बुधवार, 11 नवंबर 2009

मैथिलीमे गजल आ एकर संरचना -धीरेन्द्र प्रेमर्षि

धीरेन्द्र प्रेमर्षि (१९६७- )मैथिली भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रक काजमे समान रूपेँ निरन्तर सक्रिय व्यक्तिक रूपमे चिन्हल जाइत छथि धीरेन्द्र प्रेमर्षि। वि.सं.२०२४ साल भादब १८ गते सिरहा जिलाक गोविन्दपुर-१, बस्तीपुर गाममे जन्म लेनिहार प्रेमर्षिक पूर्ण नाम धीरेन्द्र झा छियनि। सरल आ सुस्पष्ट भाषा-शैलीमे लिखनिहार प्रेमर्षि कथा, कविताक अतिरिक्त लेख, निबन्ध, अनुवाद आ पत्रकारिताक माध्यमसँ मैथिली आ नेपाली दुनू भाषाक क्षेत्रमे सुपरिचित छथि। नेपालक स्कूली कक्षा १,२,३,४,९ आ १०क ऐच्छिक मैथिली तथा १० कक्षाक ऐच्छिक हिन्दी विषयक पाठ्यपुस्तकक लेखन सेहो कएने छथि। साहित्यिक ग्रन्थमे हिनक एक सम्पादित आ एक अनूदित कृति प्रकाशित छनि। प्रेमर्षि लेखनक अतिरिक्त सङ्गीत, अभिनय आ समाचार-वाचन क्षेत्रसँ सेहो सम्बद्ध छथि। नेपालक पहिल मैथिली टेलिफिल्म मिथिलाक व्यथा आ ऐतिहासिक मैथिली टेलिश्रृङ्खला महाकवि विद्यापति सहित अनेको नाटकमे अभिनय आ निर्देशन कऽ चुकल प्रेमर्षिकेँ नेपालसँ पहिलबेर मैथिली गीतक कैसेट कलियुगी दुनिया निकालबाक श्रेय सेहो जाइत छनि। हिनक स्वर सङ्गीतमे आधा दर्जनसँ अधिक कैसेट एलबम बाहर भऽ चुकल अछि। कान्तिपुरसँ हेल्लो मिथिला कार्यक्रम प्रस्तुत कर्ता जोड़ी रूपा-धीरेन्द्रक धीरेन्द्रक अबाज गामक बच्चा-बच्चा चिन्हैत अछि। “पल्लव” मैथिली साहित्यिक पत्रिका आ “समाज” मैथिली सामाजिक पत्रिकाक सम्पादन।


मैथिलीमे गजल आ एकर संरचना-धीरेन्द्र प्रेमर्षि

रूप-रङ्ग एवं चालि-प्रकृति देखलापर गीत आ गजल दुनू सहोदरे बुझाइत छैक। मुदा मैथिलीमे गीत अति प्राचीन काव्यशैलीक रूपमे चलैत आएल अछि, जखन कि गजल अपेक्षाकृत अत्यन्त नवीन रूपमे। एखन दुनूकेँ एकठाम देखलापर एना लगैत छैक जेना गीत-गजल कोनो कुम्भक मेलामे एक-दोसरासँ बिछुड़ि गेल छल। मेलामे भोतिआइत-भासैत गजल अरबदिस पहुँचि गेल। गजल ओम्हरे पलल-बढ़ल आ जखन बेस जुआन भऽ गेल तँ अपन बिछुड़ल सहोदरकेँ तकैत गीतक गाम मिथिलाधरि सेहो पहुँचि गेल। जखन दुनूक भेट भेलैक तँ किछु समय दुनूमे अपरिचयक अवस्था बनल रहलैक। मिथिलाक माटिमे पोसाएल गीत एकरा अपन जगह कब्जा करऽ आएल प्रतिद्वन्दीक रूपमे सेहो देखलक। मुदा जखन दुनू एक-दोसराकेँ लगसँ हियाकऽ देखलक तखन बुझबामे अएलैक-आहि रे बा, हमरासभमे एना बैर किएक, हम दुनू तँ सहोदरे छी! तकरा बाद मिथिलाक धरतीपर डेगसँ डेग मिला दुनू पूर्ण भ्रातृत्व भावेँ निरन्तर आगाँ बढ़ैत रहल अछि।
गीत आ गजलक स्वरूप देखलापर दुनूक स्वभावमे अपन पोसुआ जगहक स्थानीयताक असरि पूरापूर देखबामे अबैत अछि। गीत एना लगैत छैक जेना रङ्गबिरङ्गी फूलकेँ सैँतिकऽ सजाओल सेजौट हो। मिथिलाक गीतमे काँटोसन बात जँ कहल जाइछ तँ फूलेसन मोलायम भावमे। एकरा हम एहू तरहेँ कहि सकैत छी जे गीत फूलक लतमारापर चलबैत लोककेँ भावक ऊँचाइधरि पहुँचबैत अछि। एहिमे मिथिलाक लोकव्यवहार एवं मानवीय भाव प्रमुख भूमिका निर्वाह करैत आएल अछि। जाहि भाषाक गारियोमे रिदम आ मधुरता होइत छैक, ओहि भूमिपर पोसाएल गीतक स्वरूप कटाह-धराह भइए नहि सकैत अछि। कही जे गीतमे तँ लालीगुराँसक फूलजकाँ ओ ताकत विद्यमान छैक जे माछ खाइत काल जँ गऽरमे काँट अटकि गेल तँ तकरो गलाकऽ समाप्त कऽ दैत छैक।
गजलक बगय-बानि देखबामे भलहि गीतेजकाँ सुरेबगर लगैक, एहिमे गीतसन नरमाहटि नहि होइत छैक। उसराह मरुभूमिमे पोसाएल भेलाक कारणे गजलक स्वभाव किछु उस्सठ होइत छैक। ई कट्टर इस्लामीसभक सङ्गतिमे बेसी रहल अछि, तेँ एकर स्वभावमे “जब कुछ न चलेगी तो ये तलवार चलेगा” सन तेज तेवरबेसी देखबामे अबैत छैक। यद्यपि गजलकेँ प्रेमक अभिव्यक्तिक सशक्त माध्यम मानल जाइत छैक। गजल कहितहिँदेरी लोकक मन-मस्तिष्कमे प्रेममय माहौल नाचि उठैत छैक, एहि बातसँ हम कतहु असहमत नहि छी। मुदा गजलमे प्रेमक बात सेहो बेस धरगर अन्दाजमे कहल जाइत छैक। कहबाक तात्पर्य जे गजल तरुआरिजकाँ सीधे बेध दैत छैक लक्ष्यकेँ। लाइलपटमे बेसी नहि रहैत छैक गजल। मिथिलाक सन्दर्भमे गीत आ गजलक एक्कहि तरहेँ जँ अन्तर देखबऽ चाही तँ ई कहल जा सकैत अछि जे गजल फूलक प्रक्षेपणपर्यन्त तरुआरिजकाँ करैत अछि, जखन कि गीत तरुआरि सेहो फूलजकाँ भँजैत अछि।
मैथिलीमे संख्यात्मक रूपेँ गजल आनहि विधाजकाँ भलहि कम लिखल जाइत रहल हो, मुदा गुणवत्ताक दृष्टिएँ ई हिन्दी वा नेपाली गजलसँ कतहु कनेको झूस नहि देखबामे अबैत अछि। एकर कारण इहो भऽ सकैत छैक जे हिन्दी, नेपाली आ मैथिली तीनू भाषामे गजलक प्रवेश एक्कहि मुहूर्त्तमे भेल छैक। गजलक श्रीगणेश करौनिहार हिन्दीक भारतेन्दु, नेपालीक मोतीराम भट्ट आ मैथिलीक पं. जीवन झा एक्कहि कालखण्डक स्रष्टासभ छथि।
मैथिलीयोमे गजल आब एतबा लिखल जा चुकल अछि जे एकर संरचनाक मादे किछु कहनाइ दिनहिमे डिबिया बारबजकाँ लगैत अछि। एहनोमे यदाकदा गजलक नामपर किछु एहनो पाँतिसभ पत्रपत्रिकामे अभरि जाइत अछि, जकरा देखलापर मोन किछु झुझुआन भइए जाइत छैक। कतेकोगोटेक रचना देखलापर एहनो बुझाइत अछि, जेना ओलोकनि दू-दू पाँतिवला तुकबन्दीक एकटा समूहकेँ गजल बूझैत छथि। हमरा जनैत ओलोकनि गजलकेँ दूरेसँ देखिकऽ ओहिमे अपन पाण्डित्य छाँटब शुरू कऽ दैत छथि। जँ मैथिली साहित्यक गुणधर्मकेँ आत्मसात कऽ चलैत कोनो व्यक्ति एकबेर दू-चारिटा गजल ढङ्गसँ देखि लिअए, तँ हमरा जनैत ओकरामे गजलक संरचनाप्रति कोनो तरहक द्विविधा नहि रहि जएतैक।
तेँ सामान्यतः गजलक सम्बन्धमे नव जिज्ञासुक लेल जँ किछु कहल जाए तँ विना कोनो पारिभाषिक शब्दक प्रयोग कएने हम एहि तरहेँ अपन विचार राखऽ चाहैत छी- गजलक पहिल दू पाँतिक अन्त्यानुप्रास मिलल रहैत छैक। अन्तिम एक, दू वा अधिक शब्द सभ पाँतिमे सझिया रहलहुपर साझी शब्दसँ पहिनुक शब्दमेअनुप्रास वा कही तुकबन्दी मिलल रहबाक चाही। अन्य दू-दू पाँतिमे पहिल पाँति अनुप्रासक दृष्टिएँ स्वच्छन्द रहैत अछि। मुदा दोसर पाँति वा कही जे पछिला पाँति स्थायीवला अनुप्रासकेँ पछुअबैत चलैत छैक।
ई तँ भेल गजलक मुह-कानक संरचनासम्बन्धी बात। मुदा खालि मुहे-कानपर ध्यान देल जाए आ ओकर कथ्य जँ गोङिआइत वा बौआइत रहि जाए तँ देखबामे गजल लगितो यथार्थमे ओ गीजल भऽ जाइत अछि। तेँ प्रस्तुतिकरणमे किछु रहस्य, किछु रोमाञ्चक सङ्ग समधानल चोटजकाँ गजलक शब्दसभ ताल-मात्राक प्रवाहमय साँचमे खचाखच बैसैत चलि जएबाक चाही। गजलक पाँतिकेँ अर्थवत्ताक हिसाबेँ जँ देखल जाए तँ कहि सकैत छी जे हऽरक सिराउरजकाँ ई चलैत चलि जाइत छैक। हऽरक पहिल सिराउर जाहि तरहेँ धरतीक छाती चीरिकऽ ओहिमे कोनो चीज जनमाओल जा सकबाक आधार प्रदान करैत छैक, तहिना गजलक पहिल पाँति कल्पना वा विषयवस्तुक उठान करैत अछि, दोसर पाँति हऽरक दोसर सिराउरक कार्यशैलीक अनुकरण करैत पहिलमे खसाओल बीजकेँ आवश्यक मात्रमे तोपन दऽकऽ पुनः आगू बढ़बाक मार्ग प्रशस्त्र करैत अछि। गजलक प्रत्येक दू-पाँति अपनहुमे स्वतन्त्र रहैत अछि आ एक-दोसराक सङ्ग तादात्म्य स्थापित करैत समग्रमे सेहो एकटा विशिष्ट अर्थ दैत अछि। एकरा दोसर तरहेँ एहुना कहल जा सकैत अछि जे गजलक पहिल पाँति कनसारसँ निकालल लालोलाल लोह रहैत अछि, दोसर पाँति ओकरा निर्दिष्ट आकारदिस बढ़एबाक लेल पड़ऽ वला घनक समधानल चोट भेल करैत अछि।
गीतक सृजनमे सिद्धहस्त मैथिलसभ थोड़े बगय-बानि बुझितहिँ आसानीसँ गजलक सृजन करऽ लगैत छथि। सम्भवतः तेँ आरसीप्रसाद सिंह, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, डॉ महेन्द्र, मार्कण्डेय प्रवासी, डॉ. गङ्गेश गुञ्जन, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र आदि मूलतः गीत क्षेत्रक व्यक्तित्व रहितहु गजलमे सेहो कलम चलौलनि। ओहन सिद्धहस्त व्यक्तिसभक लेल हमर ई गजल लिखबाक तौर-तरिकाक मादे किछु कहब हास्यास्पद भऽ सकैत अछि, मुदा नवसिखुआसभकेँ भरिसक ई किछु सहज बुझाइक।
मैथिलीमेकलम चलौनिहारसभमध्य प्रायः सभ एक-आध हाथ गजलोमे अजमबैत पाओल गेलाह अछि। जनकवि वैद्यनाथ मिश्र “यात्री” सेहो “भगवान हमर ई मिथिला” शीर्षक कविता पूर्णतः गजलक संरचनामे लिखने छथि। मुदा सियाराम झा “सरस”, स्व. कलानन्द भट्ट, डॉ.राजेन्द्र विमल सन किछु साहित्यकार खाँटी गजलकारक रूपमे चिन्हल जाइत छथि। ओना सोमदेव, डॉ.केदारनाथ लाभ, डॉ.तारानन्द वियोगी, डॉ.रामचैतन्य धीरज, बाबा वैद्यनाथ, डॉ. विभूति आनन्द, डा.धीरेन्द्र धीर, फजलुर्रहमान हाशमी, रमेश, बैकुण्ठ विदेह, डा.रामदेव झा, रोशन जनकपुरी, पं. नित्यानन्द मिश्र, देवशङ्कर नवीन, श्यामसुन्दर शशि, जनार्दन ललन, जियाउर्ररहमान जाफरी, अजितकुमार आजाद, अशोक दत्त आदिसमेत कतेको स्रष्टाक गजल मैथिली गजल-संसारकेँ विस्तृति दैत आएल अछि।
गजलमे महिला हस्ताक्षर बहुत कम देखल जाइत अछि। मैथिली विकास मञ्चद्वारा बहराइत पल्लवक पूर्णाङ्क १५, २०५१ चैतक अङ्क गजल अङ्कक रूपमे बहराएल अछि। सम्भवतः ३४ गोट अलग-अलग गजलकारक एकठाम भेल समायोजनक ई पहिल वानगी हएत। एहि अङ्कमे डा. शेफालिका वर्मा एक मात्र महिला हस्ताक्षरक रूपमे गजलक सङ्ग प्रस्तुत भेलीह अछि। एही अङ्कक आधारपर नेपालीमे मैथिली गजल सम्बन्धी दूगोट समालोचनात्मक आलेख सेहो लिखाएल अछि। पहिल मनु ब्राजाकीद्वारा कान्तिपुर २०५२ जेठ २७ गतेक अङ्कमे आ दोसर डा. रामदयाल राकेशद्वारा गोरखापत्र २०५२ फागुन २६ गतेक अङ्कमे। छिटफुट आनहु गजल सङ्कलन बहराएल होएत, मुदा तकर जानकारी एहि लेखककेँ नहि छैक। हँ, सियाराम झा “सरस”क सम्पादनमे बहराएल “लोकवेद आ लालकिला” मैथिली गजलक गन्तव्य आ स्वरूप दऽ बहुत किछु फरिछाकऽ कहैत पाओल गेल अछि। एहिमे सरससहित तारानन्द वियोगी आ देवशङ्कर नवीनद्वारा प्रस्तुत गजलसम्बन्धी आलेख सेहो मैथिली गजलक तत्कालीन अवस्थाधरिक साङ्गोपाङ्ग चित्र प्रस्तुत करबामे सफल भेल अछि।
समग्रमे मैथिली गजलक विषयमे ई कहि सकैत छी जे मैथिली गीतक खेतसँ प्राप्त हलगर माटिमे गुणवत्ताक दृष्टिएँ मैथिली गजल निरन्तर बढ़िरहल अछि, बढ़िएरहल अछि।


गजल १
झुट्ठो जे नहि डाइन नचौलक ओ भगता ओ धामी की
एको गाम जँ डाहि ने सकलहुँ तँ ओढ़ने रमनामी की

अक्षत-चानन धूप-दीपसँ जतऽ यज्ञ सम्पूर्ण हुअए-
ततऽ जँ क्यो हड्डी रगड़ैए, ओ कामी ओ कलामी की

बाप-माएपर्यन्त परोसै स्नेह जखन बटखारासँ-
नकली सभक दुलार लगैए, से काकी, से मामी की

सोनित सेहो शराब बनै छै शासनकेर सनकी भट्ठी
दियौ घटाघटि जे भेटए से, फुसियाही की दामी की

पोखरिक रखबारी पएबालए कण्ठी खालि बान्हि लिअ
फेर गटागटि घोँटने चलियौ, से पोठिया से बामी की

पाग उतारिकऽ कूदि गेल “प्रेमर्षि” सेहो अखाड़ामे
ढाहि सकल ने जुल्म-इमारत करतै ओहन सुनामी की
(वि.२०६२/०५/३०)


गजल २
मोन जँ कारी अछि तँ चमड़ी गोरे की करतै?
ममते जँ अरुआएल तँ माएक कोरे की करतै?

गगनसँ उतरै मेघ नयनमे जखन साँचिकऽ शङ्का
केहनो अन्हार चीरिकऽ जनमल भोरे की करतै?

नीम पीबिकऽ माहुर सेहो पचाबैत आएल छी तँ
काँटकेँ धाङैत डेगकेँ थोड़े अङोरे की करतै?

घामक सिँचल धरती छोड़ि ने जकरा कतौ भरोसा
तकरा लेल बनसीक सुअदगर बोरे की करतै?

आगि पीबिकऽ बज्र बनौने छै जे अप्पन छाती
तकरा आगाँ गोहिया आँखिक नोरे की करतै?

तैयो लागल “प्रेमर्षि” अछि बस प्रेमक खेतीमे
प्रेमक धन भेल घरमे जाबिड़ चोरे की करतै?
(वि.२०६२/०५/२०)

(विदेह ई-पत्रिकाक २१म अंकसँ साभार)

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