सुरेन्द्रजी हमरासँ बूझए चाहै छथि वा हुनकर जै-जै विचारपर हमरा आपत्ति अछि से हम क्रमशः बिंदुवार दऽ रहल छी----
1) ऐ लेखक शुरूआतेमे सुरेन्द्रनाथ जी "मैथिली-हिंदी" लऽ कऽ अगुता गेल छथि। हम फेर जोर दऽ कऽ कहब चाहब जे मैथिलीक अधिकांश रचनाकार हिंदीक नकल करैए आ एकर सबूत सुरेन्द्रनाथजी अपने ऐ आलेखमे बहुत बेर देने छथि। कतहुँ ज्ञानेन्द्रक ना तँ कतहुँ अनिरुद्ध सिन्हा तँ कतहुँ हिंदी गजलः संघर्ष और सफलता। कुल मिला कऽ ई आलेख हिंदीक नकल थिक आ ऐ आलेखसँ ई हमर ओ विचार मजगूत भऽ जाइए जकरा तहत हम बेर-बेर कहै छी आ कहऽ चाहब जे मैथिलीक अधिकांश लेखन हिंदीक नकल थिक। ऐ ठाम ई स्पष्ट करब बेसी जरूरी जे सुरेन्द्रनाथ जी रेफरेन्स दैत काल अपन मानसिक वर्णसंकरताक परिचय देने छथि। पूरा दुनियाँक रेफरेन्स तँ दऽ देला मुदा गंगेश गुंजन जीक "बहर-मेनिया" बला कथन ओ कहाँसँ लेला। विदेहमे मुन्नाजीक संयोजनमे गजलक उपर परिचर्चा भेल रहै आ तैमे गंगेश गुंजन जीक आलेखमे ई संदर्भ आएल छै आ बादमे ई आलेख विदेह-सदेहमे प्रिंट रूपमे एलै। मुदा रेफरेन्समे एकर चर्चा नै। की सुरन्द्रनाथजी ई कहि सकै छथि जे अमीर खुसरोक मैथिली मिश्रित गजलक अंश ओ कहाँसँ प्राप्त केने छथि? संगे-संग ओ राजेन्द्र विमलजीक उक्ति कहाँसँ आनि लेलथि जखन की ओ इंटरव्यू विदेहमे प्रकाशित छै (सदेहमे सेहो)| ई छनि सुरेन्द्रनाथजीक मानसिक वर्णसंकरता जकरा ओ बेर-बेर अपन आलेखमे देखेने छथि।
2) लगैए जे सुरेन्द्रनाथजी जखन तामसमे अबैत हेता तखन हुनक आँखि मुना जाइत हेतनि (मात्र अनुमान) से हम माया बाबू आ नीरजजीक संदर्भमे हिनक तामसकेँ देखैत अनुमान लगा रहल छी। हमरा ने माया बाबूक गीतलसँ परेशानी अछि ने बीतलसँ। हिंदीक नीरजकेँ उँच स्थान मात्र ऐ दुआरे देल गेलन्हि जे ओ हिंदी भाषाक क्षमतापर बिना बयान देने कहलखिन जे गजलक नाम गीतिका हेबाक चाही। ऐठाम धेआन दिऔ नीरजजी ई कहियो नै कहलखिन जे हिंदीमे गजल लिखब संभव नै छै, तँइ हिंदीमे नीरजजीकेँ ऊँच स्थान भेटलनि। ऐकेँ उल्टा माया बाबू अपन अक्षमताकेँ झाँपि ई बयान देला जे मैथिलीमे गजल लिखब संभव नै तँए गीतल हेबाक चाही। दूनू बयानमे फर्क छै तँए दुन्नूक सम्मानो अलग-अलग। हमरा ने माया बाबूपर आपत्ति अछि आ ने हुनक प्रयोगपर हमरा तँ बस हुनकर उद्येश्यपर आपत्ति अछि। माया बाबूक सामने निस्सन मैथिली गजलक परंपरा छल ओइकेँ बाबजूदो एहन बयान किएक?
3) जेना प्रकृति अपन मान्यता लेल केकरो पुछारी नै करै छै तेनाहिते पं.जीवन झा, कविवर सीताराम झा आ मधुपजीक गजलकेँ कोनो आशीष अनचिन्हार वा सुरेन्द्रनाथ की आन कोनो गजलकारक अनुसंशाक जरूरति नै छै। पं.जीवन झा, कविवर सीताराम झा आ मधुपजीक गजल मैथिली गजलक पूर्वज थिक तँ ई तीनू गोटें निश्चित रूपसँ मैथिली गजलक "असल प्रवर्तक” छथि। सुरेन्द्रनाथजी पुछै छथि जे "की ओ सभहँक (पं.जीवन झा, कविवर सीताराम झा आ मधुपजीक) गजलक व्याकरण अनचिन्हारक आखरक व्याकरणसँ ऐम-मेन मेल खाइत अछि। जँ सएह तँ हुनकर सभहँक अवसान भेलाक बादो मैथिली गजल बाँझ अथवा मसोमात किए बनल रहल?"
आब ऐ प्रश्नक उत्तर तँ सुरेन्द्रनाथजी अपने छथि। बाप बच्चाक लालन-पालन करै छै मुदा जँ बच्चा जवान भेलाक बाद अपना हिसाबें चलै छै तँ फेर ओइमे बापक कते सहभागिता? पं.जीवन झा, कविवर सीताराम झा आ मधुपजी ई तीनू गोटें व्याकरणयुक्त गजल देला मुदा तकर बादक नकलची पीढ़ी जँ पं.जीवन झा, कविवर सीताराम झा आ मधुपजीकेँ नै गुदानै तँ फेर ओइ लेल ई तीनू (पं.जीवन झा, कविवर सीताराम झा आ मधुपजी) किए दोषी हेता। जा धरि मैथिली गजलमे सुरेन्द्रनाथजी सन-सन अराजक गजलकार होइत रहत ता धरि मैथिली गजल बाँझ अथवा मसोमात बनल रहत।ऐ तीनू (पं.जीवन झा, कविवर सीताराम झा आ मधुपजी)क संपूर्ण गजल ओ ओकर व्याकरणिक व्याख्या सहित पढ़बाक लेल "मैथिलीक प्रतिनिधि गजल 1905सँ 2014 धरि" नामक पोथी देखू।
4) बहुत रास अराजक गजलकार जकाँ सुरेन्द्रनाथजी सेहो बहर आ छंदकेँ अलग-अलग मानै छथि। ई माननाइ तेहने भेल जेना कियो वाटर आ पानिकेँ अलग मानथि। बुक आ पोथीकेँ अलग मानथि। सच तँ ई छै जे बहर आ छंदमे मात्र भाषायी अंतर छै। संस्कृतमे छंद कहल जाइत छै तँ अरबीमे बहर। ओना एकटा तात्विक अंतर जरूर छै जे संस्कृतमे छंद व्यापक अर्थ दै छै आ सरल वार्णिक, वर्णवृत आ मात्रिक तीनू छंद अबै छै तँ बहरमे मात्र वर्णवृत। ओना अरबीमे सरल वार्णिक आ मात्रिक छंदक प्रचार नै केर बराबर छै आ वर्णवृतक एकछत्र राज्य छै तँए बहर आ छंद एक समान अछि। वर्णवृत वा बहरक साधारण नियम छै जे ई लघु-गुरू द्वारा निर्धारित होइत छै (बहुत काल लघु-गुरू लेल लघु-दीर्घ वा ह्रस्व-दीर्घ युग्म केर सेहो प्रयोग होइत छै)। आ संस्कृतक वर्णिक छंदमे पहिल पाँतिक मात्राक्रम जे छै सएह सभ पाँतिक मात्राक्रम समान हेबाक चाही आ प्रत्येक शब्दक संख्या समान हेबाक चाही तखन वार्णिक छंद हएत। अरबियोमे तेहने सन छै मुदा आधुनिक भाषामे मात्राक्रम तँ समान रहलै मुदा अक्षर संख्या उपर निच्चा कऽ सकै छी। संगे-संग गजल लिखबा कालमे किछु छूट देल जाइत छै जे की मात्र आवश्यक स्थितिमे प्रयोग होइत छै। आब ई लघु-गुरूक की व्यवस्था छै वा छूट कोन रूपें लेल जेतै से जनबाक लेल कोनो छंदशास्त्रीक पोथी पढ़ि लिअ। ओना हमरा पूरा उम्मेद अछि जे सुरेन्द्रनाथजी लग लघु-गुरू गनबाक ज्ञान हेबे करतनि ( ई उम्मेद हमरा ऐ लेल अछि कारण सुरेन्द्रजी अपन आलेखमे बेर-बेर छूट बला ज्ञानक प्रदर्शन केने छथि)। ऐठाम कही जे गजलक हरेक पाँतिक मात्राक्रम एक समान हेबाक चाही ( एक समान मात्रा आ एक समान मात्राक्रम दूनू अलग-अलग वस्तु छै)।
5) कहबी छै जे "नकल करबाक लेल अकल चाही" मुदा सुरेन्द्रनाथजीकेँ नकलो करबाक बुद्धि नै छनि। ओ कोनो ज्ञानेन्द्र केर पोथीक उदाहरण दै छथि आ कहै छथि जे निराला गजलक व्याकरणकेँ तोड़ि देला। सच तँ ई अछि जे निराला मात्र विषय परिवर्तन केला आ उर्दू शब्दक बदला गजलमे हिंदी शब्दक प्रयोग केला। मैथिलीक बहुत रास शाइर एहने अराजक बयान दैत छथि जे दुष्यंत कुमार व्याकरण तोड़ला तँ अदम गोंडवी ई केला तँ ओ ओना केला। मुदा हिंदीक सभ गजलकार व्याकरणक पालन केला खाली ओ विषय परिवर्तन केला आ हिंदी शब्दक प्रयोग बेसी केला। हम ऐठाम पहिने निराला आ शमशेर बहादुर सिंह केर गजलक व्याकरण देखा रहल छी ( चूँकि सुरेन्द्रनाथजी फैशन आ नकल करैत बिना पढ़ने हिनकर सभहँक नाम लेने छथिन) आ तकर बाद जयशंकर प्रसाद सहित दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी, मुनव्वर राना सहित आन-आन गजलकारक गजलक व्याकरण देखा रहल छी। वास्तवमे सुरेन्द्रनाथजी भ्रम पसारि रहल छथि वा ई कहब बेसी उचित जे ओ अपन अज्ञानताक कारणें भ्रम पसारि रहल छथि। ऐठाम हम कही जे सुरेन्द्रनाथजी अपन आलेखमे कत्तौ उदाहरण नै देने छथि जे कोन तरहें निरालाजी गजलक व्याकरणकेँ तोड़लखिन मुदा हम उदाहरण दऽ कऽ देखा रहल छी जे हिंदीक सभ गजलकार सभ कोना व्याकरणक पालन केलथि। । तँ पहिने निराला आ शमशेर बहादुरक गजलकेँ देखू--
(संपादक/ उपसंपादक महोदय लोकनिसँ आग्रह जे ऐ आलेखमे आएल सभ उदाहरण आ ओकर लक्षणकेँ यथावत् राखथि कारण गजल उच्चारणपर निर्भर करै छै आ उच्चारण वर्तनीपर।संगे-संग दू शेरक बीचमे जते जगह छै से रहऽ दियौ)
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है
देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है
मतला ( मने पहिल शेर)क मात्राक्रम अछि-- 2122+2122+2122+212 आब सभ शेरक मात्राक्रम इएह रहत। एकरे बहर वा की वर्णवृत कहल जाइत छै। अरबीमे एकरा बहरे रमल केर मुजाइफ बहर कहल जाइत छै। मौलाना हसरत मोहानीक गजल " चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है" अही बहरमे छै जकर विवरण आगू देल जाएत। ऐठाँ ई देखू जे निराला जी गजलक विषय नव कऽ देलखिन प्रेमिकाक बदला विषय मिल आ पूँजी बनि गेलै मुदा व्याकरण वएह रहलै। हमरा ने ज्ञानेन्द्रसँ मतलब अछि ने सुरेन्द्रनाथसँ। हमरा मात्र पाठकसँ मतलब अछि आब वएह कहथि जे कि निरालाजी व्याकरण कतऽ तोड़लखिन? आब हम ऐठाम सुरेन्द्रजीसँ आग्रह करबनि जे हुनका तँ लघु-गुरूक सिद्धांत अबिते छनि तँ आब बाँचल शेरक निर्णय कऽ लेथु। सभ पाठकसँ आग्रह जे निर्णय करथि जे निराला जी बहरक पालन केला की नै। बाँचल शेर एना छै--
हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है
तरस है ये देर से आँखे गड़ी श्रृंगार में,
और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है
पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, जोर से आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है
ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें,
सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है
शमशेर बहादुर सिंह
1
जहाँ में अब तो जितने रोज अपना जीना होना है,
तुम्हारी चोटें होनी हैं हमारा सीना होना है।
वो जल्वे लोटते फिरते है खाको-खूने-इंसाँ में :
'तुम्हारा तूर पर जाना मगर नाबीना होना है!
ऐ गजलक मतलाक मात्राक्रम अछि 1222-1222-1222-1222 आ एकर पालन दोसर शेर सहित आन सभ शेरमे अछि। सुरेन्द्रनाथजीसँ आग्रह जे ओ पूरा गजल पढ़ि लेथि।
चूँकि सुरेन्द्रनाथजीक इच्छित उदाहरण हम दऽ चुकल छी मुदा तैयो हम ऐठाम हिंदी-उर्दूकक किछु महत्वपूर्ण गजलक व्याकरण देखा रहल छी जे तँ मुख्यतः पाठक लेल अछि मुदा सुरेन्द्रनाथ आ हुनकर संगी सेहो देखथि--
जयशंकर प्रसाद
सरासर भूल करते हैं उन्हें जो प्यार करते हैं
बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं
उन्हें अवकाश ही इतना कहां है मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं यही उपकार करते हैं
जो ऊंचे चढ़ के चलते हैं वे नीचे देखते हरदम
प्रफ्फुलित वृक्ष की यह भूमि कुसुमगार करते हैं
न इतना फूलिए तरुवर सुफल कोरी कली लेकर
बिना मकरंद के मधुकर नहीं गुंजार करते हैं
'प्रसाद' उनको न भूलो तुम तुम्हारा जो भी प्रेमी हो
न सज्जन छोड़ते उसको जिसे स्वीकार करते हैं
प्रसादजी ऐ गजलक बहर अछि-- 1222-1222-1222-1222
आजुक समयक प्रसिद्ध शाइर आ फिल्मी गीतककार जावेद अख्तरजीक ई गजल देखू जे की जगजीत सिंह गेने छथि--
तमन्ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
ये मौसम ही बदल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
1222-1222-1222-1222
आब पूरा गजल देखू--
तमन्ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
ये मौसम ही बदल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
मुझे गम है कि मैने जिन्दगी में कुछ नहीं पाया
ये ग़म दिल से निकल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे
ज़माना मुझसे जल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्से, काम की बातें
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
आब हसरत मोहानीक ई प्रसिद्ध गजल देखू--
2122-2122-2122-212
चुपके-चुपके- रात दिन आँ-सू बहाना- याद है
हमको अब तक- आशिक़ी का- वो ज़माना -याद है
आब पूरा गजल देखू--
चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है
तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है
खेंच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़तन
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है
जानकर सोता तुझे वो क़स्दे पा-बोसी मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कराना याद है
(ई गजल बहुत नमहर छै तँए मात्र पाँच टा शेर दऽ रहल छी)
कबीर दासक एकट गजलकेँ तक्ती कऽ कऽ देखा रहल छी--
बहर—ए—हजज केर ई गजल जकर लयखंड (अर्कान) (1222×4) अछि--
ह1 मन2 हैं2 इश्2, क़1 मस्2ता2ना2, ह1 मन2 को 2 हो 2, शि1 या2 री2 क्या2
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
तेनाहिते आजुक प्रसिद्ध शाइर मुनव्वर राना केर ऐ गजलक तक्ती देखू—
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है
यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है
नकाब उलटे हुए जब भी चमन से वह गुज़रता है
समझ कर फ़ूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है
मुनव्वर राना (घर अकेला हो गया, पृष्ठ - 37)
तक्तीअ
बहुत पानी / बरसता है / तो मिट्टी बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
न रोया कर / बहुत रोने / से छाती बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
यही मौसम / था जब नंगे / बदन छत पर / टहलते थे
1222 / 1222 / 1222 / 1222
यही मौसम / है अब सीने / में सर्दी बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
नकाब उलटे / हुए जब भी / चमन से वह / गुज़रता है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
(नकाब उलटे के अलिफ़ वस्ल द्वारा न/का/बुल/टे 1222 मानल गेल अछि)
समझ कर फ़ू / ल उसके लब / पे तितली बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
आब राहत इन्दौरी जीक ऐ गजलकेँ देखू--
ग़ज़ल (1222 / 1222 / 122) (बहर-ए-हजज केर मुजाइफ)
चरागों को उछाला जा रहा है
हवा पर रौब डाला जा रहा है
न हार अपनी न अपनी जीत होगी
मगर सिक्का उछाला जा रहा है
जनाजे पर मेरे लिख देना यारों
मुहब्बत करने वाला जा रहा है
राहत इन्दौरी (चाँद पागल है, पृष्ठ - 24)
तक्तीअ =
चरागों को / उछाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122
हवा पर रौ / ब डाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122
न हार अपनी / न अपनी जी / त होगी
1222 / 1222 / 122
(हार अपनी को अलिफ़ वस्ल द्वारा हा/रप/नी 222 गिना गया है)
मगर सिक्का / उछाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122
जनाजे पर / मेरे लिख दे / ना यारों
1222 / 1222 / 122
मुहब्बत कर / ने वाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122
फेरसँ मुनव्वर रानाजीक एकटा आर गजलकेँ देखू--
हमारी ज़िंदगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है
सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता
कभी कश्मीर कटता है कभी बंगाल कटता है
(मुनव्वर राना)
1222 / 1222 / 1222 / 1222
(मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन)
हमारी ज़िं / दगी का इस / तरह हर सा / ल कटता है
कभी गाड़ी / पलटती है / कभी तिरपा / ल कटता है
सियासी वा/ र भी तलवा/ र से कुछ कम / नहीं होता
कभी कश्मी/ र कटता है / कभी बंगा / ल कटता है
आब दुष्यंत कुमारक ऐ गजलक तक्ती देखू--
2122 / 2122 / 2122 / 212
हो गई है / पीर पर्वत /-सी पिघलनी / चाहिए,
इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए।
आब अहाँ सभ ऐ गजलकेँ अंत धरि जा सकै छी। पूरा गजल हम दऽ रहल छी—
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
आब कने अदम गोंडवी जीक दू टा गजलक तक्ती देखू—
1222 / 1222 / 1222 / 1222
ग़ज़ल को ले / चलो अब गाँ / व के दिलकश /नज़ारों में
मुसल्सल फ़न / का दम घुटता / है इन अदबी / इदारों में
आब अहाँ सभ ऐ गजलकेँ अंत धरि जा सकै छी। पूरा गजल हम दऽ रहल छी—
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी क़तारों में
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में
रहे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तज़रबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में
कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में.
फेर गोंडवीजीक दोसर गजल लिअ—
2122 / 2122 / 2122 / 212
भूख के एह / सास को शे / रो-सुख़न तक /ले चलो
या अदब को / मुफ़लिसों की / अंजुमन तक /ले चलो
आब अहाँ सभ ऐ गजलकेँ अंत धरि जा सकै छी। पूरा गजल हम दऽ रहल छी--
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगा जल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
आब आधुनिक उर्दूक प्राचीनतम गजलकार हरी चंद अख़्तरजीक ई गजल देखू--
सुना कर हाल क़िस्मत आज़मा कर लौट आए हैं
उन्हें कुछ और बेगाना बना कर लौट आए है
1222-1222-1222-1222
आब पूरा गजल देखू--
सुना कर हाल क़िस्मत आज़मा कर लौट आए हैं
उन्हें कुछ और बेगाना बना कर लौट आए है
फिर इक टूटा हुआ रिश्ता फिर इक उजड़ी हुई दुनिया
फिर इक दिलचस्प अफ़्साना सुना कर लौट आए हैं
फ़रेब-ए-आरज़ू अब तो न दे ऐ मर्ग-ए-मायूसी
हम उम्मीदों की इक दुनिया लुटा कर लौट आए हैं
ख़ुदा शाहिद है अब तो उन सा भी कोई नहीं मिला
ब-ज़ोम-ए-ख़ुवेश इन का आज़मा कर लौट आए हैं
बिछ जाते हैं या रब क्यूँ किसी काफ़िर के क़दमों में
वो सज्दे जो दर-ए-काबा जा कर लौट आए हैं
("फिर इक" मे अलिफ-वस्ल छूट छै आ एकर उच्चारण "फिरिक" छै। तेनाहिते "हम उम्मीदों “ लेल तेहने सन बूझू।)
कतेक नाम आ गजल दिअ ऐ ठाम। कहबाक मतलब जे हरेक शाइर अपन गजलमे कथ्य आ तेवर बदलै छथि व्याकरण वएह रहै छै। मुदा मैथिलीक विद्वान तँ बस विद्वान छथि हुनका के टोकत। ऐ ठाम ई उदाहरण सभ देबाक मतलब मात्र सही पक्षकेँ उजागर करबाक अछि।
ओना सुरेन्द्रनाथजी कहता जे ई उदाहरण सभ हिंदी-उर्दूक अछि आ मैथिलीक अपन व्याकरण हेबाक चाही। पहिल गप्प जे ओ अपने कहै छथि जे हिंदीक गजलमे व्याकरण नै छै आ दोसर गप्प जे कोनो विधाक व्याकरण तँ मूले भाषासँ लेल जेतै खाली लक्ष्य भाषामे संशोधन हेतै । आब ई संशोधन केना हेतै से ऐ उदाहरणसँ बूझू—
1222-1222-1222-1222 (मने लघु-दीर्घ-दीर्घ, लघु-दीर्घ-दीर्घ,लघु-दीर्घ-दीर् घ,लघु-दीर्घ-दीर्घ केर चारि बेर प्रयोग) के अरबीमे बहरे-हज़ज कहल जाइत छै आ एकरा बहुत संगीतमय बूझल जाइत छै मुदा बहुत संभव जे भाषायी भिन्नताक कारण ई बहर या छंद मैथिलीमे कर्णप्रिय नै हो। आ एहन स्थितिमे मैथिलीमे 122-1222-222-1222 सनकेँ कोनो छंद आबि जाए। हमरा बुझने इएह संशोधन छै।
आब 1222-1222-1222-1222 केर गिनती करबाक लेल जे नियम छै सएह नियम 122-1222-222-1222 लेल सेहो रहतै या अन्य कोनो छंद लेल वएह रहतै।
तेनाहिते संस्कृत आ अरबीमे 122-122-122-122 छंदक समान रूपसँ प्रयोग होइत छै। संस्कृतमे एकरा भुजंगप्रयात कहल जाइत छै तँ अरबीमे बहरे-मुतकारिब। दूनू भाषामे ई उच्च संगीत क्षमता नेने भेटत। संस्कृतमे गोस्वामी तुलसीदासजीक ई रचना देखू जे भुजंगप्रयात ( बहरे मुतकारिब)मे अछि--
नमामी शमीशान निर्वाण रूपं
विभू व्यापकम् ब्रम्ह वेदः स्वरूपं
पहिल पाँतिकेँ मात्रा क्रम अछि---- ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व-दीर् घ-दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-ह् रस्व-दीर्घ-दीर्घ, दोसरो पाँतिकेँ मात्रा क्रम अछि-----ह्रस्व- दीर्घ -दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ-ह् रस्व-दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ- दीर्घ
फेर उपरे जकाँ कही जे भऽ सकैए जे मैथिलीमे ऐ ढ़ाँचामे संगीत नै आबि सकै आ तँए 22-122-22-122 रूप आबि जाए वा 221-122-212-122 रूप आबि जाए। मुदा लघु-दीर्घ गिनती करबाक नियम तँ समाने रहतै। बदलतै नै। मैथिलीमे शाइर राजीवरंजन मिश्रजी एहने संशोधन ओ परिवर्तन करैत गजल कहि-लीखि रहल छथि। राजीवजी कोनो अरबी वा संस्कृतक मान्य छंद नै लै छथि मुदा गजलक पहिल पाँतिमे जे मात्राक्रम रहै छै तकर ओ पूरा गजलमे पालन करै छथि आ इएह तँ छंद वा बहरक निर्वाह केनाइ भेलै। उदाहरण लेल राजीवजीक एकटा गजल राखि रहल छी—
नै राम रहीमक झोक रहय
नै वेद कुरानक टोक चलय
मतलाक दूनू पाँतिमे 221 122 2112 ढ़ाँचा अछि आ निच्चा आन शेर सभमे देखू इएह मात्राक्रम भेटत--
किछु आर भने नै होइ मुदा
बस संग धऽ लोकक लोक सहय
नै ईद दिवाली भरिकँ मजा
आनंद सहित नित नेह लहय
हो राम रहीमक गान सदति
नै नामकँ खातिर जीव मरय
राजीव सुनब नै लोककँ कहल
किछु लोक तऽ अतबे खेल करय
की ऐ गजलमे समकालीन स्वर नै छै। सुरेन्द्रनाथजीकेँ मेहनति नै करबाक छनि तँ नै करथु मुदा भ्रम ओ अज्ञानता नै पसारथु से हमर आग्रह। हम ऐ ठाम मैथिलीक किछु गजल कारक दूटा कऽ शेर देखा रहल छी। सभ गोटा देखू जे कोना एकै संग समकालीन स्वर आ व्याकरण छै—
कविवर सीताराम झाजीक गजलक दूटा शेर--
हम की मनाउ चैती सतुआनि जूड़शीतल
भै गेल माघ मासहि धधकैत घूड़तीतल`
मतलाक छंद अछि 2212+ 122+2212+ 122 आब दोसर शेर मिला लिअ-
अछि देशमे दुपाटी कङरेस ओ किसानक
हम माँझमे पड़ल छी बनि कै बिलाड़ि तीतल
पहिल शेर आइयो ओतबे प्रासंगिक अछि जते पहिले छल। आइयो नव साल गरीबक लेल नै होइ छै।
दोसर शेरकेँ नीक जकाँ पढ़ू आइसँ साठि-सत्तर साल पहिलुक राजनीतिक चित्र आँखि लग आबि जाएत।
जगदीश चंद्र ठाकुर "अनिल" जीक गजलक दू टा शेर--
टूटल छी तँइ गजल कहै छी
भूखल छी तँइ गजल कहै छी
मतलाक दूनू पाँतिमे 2222 +12 + 122 छंद अछि आ एकर दोसर शेर देखू--
ऑफिस सबहक कथा कहू की
लूटल छी तँइ गजल कहै छी
पाठक निर्णय करता जे समकालीन स्वर छै की नै।
योगानंद हीराजीक गजलक दू टा शेर—
मोनमे अछि सवाल बाजू की
छल कपट केर हाल बाजू की
मतलाक दूनू पाँतिमे 2122-12-1222 अछि आ दोसर शेर देखू
छोट सन चीज कीनि ने पाबी
बाल बोधक सवाल बाजू की
की समकालीन स्वर नै छै?
समकालीन स्वरे नै कालातीत स्वरक संग विजयनाथ झा जीक ऐ गजलक दूटा शेर देखू--
जीवनक आशय सदाशय सूत्र शिवता सार किछु
बेस बीतल शेष एहिना अभिलषित आभार किछु
मतलाक छंद अछि 212-212-212-212 आब दोसर शेरक दूनू पाँतिकेँ जाँच कऽ लिअ संगे संग भाव केर सेहो।
द्वन्द अछि आनंद तैयो क्लेश प्रियगर वारुणी
पी रहल हम जानि गंगा मधु मदिर नहि आर किछु
ऐठाम हमरा लग उदहारणक नमहर लिस्ट अछि मुदा मुदा पत्रिकाक सीमा होइत छै तँए हम रुकि रहल छी।
सुरेन्द्रनाथजी कहै छथि जे रचनामे समकालीन स्वर हेबाक चाही। आ देखू जे दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी, निराला सहित मैथिलीक बहुत रास शाइर बिना व्याकरणकेँ तोड़ने केना समकालीन स्वर देने छथि अपन गजलमे। की ई हिम्मत आ मेहनति करबाक क्षमता सुरेन्द्रनाथ जीमे छनि? हमरा बुझने सुरेन्द्रनाथजी संशोधनक मतलब छोड़ि देनाइ-तोड़ि देनाइ आ विनाश केनाइ बुझै छथि। आ हुनकर ऐ अज्ञानतापर की कएल जा सकैए से पाठक निर्णय करता।
6) सुरेन्द्रनाथजी अपन आलेखमे योगानंद हीरा आ विजयनाथ झाजीक संदर्भमे ई प्रश्न केला जे "हिनका सभमे प्रतिभा छलनि तँ ई सभ घनगर किएक नै भेला"। एकर जबाबमे हम बस एतबा कहऽ चाहै छी जे जँ कोनो खेतिहर अपन खेतमे गहूँम बाउग करै छै। आ गहूमक संग बहुत रास घास सभ जनमै छै। आब जँ खेतिहर कमौट नै करतै तँ ओ घास सभ गहूमकेँ बढ़हे नै देतै। ई पूर्णतः सत्य छै आ पाठक एकर अंदाजा लगा सकै छथि। मैथिली गजलक संदर्भमे इएह भेलै। शुरूमे नीक गजल तँ एलै मुदा बिना आलोचकक ई विधा रहि गेल आ एकर परिणाम स्वरूप "सुरेन्द्रनाथ" सन-सन जंगली घास " योगानंद हीरा ओ विजयनाथ झा" सन गहूमकेँ झाँपि देलकै। बीच-बीचमे जे खाद पड़लै तकर तागति सेहो बहुसंख्यक घास द्वारा चूसि लेल गेलै।
7) सुरेन्द्रनाथजी हमर ऐ बातसँ बहुत तामसमे छथि जे " गजेन्द्र ठाकुर मैथिलीक पहिल गजलशास्त्र देला"। सुरेन्द्रनाथजी कहै छथि जे मैथिलीमे बहुत पहिलेसँ गजलशास्त्र छै। हम हुनकर मतक आदर करै छी संगे संग पूछए चाहै छी जे " अराजक गजलकार सभ गजलशास्त्र कहिया लिखला" आ जँ लिखबो केला तकर सूचना सुरेन्द्रनाथजी नै दऽ रहल छथि। हुनका कहबाक चाही जे अमुक लेखक गजेन्द्र ठाकुरसँ पहिने गजलशास्त्र लिखने छथि। बस बात खत्म मुदा ओ नाम नै कहि रहल छथि। ऐ पत्रिकाक माध्यमें हम हुनकासँ आग्रह करैत छी जी जे ओ पाठककेँ मैथिलीक पहिल गजलशास्त्रक नाम ओ ओकर लेखकक नाम कहता। आ तकर बाद गजेन्द्र ठाकुर बला दावा हम अपने खारिज क लेब................. प्रतीक्षामे छी
8) ई जानल बात छै जे मैथिलीमे सरल वार्णिक बहरक अविष्कार मात्र एकसूत्रमे बन्हबाक लेल भेल छै। आ एकर लाभ मैथिलीक नव गजलकार सभकेँ भेलै से पूरा दुनियाँ जानि रहल अछि। मुदा सुरेन्द्रनाथजी बिना मूल ग्रंथ, पढ़ने तामसमे आबि लिखै छथि। तँए हुनकासँ गंभीरताक आशा करब बेकार।
9) पद्य बला प्रसंगमे सुरेन्द्रनाथजी अपने ओझरीमे छथि। हुनका बुझबाक चाही जे समस्त लिखित वस्तु काव्यक अंतर्गत आबै छै। बादमे गेय आ सरस काव्यकेँ "पद्य" कहल गेलै तँ शुष्क काव्यकेँ "गद्य"। कोनो निश्चित नियमसँ बान्हल पद्य एकटा विधा बनल जेना कोनो पद्यकेँ दोहाक नियममे दियौ तँ दोहा बनतै, सोरठाक नियममे दियौ तँ सोरठा।। तेनाहिते गजलक सेहो नियम छै। आब प्रश्न छै जे जँ कोनो दोहा की सोरठा की कुंडलिया की गजल ओइ निश्चित नियमक पालन नै सकल छै तँ ओ की कहेतै। निश्चित तौरपर ओ सभ पद्ये कहेतै। कारण ओइमे कोनो खास विधाक नियम नै छै मुदा गेयता आ सरसता तँ छैके। मुदा सुरेन्द्रनाथजी एतेक छोट आ सरल बात नै बूझि सकलाह तकर हमरा दुख अछि।
10) सुरेन्द्रनाथजी अपन आलेखमे बहुत दुविधाग्रस्त छथि। कतहुँ ओ लिखै छथि जे गजलमे व्याकरण नै होइ छै, तँ कतहुँ लिखै छथि जे गजलमे व्याकरण नै हेबाक चाही आ अंतमे कहै छथि जे मैथिलीक गजलकेँ अपन व्याकरण हेबाक चाही।
बहुत दुविधा छनि सुरेन्द्रनाथजीकेँ मुदा ऐ दुविधामे हम फँसऽ नै चाहैत छी आ तँए सोझे पाठक लग चलै छी.........................