बहुत काल एहन होइत छै जे बेमतलबक भारी अवाजक भीड़मे हल्का अवाज हेड़ा जाइत छै। हिंदी गजलमे सभसँ बड़का बेमारी छै जे जाहि गजलमे खाली अमीर-गरीब,लाल झंडा आदिक उल्लेख रहै छै तकरा महान मानि लेल जाइ छै। ई बेमारी किछु हद धरि मैथिली गजल संसारमे सेहो अछि। एहि लिस्टमे हम दुष्यंत कुमारक नाम नै राखब कारण दुष्यंत कुमार अपन गजलमे एहि प्रतीक सभहँक प्रयोग केलथि तँ व्यावहारिक रूपसँ इमरजेन्सीमे सरकारक विरोध सेहो केलथि। हमरा ओहन शाइरसँ किछु ने कहबाक अछि जे कि खाली लिखित शब्दसँ अपनाकेँ महान बनबाक प्रयास करै छथि। चूँकि हिंदीमे खाली लिखित शब्दक अधारपर महान बनबाक परंपरा अछि (दुष्यंत सनकेँ छोड़ि) तँइ गजलक मूल स्प्रिट पकड़ए बला गजलकार पं. कृष्णानंद चौबे केर नाम हिंदी गजलसँ हेड़ा गेल। हम पं. कृष्णानंद चौबेकेँ अपन प्रिय गजलकारमेसँ एकटा मानै छी। आउ आइ हम सभ हुनक परिचय प्राप्त करी आ हुनक किछु गजल पढ़ी--
नाम-- पं. कृष्णानंद चौबे
जन्म- 5-8-1933 फर्रुखाबद
मृत्यु- 14-13-2010 (कानपुर)
शिक्षा-स्नातक
1953सँ 1960 धरि बनारससँ प्रकाशित "अमृत पत्रिका" दैनिकमे उपसंपादक। 1961सँ 1980 धरि उद्योग निदेशालय, कानपुरमे "इंडस्ट्रीज न्यूज लेटर" केर संपादन। 1990मे सेवानिवृत। आ ओकर बाद मृत्यु धरि दैनिक जागरण कानपुरसँ संबंध रहला।गजलक अतिरिक्त, हास्य-व्यंग्य, गीत, समीक्षा आदि लिखैत रहला।
गजल संग्रह -- परिंदें क्यों नहीं लौटे
1
आपका मक़सद पुराना है मगर खंज़र नया
मेरी मजबूरी है मैं लाऊँ कहाँ से सर नया
मैं नया मयक़श हूँ मुझको चाहिये हर शै नयी
एक मयख़ाना नया, साक़ी नया, साग़र नया
देखता हूँ तो सभी घर मुझको लगते हैं नये
सोचता हूँ तो नहीं लगता है कोई घर नया
देखिये घबरा न जाये तालियों के शोर में
आज पहली बार आया है ये जादूगर नया
हम किसी सूरत किसी के हाथ बिक सकते नहीं
चाहे वो ताज़िर पुराना हो या सौदागर नया
मेरा शीशे का मकाँ तामीर होने दीजिये
हर किसी के हाथ में आ जायेगा पत्थर नया
2
मंदिरों में आप मनचाहे भजन गाया करें
मैक़दा ये है यहाँ तहज़ीब से आया करें
रात की ये रौनक़ें अपने मुक़द्दर में नहीं
शाम होते ही हम अपने घर चले जाया करें
साथ जब देता नहीं साया अंधेरे में कभी
रौशनी में ऐसी शय से क्यों न घबराया करें
बन्द रहते हों जो अक्सर आम लोगों के लिये
अपने घर में ऐसे दरवाज़े न लगवाया करें
ये हिदायत एक दिन आयेगी हर स्कूल में
मुल्क़ की तस्वीर बच्चों को न दिखलाया करें
क्यों नहीं आता है इन तूफ़ानी लहरों को शऊर
कम से कम काग़ज़ की नावों से न टकराया करें
3
न मिलने का वादा, न आने की बातें
कहाँ तक सुनें दिल जलाने की बातें
हमेशा वही सर झुकाने की बातें
कभी तो करो सर उठाने की बातें
कोई इस ज़माने की कहता नहीं है
सुनाते हो अपने ज़माने की बातें
कहाँ तक सुने कोई इन रहबरों की
हथेली पे सरसों उगाने की बातें
तरस खायेंगी बिजलियाँ भी यक़ीनन
जो सुन लें कभी आशियाने की बातें
अजब-सी लगे हैं फ़क़ीरों के मुँह से
किसी हूर की या ख़ज़ाने की बातें
कभी जो हुईं थीं हमारी-तुम्हारी
वो बातें नहीं हैं बताने की बातें
4
इधर भटके, उधर भटके, भटक कर लौट आये हैं
वो भूले सुब्ह के थे शाम को घर लौट आये हैं
यहाँ से जो गये थे सिर्फ़ बुनियादों के मक़सद से
वहाँ आपस में टकराकर वो पत्थर लौट लाये हैं
तेरी जन्नत मुबारक़ हो तुझे या शेख़ साहब को
ख़ुदा के नाम हम तहरीर लिखकर लौट आये हैं
चले जायेंगे फिर इक बार उनके कुछ न कहने को
हमारा क्या है हम उस दर से अक्सर लौट आये हैं
सभी हैरान हैं आख़िर परिन्दे क्यों नहीं लौटे
ज़मीं पर उनके बस टूटे हुए पर लौट आये हैं
हमारे दिन भी कैसे हैं, गये तो फिर नहीं आये
कई लोगों के अच्छे दिन भी अक्सर लौट आये हैं
क़लम जिनको किया था साफ़गोई के लिये तुमने
मेरी ग़ज़लों की सूरत में वही सर लौट आये हैं
5
ज़िन्दगी के फलसफ़े में अब न उलझाना मुझे
ख़ुद समझ लेना तो उसके बाद समझाना मुझे
मेरी दिन भर की उदासी को समझ लेता है वो
शाम होते ही बुला लेता है मयख़ाना मुझे
आईना भी अब मुझे कुछ अजनबी लगने लगा
अपने ही चेहरे से कहता हूँ कि पहचाना मुझे
आज फिर कुछ बस्तियाँ जलती नज़र आईं मुझे
आज फिर लिखना पड़ेगा एक अफ़साना मुझे
बदहवासी देखिये साक़ी ने यूँ बाँटी शराब
मेरा पैमाना उसे और उसका पैमाना मुझे
इन दिनों तो मुझको तिनके का सहारा भी नहीं
दोस्तो सैलाब की ज़द में न ले जाना मुझे
आज उसकी याद फिर चुपके से दिल में आ गई
आज कुछ आबाद-सा लगता है वीराना मुझे
विश्व गजलकार परिचय शृंखलाक अन्य भाग पढ़बाक लेल एहि ठाम आउ-- विश्व गजलकार परिचय
नाम-- पं. कृष्णानंद चौबे
जन्म- 5-8-1933 फर्रुखाबद
मृत्यु- 14-13-2010 (कानपुर)
शिक्षा-स्नातक
1953सँ 1960 धरि बनारससँ प्रकाशित "अमृत पत्रिका" दैनिकमे उपसंपादक। 1961सँ 1980 धरि उद्योग निदेशालय, कानपुरमे "इंडस्ट्रीज न्यूज लेटर" केर संपादन। 1990मे सेवानिवृत। आ ओकर बाद मृत्यु धरि दैनिक जागरण कानपुरसँ संबंध रहला।गजलक अतिरिक्त, हास्य-व्यंग्य, गीत, समीक्षा आदि लिखैत रहला।
गजल संग्रह -- परिंदें क्यों नहीं लौटे
1
आपका मक़सद पुराना है मगर खंज़र नया
मेरी मजबूरी है मैं लाऊँ कहाँ से सर नया
मैं नया मयक़श हूँ मुझको चाहिये हर शै नयी
एक मयख़ाना नया, साक़ी नया, साग़र नया
देखता हूँ तो सभी घर मुझको लगते हैं नये
सोचता हूँ तो नहीं लगता है कोई घर नया
देखिये घबरा न जाये तालियों के शोर में
आज पहली बार आया है ये जादूगर नया
हम किसी सूरत किसी के हाथ बिक सकते नहीं
चाहे वो ताज़िर पुराना हो या सौदागर नया
मेरा शीशे का मकाँ तामीर होने दीजिये
हर किसी के हाथ में आ जायेगा पत्थर नया
2
मंदिरों में आप मनचाहे भजन गाया करें
मैक़दा ये है यहाँ तहज़ीब से आया करें
रात की ये रौनक़ें अपने मुक़द्दर में नहीं
शाम होते ही हम अपने घर चले जाया करें
साथ जब देता नहीं साया अंधेरे में कभी
रौशनी में ऐसी शय से क्यों न घबराया करें
बन्द रहते हों जो अक्सर आम लोगों के लिये
अपने घर में ऐसे दरवाज़े न लगवाया करें
ये हिदायत एक दिन आयेगी हर स्कूल में
मुल्क़ की तस्वीर बच्चों को न दिखलाया करें
क्यों नहीं आता है इन तूफ़ानी लहरों को शऊर
कम से कम काग़ज़ की नावों से न टकराया करें
3
न मिलने का वादा, न आने की बातें
कहाँ तक सुनें दिल जलाने की बातें
हमेशा वही सर झुकाने की बातें
कभी तो करो सर उठाने की बातें
कोई इस ज़माने की कहता नहीं है
सुनाते हो अपने ज़माने की बातें
कहाँ तक सुने कोई इन रहबरों की
हथेली पे सरसों उगाने की बातें
तरस खायेंगी बिजलियाँ भी यक़ीनन
जो सुन लें कभी आशियाने की बातें
अजब-सी लगे हैं फ़क़ीरों के मुँह से
किसी हूर की या ख़ज़ाने की बातें
कभी जो हुईं थीं हमारी-तुम्हारी
वो बातें नहीं हैं बताने की बातें
4
इधर भटके, उधर भटके, भटक कर लौट आये हैं
वो भूले सुब्ह के थे शाम को घर लौट आये हैं
यहाँ से जो गये थे सिर्फ़ बुनियादों के मक़सद से
वहाँ आपस में टकराकर वो पत्थर लौट लाये हैं
तेरी जन्नत मुबारक़ हो तुझे या शेख़ साहब को
ख़ुदा के नाम हम तहरीर लिखकर लौट आये हैं
चले जायेंगे फिर इक बार उनके कुछ न कहने को
हमारा क्या है हम उस दर से अक्सर लौट आये हैं
सभी हैरान हैं आख़िर परिन्दे क्यों नहीं लौटे
ज़मीं पर उनके बस टूटे हुए पर लौट आये हैं
हमारे दिन भी कैसे हैं, गये तो फिर नहीं आये
कई लोगों के अच्छे दिन भी अक्सर लौट आये हैं
क़लम जिनको किया था साफ़गोई के लिये तुमने
मेरी ग़ज़लों की सूरत में वही सर लौट आये हैं
5
ज़िन्दगी के फलसफ़े में अब न उलझाना मुझे
ख़ुद समझ लेना तो उसके बाद समझाना मुझे
मेरी दिन भर की उदासी को समझ लेता है वो
शाम होते ही बुला लेता है मयख़ाना मुझे
आईना भी अब मुझे कुछ अजनबी लगने लगा
अपने ही चेहरे से कहता हूँ कि पहचाना मुझे
आज फिर कुछ बस्तियाँ जलती नज़र आईं मुझे
आज फिर लिखना पड़ेगा एक अफ़साना मुझे
बदहवासी देखिये साक़ी ने यूँ बाँटी शराब
मेरा पैमाना उसे और उसका पैमाना मुझे
इन दिनों तो मुझको तिनके का सहारा भी नहीं
दोस्तो सैलाब की ज़द में न ले जाना मुझे
आज उसकी याद फिर चुपके से दिल में आ गई
आज कुछ आबाद-सा लगता है वीराना मुझे
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