कलानन्द भट्ट कृत गजल संग्रह “कान्हपर लहास हमर” केर आलोचना, आलोचक/समीक्षक – जगदानन्द झा ‘मनु’
हमरा पढ़क शौभाग्य भेटल
कलानंद भट्ट कृत गजल संग्रह “कान्हपर लहास हमर” जे की १९८३मे प्रकाशित भेल अछि। एहि गजल संग्रहमे कलानंद
भट्ट जीक गजल प्रति सम्बोधन ‘गजलक मादे’क अलाबा कुल ४८टा
गजल वा गजल सन किछु अछि। भट्टजी अप्पन संबोधन ‘गजलक मादे’मे तँ विभक्ति सटा
कए लिखने छथि मुदा बाद बांकी गजल सभमे विभक्ति शब्दसँ हटा कए लिखल अछि। ई संकेत
अछि हुनक वा हुनक समकालीन मैथिली लेखकक द्वारा गद्य आ पद्यमे मैथिली प्रति कएल गेल
अन्तर।
एहि संग्रहक मादे, गजलक व्याकरण पक्षपर
अबैत छी। एक गोट गजल लेल सभसँ आवश्यक अछि काफिया आ रदीफक पालन मुदा एहि संग्रहक
किछु गिनतीक गजल छोरि कए बाद बांकी गजलमे काफिया आ रदीफक दोख अछि। जेना एहि
संग्रहक पहिले गजलक मतला देखू –
“घर घरेक आगि सँ अछि जरल जा रहल
भाइ सँ
भाइ द्वेषे भरल जा रहल ”
आब एहि मतलाक हिसाबे काफिया भेल ‘रल’, मुदा एहि गजलकेँ आँगाक शेर सबहक काफिया अछि – ‘बनल’, ‘बनल’, ‘चलल’, ‘कयल’।
गजल तीन केर मतला देखू –
“कहू की कथा कहुना जीबि रहल छी
फाटल गुदरी अपन हम सीबि रहल
छी”
आब एहि मतलाक काफिया भेल ‘ीबि’, मुदा गजलक आन-आन शेरक काफिया अछि, ‘लीबि’,’पीबि’, ‘खीचि’, ‘पीति’। एहिठाम ‘लीबि’ आ ‘पीबि’ तँ ठीक मुदा ‘खीचि’ आ ‘पीति’ ?
गजल ६ केर मतला –
“बाट बाधित पहाड़े छै पाटल जखन
सीयत दरजी के आकासे फाटल
जखन”
एहिठाम काफिया भेल ‘ाटल’ जेना की काटल, चाटल, साटल, मुदा एहि गजलक आन आन
काफिया अछि ‘साटल’, ‘फाटल’, ‘जागल’, ‘लागल’। एहिठाम ‘साटल’ तँ ठीक अछि, ‘फाटल’ ठीक मुदा एकर पुनः प्रयोग आ ‘जागल’ आ ‘लागल’ ?
गजल संख्या १२ केर मतला –
“अहाँ जीबिते मनुक्ख केँ जरा रहल छी
घेरि गामे केँ स्वाहा करा
रहल छी”
मतलाक काफिया भेल ‘रा’ मुदा एहि गजलक आगाँक शेरक काफिया प्रयोगमे अछि, ‘दनदना’,’खड़ा’, ’चला’, ‘बना’, ‘रचा’, ऐ गजल तेसर शेरक काफिया ’खड़ा’ ठीक अछि बांकी सभ गल्ती।
एहि तरहे १८,१९,२०,२१,२२,३३,४८म गजलक काफिया ठीक
नहि अछि।
अंतिम गजलक मतला आओर देखू –
“शहर केर सागर मे आइ गाम डूमि रहल
कामांध कामिनी केँ पकड़ि
जेना चूमि रहल”
आब उपरकेँ मतलामे काफिया
भेल ‘ूमि’ (दीर्घ ऊ कार आ मि) मुदा एहि गजलक आन शेरक काफिया
राखल गेल अछि, ‘घूमि’, ‘चूसि’, ‘रेड़ि’, ‘बूकि’, आब घूमि ठीक बाद
बांकी ‘चूसि’, ‘रेड़ि’, ‘बूकि’, कोन मादे ठीक भऽ
सकैत अछि।
उपरका उदाहरन सभसँ एक डेग
आगू बैढ़ बहुत रास गजल तँ एहनो अछि जाहिठाम काफिया केर कोनो स्थाने नहि राखल गेल
अछि। आउ देखी किछु एहनो गजल-
गजल संख्या सातक मतला अछि –
“मरि मरि क’ जे जीबय से आदमी चाही
राखय बिहाड़ि हाथ मे से आदमी
चाही”
आब एहि मतलामे देखी तँ दुनू
पाँतिमे कोमन अछि “से आदमी चाही” अर्थात ई भेल रदीफ। आब रदीफसँ पहिने
एहि शेरक दुनू पाँतिमे कोनो काफिया अछि ? नहि ने। एहि तरहे एहि गजलक
सभ शेर बिना काफियाक अछि। एहिठाम गजलकार जानि अनजानि नहि जानि किएक ने धियान
देलन्हि, मतलाक निच्चाक पाँतिकेँ कनिक बदैल कए काफिया ठीक कएल जा सकैत छल, देखू –
मरि मरि क’ जे जीबय से आदमी
चाही
बिहाड़ि हाथमे राखय से आदमी
चाही
एहिठाम एकटा गप्प धियान
देबए बला अछि जे गजल शास्त्र अनुसार बिना रदीफक गजल तँ कहल जा सकैए परन्च बिन
काफियाक गजल, जेना बिन कनियाँ ब्याहक कल्पना। एहि तरहे, एहि संग्रहमे बहुत रास गजल
बिन काफियाकेँ कहल गेल अछि जेना गजल संख्या ११,२३,३०,३८,३९,४१,४४,आ ४६। एक बेर फेरसँ
गजल संख्या ४६ केर मतला देखी –
“ठेंगा जकाँ ठाढ़ भेल नागे देखैत छी
हम बाट-घाट सभठाम नागे
देखैत छी”
आब एहि मतलाक दुनू पाँतिमे
कोमन अछि “नागे देखैत छी” जे की रदीफ भेल आ रदीफसँ पहिने काफिया लापता अछि।
कतौ कतौ काफिया ठीको अछि तँ
काफियामे एक्के शव्दक प्रयोग बेर-बेर अछि। जेना गजल संख्या २९ क मतला देखी तँ-
“जनम व्यर्थ बेटीकेँ देलौं विधाता
कर्म अपकर्म हम कोन केलौं
विधाता”
ऐ शेरमे रदीफ भेल ‘विधाता’ आ काफिया भेल ‘ेलौं’। आब एहि गजलक आन-आन
शेरक काफिया अछि, ‘बनेलौं’, ‘चढ़ेलौं’, ‘सिरजेलौं’, ‘बनेलौं’, ‘चढ़ेलौं’। मतलाक शेरक हिसाबे
काफिया दुरुस्त अछि मुदा ‘बनेलौं’ आ ‘चढ़ेलौं’ शव्दक आवृति काफियामे
एकसँ बेसी बेर अछि। एहि तरहे गजल संख्या १५ आ ४५ मे सेहो काफियामे एक शव्दक आवृति
एक बेरसँ बेसी बेर भेल अछि।
बहुत रास गजलमे तँ काफिया आ
रदीफ दुनू असमंजसकेँ अबस्थामे अछि अथबा कहू तँ दुनूकेँ दुनू गल्ती अछि। जेना गजल
संख्या ३५केर मतला देखी –
“बानरक हेँज जकाँ बौख रहल लोग
रंगल सियार जकाँ लौक रहल
लोक”
एहि मतलामे देखी तँ रदीफ
भेल ‘रहल लोक’ आ काफिया ‘ौऽ‘, मुदा एहि गजलक आन-आन शेर सबहक काफिया आ रदीफ दुनू संगे अछि, ‘दौड़ रहल लोक’, ‘सिरमौर बनल लोक’, ‘पछोड़ पड़ल लोक’, ‘सिलौट रहत लोक’। एहि शेर सभमे, ‘दौड़ रहल लोक’मे मतलानुसार काफिया
आ रदीफ दुनू दुरुस्त अछि मुदा तेसर आ पाँचम शेरमे रदीफ गल्ती अछि आ चारिम शेरमे तँ
काफिया आ रदीफ दुनू गरबड़ागेल अछि। कहि तँ एहि गजलकेँ पाँचो शेरधरि गजलकार ई नहि
निर्धारित कए सकल छथि जे कोन काफिया अछि आ कोन रदीफ, एहि असमंजसमे
खिच्चैर बनि सम्पूर्ण गजल लहास बनि गेल अछि। बिल्कुल एहने तरहक बीमारीसँ ग्रस्त
गजल ४३ सेहो अछि।
एहिठाम हम कही तँ गजलकारकेँ
सामर्थपर नहि हुनक गजल व्याकरण प्रति अज्ञानताकेँ दोखी मानि सकैत छी। किएक तँ
सामर्थक गप्प करी तँ एहि संग्रहक १७ म गजलमे दोहरा काफियाक सफल पालन कएल गेल अछि एकरा
हुनक सामर्थ अथवा बाय लक कहि सकैत छी। जिनका काफिया आ रदीफ केर ज्ञान हेतनि ओ अतेक
बेसी गल्तीक गुंजाइस नहि छोरता। एहि सन्दर्भमे २४ सम गजलक मतला देखू –
“सरिपहुँ अहाँ भैया कमाल करै छी
अछि भ्रष्ट आचरण मुदा गाल
करै छी”
अर्थक मादे कहू तँ एहि शेरक दोसर पाँतिमे “करै”केँ जगह ‘बजै’ हेबा चाही मुदा
गजलकार “करै छी”केँ रदीफ मानि “ाल”केँ काफिया बनोलनि। एहि तरहे मतलाक काफिया आ
रदीफ ठीक अछि मुदा गजलक आन-आन शेरक काफिया आ रदीफ संगे अछि, “ताल करै छी”, “नेहाल करै छी”, “जाल करै छी”, एतए धरि सभ ठीक मुदा
अंतिम शेरमे अछि “टाल रखै छी” रदीफ ‘करै छी’केँ जगह रखै छी अर्थात रदीफ
गल्ती एकरे कहै छैक, ‘सौँसे खीरा खाए कऽ पेनी तीत’।
आब आबी काफिया आ रदीफकेँ
बाद गजल व्याकरण केर महत्वपूर्ण पक्ष बहरपर, तँ ई कहैमे कोनो संकोच नहि
जे संग्रहक पूरा-पूरी गजल बेबहर अछि। सरल वार्णिक बहरक साइद ओहि समयमे जनमे
नहि भेल छल आ नहि एहि रूपमे संग्रहक कोनो गजल उतरि रहल अछि। वर्णवृत सेहो कोनो
गजलमे नहि अछि, कतौ कोनो गजलक एक आधटा शेरमे वर्णवृत अबितो अछि तँ गजलक बांकी शेरमे नहि अछि।
एकटा उदाहरन देखू संग्रहक १४हम गजलमे गजलकार वर्णवृत करैक प्रयासमे छथि –
गजलक मतला अछि –
“भेल ई की कहाँ सँ लहरि गेल अछि
२१२
-२१२ - ११२ - २१२
प्रश्नवाचक धरा पर पसरि गेल
अछि”
२१२ – २१२ - २१२ -
२१२
एहि मतलामे
२१२-२१२-२१२-२१२केँ वर्णवृत बनैत-बनैत बिगैर गेल अछि। एहिठाम या तँ गजलकार
वर्णवृतसँ अज्ञात छथि अथवा चानबिंदुकेँ दीर्घ मानै छथि। गजलक आगू केर तीनटा
शेरमे २१२-२१२-२१२-२१२केर सटीक वर्णवृतक
प्रयोग अछि। गजलक दोसर शेर देखू –
“आदमी आदमी केर बैरी बनल
२१२ – २१२ – २१२ -२१२
कोन नभसँ घृणा ई उतरि गेल
अछि”
२१२ – २१२ – २१२ - २१२
मुदा गजलक पाँचम शेरमे अबैत-अबैत वर्णवृत टूटि
गेल अछि। पाँचम शेर –
“उर काँपैछ धरतीक भालरि जकाँ
२२२-
१२ -२१२ -२१२
युग आदम कोना फेर पलटि गेल
अछि”
२२२-२२२- १ १२- २१२
जँ कनिक धियान देने रहितथि
तँ एतेक लअग एला बाद वर्णवृत पूरा ने होबाक कोनो कारण नहि। कहब ई जे इहो गजल बेबहर
भेल।
कतौ कतौ बुझाइत अछि जेना
भट्टजी समकालीन हिंदी गजलकार सभसँ प्रेरणा लऽ कऽ मात्रिक छंदक प्रयोगक फिराकमे
छथि। हलाँकी मात्रिक छंद गजलक हिस्सा नहि अछि तथापि एहि संग्रहक गजल एहनो सिस्टममे
पूर्ण फिट नहि भए रहल अछि। पहिले गजलक मतला देखू –
“घर घरेक आगिसँ अछि जरल जा रहल
२१२१ -२११२-१२२१२
भाइ सँ भाइ द्वेषे भरल जा
रहल”
२११२-२२२१-२२१२
वर्णवृत तँ नहिए अछि मुदा
मतलाक दुनू पाँतिमे २०-२० टा मात्रा अछि। ऐ तरहे गजलक तेसर चारिम आ पाँचम शेरमे
२०-२० टा मात्रा अछि मुदा दोसर शेरक मात्रा गनियो कए कम बेसी अछि। गजलक दोसर शेर –
“कोन आयल जमाना जुआरी एतय (२१ मात्रा)
भवना अविवेकी बनल जा रहल” (१९ मात्रा)
एहिना सम्पूर्ण संग्रहमे
नहि कोनो गजल मात्रिक गणनामे पूर्ण अछि आ नहि वर्णवृतमे। मने ई संग्रह पूरा-पूरी
बेबहर गजल संग्रह अछि। काफिया आ रदीफक अशुध्यताक कारणे एहि तरह केर रचनाक
संग्रहकेँ अजादो गजल केर श्रेणीमे रखनाइ उचित नहि।
गजल व्याकरणक एकटा आओर
महत्वपूर्ण हिस्सा अछि मकता, अर्थात गजलक अंतिम शेर जाहिमे शाइर अपन नाम अथवा
उपनामक देने होथि। एहि संग्रहक कोनो गजलमे मकताक प्रयोग नहि अछि।
आब आबी भाषा पक्षपर। गजलक
भाषा एहन होबा चाही जे सुनिते माँतर मुँहसँ निकलै वाह ! वाह ! आ ई की सुनलहुँ आइ आ
बुझै लेल दू दिन बादो शव्दकोश ताकैत रहू। एहि पोथीमे एकर सदत अभाब अछि। बहुत
उपरकेँ भाषा, माटि थालमे ओँघरे वलाकेँ लेल जेना सुन्दर चौपाइ जकाँ नीक तँ बड्ड छै मुदा किछु
बुझलौं नहि। किछु कठीन शव्द, ऐ संग्रहक पहिले गजलक एकटा शेर –
“क्षुब्ध धरती गगन नयन मूनल अपन
अछि वसाती बलाती बनल जा रहल”
आब ऐ शेरक की अर्थ बूझल जेए
? आ जँ बुझबो करब तँ
कतेक काल बाद आ ओहो के ?
एकटा आओर शेर ३७ सम गजलसँ –
“घर छोट-छोट भीत चूना सँ ढेउरल
चित्र ओहि पर राधा कृष्णक
ललाम”
चूना, चित्र हिंदीक बेसाहल
शव्द ओहूपर अर्थ की? ई ललाम की ? के बुझत ? कठीन भारी भरकम
शव्दकेँ अलाबो एहि संग्रहक भाषा मैथिली अवश्य अछि मुदा एहने-एहने पोधी पढ़ला बाद
हिंदीक दलाल सभ कहैत छै जे मैथिली हिंदीक अंग अछि अथवा हिंदीक उपभाषा अछि। ऐ
संग्रहक बहुत कम एहेन गजल अछि जाहिमे हिंदी शव्दक प्रयोग नहि हुए। देखी किछु
हिन्दीक शव्द –
गजल १ मे – चमन
गजल 2 मे – श्रम, विवशता
कनीक आगू आबि गजल १० मे – विकृति, रक्त
गजल ११ मे – आदेश, वैशाखी, आतंकित
गजल १२ मे – विकट, मनुष्यता, क्रूरता
गजल १४ मे – कहाँ, प्रश्नवाचक, धरा, संशकित, आभास
गजल १६ मे – निष्क्रिय, शिथिल, सदृश्य, विस्मय
गजल १८ मे – मुरझायल
गजल १९ मे – कहर, अग्रसर
कनी आओर आगू बढ़ी, गजल ३८ मे – घटा, उषम, विषम, जल
बांकीओ गजलमे एनाहिते हिंदी
शव्दक भरमार अछि। कतौ-कतौ तँ एकछाहा हिंदीए अछि। १५हम गजलकेँ ई दुनू शेर देखू –
“घरमे फूटल क्रिया गर्म सीमांत अछि
भावना संकुचित विषमयकारी ने
भेल
मंत्र मधुमय कहाँ ओ विश्व
वन्धुत्व केर
कोन उतरल ई युग दुराचारी ने
भेल”
उपरकेँ दुनू शेरमे कतेक
शव्द मैथिलीक अछि ? ३९ म गजल केर ई शेर देखू –
“उर बसा द्वेष इर्ष्या घृणा केर लहरि
रक्त तर्पण करैछ ने कोनो
जानवर”
जँ ई मैथिली तँ हिंदी की ?
आब आबी भाव पक्षपर, तँ एहि संग्रहक सभ
गजलक भाव पक्ष जबरदस्त अछि। समाजक कोनो एहन कोण नहि जाहिपर शाइर ऐ संग्रहमे वर्णन
नहि केने होथि। चापलूसीसँ शुरू कए आम लोकक
जीवनक विषमता, भ्रस्टाचार, महगाइ, अपहरण, लूटि-पाट, राजनीति सभ विषयपर
अपन कलम चलबैत एक एक भावकेँ उजागर करैमे
सफल छथि मुदा भाव केतबो नीक किएक नहि हुए जँ गजल गजलक व्याकरणसँ अछूत अछि तँ ई ओनाहिते भेल जेना बड्ड नीक बिन प्राणकेँ मनुक्खक देह।
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