बुधवार, 7 अप्रैल 2010

गजल

1.
आदमी छल - छद्मकं मोहरा बनल ।
आब गामो पर शहरकं पहरा पड़ल ।


मनुक्खे रहल, मनुक्ख्ता लुटि गेलई।
लट पांचाली के पेᆬर सँ खुजले रहल ।


रंग अपनहुँ के आब जर्द सन भऽ गेलई।
जिनगीकं महल आई खंडहर सन ढ़हल।


आब कंकंरा सँ कंहतई मोनकं व्यथा।
कंान मालिकंो के तऽ छई पाथरे बनल।


अपनो पर कंोना आब कंोई भरोसा कंरय।
सांस-सांसो मे माहुर आछ भरल पड़ल।


बाटकं धूरा जकंाँ उड़िते रहि गेलहुँ।
आँखि कंानल मुदा मोन नहिये भरल।







2
रूप के चर्चा कंरू कंी, भूख सँ आछ आँत बैसल ।
बाले-बच्चे भुखले सुततै, ताहि लेल हरहोरि पैसल।


साँझकं साँझ बितै छै जकंरा से गरीबी रेखा सँ उपर ।
बड़कंा बड़कंा कंोठा सोफा सैह सभ अनुदान हँसोथल ।

रखवारी के भार जकंर छल सैह सभ बटमारी केलकंई ।
चोरहो के शोर कंरत के भाग भरोसे आछ जे बाँचल ।



एहि गाम मे कंौआ- वुᆬक्वुᆬर-नढ़िया सँगे रहैत आछ ।
उपर सँ भने कंटाउझ मालपुआ धरि आपस मे बाँटल ।


असोथकिंत जे राति भेल छई, धिंगी-धिंगी दिन भेलई ।
हाथ के हाथ ने सुझि रहल छै आँखिये मे जाला छाड़ल ।


कंाँट-वुᆬश के बोन मे भटकैत, सौंसे देह शोणिते शोणित ।
भविष्य ओकंर कंी जे बनि-बनि बरछी कंोंढ़ मे भोंकंल ।


3
धज्जी रातुकं श्याह आँचर मे, अहल भोर के ताकिं रहल छी ।
अपन आंगन मे ठाढ़ हम, आई अपने घर के ताकिं रहल छी ।


आहत मोनकं घायल तड़पन, पेᆬरो आई कंनाबऽ आयल ।
जतऽ जलन के पीड़ा कंम हो, ओहन छाँह के ताकिं रहल छी ।


दोसरा कें किं दोष देबई हम, अपनो सभ तऽ अंठिये बनला ।
याद ने कंोनो बाँचल रहि जाय, ओहन ठौर के ताकिं रहल छी ।


बगबाहो अपनहिं हाथें, आई कंलम-बाग सभ जारऽ आयल ।
तड़पन जतऽ तड़पि रहि जायत, ओहने कंहर के ताकिं रहल छी ।


बिसरि गेल जे याद छलै, से सपना किंयैकं याद दियौलकं ?
नोर ने ढ़रकंय जाहि पलकं सँ, एहन आँखि के ताकिं रहल छी ।


निकंलि गेलहुँ आछ सुन्न राह पर, अन्हारेकं टा सम्बल केवल ।
अपन-आन केयो कंतहु नहि, आई ओहन दर के ताकिं रहल छी ।

1 टिप्पणी:

  1. तेसर नंबर वला गजल बहुत बढिया अछि।एहि मे भावनाक गहराइ सेहो अछि आ गजलगोई के प्रवाह सेहो।जतेक उन्मुक्त भ' क' लिखब,ततेक ओरीजिनल लिखि पाएब।बधाइ...

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तोहर मतलब प्रेम प्रेमक मतलब जीवन आ जीवनक मतलब तों