गजल- कालीकांत झा "बूच"
स्वप्न सुन्दरि अहाॅ जीवनक सहचरी ।
निन्न मे आउ अहिना घड़ी दू घड़ी ।।
भोग भोगल जते जे बनल कल्पना,आब भऽ गेल अछि अन्तरक अनमना,
हऽम मानव अहाॅ देव लोकक परी ।
मात्र उत्तापदायी बसंती छटा,आब संतापदायी अषाढ़ी घटा,
काॅट लागनि सुखायल गुलाबी छड़ी ।
रूप अमरित पिया कऽ अमर जे केलहुॅ,विक्ख विरहक खोआ फेर की कऽ देलहुॅ ?
घऽर मे जिन्दगी गऽर मरनक कड़ी ।
वेर वेरूक अहॅक फेर अभयागतम्,अछि सदा सर्वदा हार्दिक स्वागतम्,
कप्प चाहक दुहू नैन मन तस्तरी ।
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रविवार, 3 अक्तूबर 2010
गजल
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