गजल
(1)
बहुत बात मन अछि बहुत बिसरि गेल छी
जिनगीकेर पाँतरमे तेना भटकि गेल छी
नेह-छोह भागल अछि छोड़ि-छाडि़ हमरा
तबधल दुपहरिआ सन मीत लहकि गेल छी
बाट-घाट खून-बलात्कार देखि चुपचाप
कत्ते बेर सत्ते निरदोस ससरि गेल छी
पुरखारथि मौगी लग घरे भरि छजैए
बाहरक हुमाहुमी देखि सटकि गेल छी
भइबट सन जिनगी लगाएब कते बखड़ा
सोचू, जे सोची अहाँ, हम तँ उलझि गेल छी
जिनगी छी युद्ध लड़ू 'पंकज', अहूँ खूब लड़ू
सोचल की, किए एखन एना अटकि गेल छी
(2)
कोना पाँजरसँ चुप्पे ससरि गेलिऐ
जा क' दीगर जहाँमे पसरि गेलिई
कोनो जादू भेलै आ कि टोना भेलै
भेलै ेएहन की छनमे बदलि गेलिऐ
अपन मनक व्यथा हम कहू तँ कोना
मन-मन्दिरसँ सरपहुँ निकलि गेलिऐ
आगि कत्तहु नहि, कत्तहु छै धुआँ मुदा
फेर बूझब की, कोना पजरि गेलिऐ
एक बेर फेर ओहिना महमहा तँ दिऔ
किए 'पंकज'केँ एना बिसरि गेलिऐ
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मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
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