भ्रष्टाचार अँहिक खूरक प्रतापे
दुराचार अँहिक खूरक प्रतापे
लोक पढ़ैए जान अरोपि कए
मुदा बेकार अँहिक खूरक प्रतापे
जनबल- धनबल आरो बल-बल
सरकार अँहिक खूरक प्रतापे
इद्धुत-विद्धुत सभटा फेल करबै की
अन्हार अँहिक खूरक प्रतापे
हाथ मिलाउ गरा लगाउ तैओ सभ
अनचिन्हार अँहिक खूरक प्रतापे
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- शेर जे सभ दिन शेर रहतै
शुक्रवार, 20 नवंबर 2009
गजल
खोजबीनक कूट-शब्द:
अनचिन्हार,
बिना छंद-बहरक
गुरुवार, 19 नवंबर 2009
गजल
गजल- वृषेश चन्द्र लाल
नजरि अहाँक चितकेर जूड़ा दैत अछि।
घुराकए एक क्षण जिनगी देखा दैत अछि।
धँसल डीहपर लोकाकए फेर स्वप्न महल
पाङल ठाढ़िमे कनोजरि छोड़ा दैत अछि॥
बजाकए बेर-बेर सोझे घुराओल छी हम
हँसाकए सदिखन हँसीमे उड़ाओल छी हम
बैसाकए पाँतिमे पजियाकए लगमे अपन
लतारि ईखसँ उठाकए खेहारल छी हम
सङ्केत एखनो एक प्रेमक बजा लैत अछि
जरए लेले राही जड़िसँ खरा दैत अछि
उठाकए उपर नीच्चा खसाओल छी हम
जड़ाकए ज्योति अनेरे मिझाओल छी हम
लगाकए आगि सिनेहक हमर रग-रगमे
बिना कसूर निसोहर बनाओल छी हम
झोंक एक आशकेर फेरो नचा दैत अछि
उमंगक रंगसँ पलकेँ सजा दैत अछि
(विदेह ई-पत्रिकाक 21म अंकसँ साभार)
नजरि अहाँक चितकेर जूड़ा दैत अछि।
घुराकए एक क्षण जिनगी देखा दैत अछि।
धँसल डीहपर लोकाकए फेर स्वप्न महल
पाङल ठाढ़िमे कनोजरि छोड़ा दैत अछि॥
बजाकए बेर-बेर सोझे घुराओल छी हम
हँसाकए सदिखन हँसीमे उड़ाओल छी हम
बैसाकए पाँतिमे पजियाकए लगमे अपन
लतारि ईखसँ उठाकए खेहारल छी हम
सङ्केत एखनो एक प्रेमक बजा लैत अछि
जरए लेले राही जड़िसँ खरा दैत अछि
उठाकए उपर नीच्चा खसाओल छी हम
जड़ाकए ज्योति अनेरे मिझाओल छी हम
लगाकए आगि सिनेहक हमर रग-रगमे
बिना कसूर निसोहर बनाओल छी हम
झोंक एक आशकेर फेरो नचा दैत अछि
उमंगक रंगसँ पलकेँ सजा दैत अछि
(विदेह ई-पत्रिकाक 21म अंकसँ साभार)
खोजबीनक कूट-शब्द:
गजल,
वृषेश चन्द्र लाल
गजल
गजल- रोशन जनकपुरी
नाचि रहल गिरगिटिया कोना, डर लगैए
साँच झूठमे झिझिरकोना, डर लगैए
कफन पहिरने लोक घुमए एम्हर ओमहर
शहर बनल मरघटके बिछौना, डर लगैए
हमरे बलपर पहुँचल अछि जे संसदमे
हमरे पढ़ाबे डोढ़ा-पौना, डर लगैए
आङनमे अछि गुम्हरि रहल कागजके बाघ
घर घरमे अछि रोहटि-कन्ना, डर लगैए
आँखि खोलि पढ़िसकी तऽ पढ़ियौ आजुक पोथी
घेँटकट्टीसँ भरल अछि पन्ना, डर लगैए
चलू मिलाबी डेग बढ़ैत आगूक डेगसँ
आब ने करियौ एहन बहन्ना, डर लगैए
(विदेह ई-पत्रिकाक 39म अंकसँ साभार)
नाचि रहल गिरगिटिया कोना, डर लगैए
साँच झूठमे झिझिरकोना, डर लगैए
कफन पहिरने लोक घुमए एम्हर ओमहर
शहर बनल मरघटके बिछौना, डर लगैए
हमरे बलपर पहुँचल अछि जे संसदमे
हमरे पढ़ाबे डोढ़ा-पौना, डर लगैए
आङनमे अछि गुम्हरि रहल कागजके बाघ
घर घरमे अछि रोहटि-कन्ना, डर लगैए
आँखि खोलि पढ़िसकी तऽ पढ़ियौ आजुक पोथी
घेँटकट्टीसँ भरल अछि पन्ना, डर लगैए
चलू मिलाबी डेग बढ़ैत आगूक डेगसँ
आब ने करियौ एहन बहन्ना, डर लगैए
(विदेह ई-पत्रिकाक 39म अंकसँ साभार)
खोजबीनक कूट-शब्द:
गजल,
रोशन जनकपुरी
गजल
करिछौंह मेघके फाटब, एखन बाँकी अछि
चम्कैत बिजलैँकाके सैंतब, एखन बाँकी अछि
उठैत अछि बुलबुल्ला फूटि जाइछ व्यथा बनि
पानिके अड़ाबे से सागर, एखन बाँकी अछि
बहैत पानिआओ किनार कतौ खोजत ने
अगम अथाह सन्धान, एखन बाँकी अछि
फाटत जे छाती सराबोर हएत दुनियाँ “भ्रमर”
ई झिसी आ बरखा प्रलय, एखन बाँकी अछि।
चम्कैत बिजलैँकाके सैंतब, एखन बाँकी अछि
उठैत अछि बुलबुल्ला फूटि जाइछ व्यथा बनि
पानिके अड़ाबे से सागर, एखन बाँकी अछि
बहैत पानिआओ किनार कतौ खोजत ने
अगम अथाह सन्धान, एखन बाँकी अछि
फाटत जे छाती सराबोर हएत दुनियाँ “भ्रमर”
ई झिसी आ बरखा प्रलय, एखन बाँकी अछि।
(विदेह ई-पत्रिकाक 21म अंकसँ साभार)
खोजबीनक कूट-शब्द:
गजल,
रामभरोस कापड़ि "भ्रमर"
गजल
गजल- रामलोचन ठाकुर
चलू तिरंगा कने उड़ा ली हर्जे की।
आजादी के रश्म पुरा ली हर्जे की॥
आजादी के अर्थ कोश मे जुनि ताकी।
आजादी के जश्न मना ली हर्जे की॥
शुल्क-मुक्त आयात स्कॉच-सैम्पेन होइछ।
शिक्षा स्वास्थ्यक शुल्क वृद्धि मे हर्जे की॥
देशक प्रगति विकास विदेशी पूँजी स।
संसद हैत निलाम होउक ने हर्जे की॥
सौ-हजार भसि गेल बाढ़ि मे भसए दिऔ।
राता-राती शेठ बनत किछु हर्जे की॥
रौदी-दाही सबदिना छै रहए दिऔ।
जनता बाढ़ि अकाल मरत किछु हर्जे की॥
गाम-देहातक बात बैकवार्डक लक्षण।
मेट्रो प्रगति निशान देश के हर्जे की॥
नेता जिन्दावाद रहओ आवाद सदा।
देश चलै छै एहिना चलतै हर्जे की॥
(विदेह ई-पत्रिकाक 21म अंकसँ साभार)
चलू तिरंगा कने उड़ा ली हर्जे की।
आजादी के रश्म पुरा ली हर्जे की॥
आजादी के अर्थ कोश मे जुनि ताकी।
आजादी के जश्न मना ली हर्जे की॥
शुल्क-मुक्त आयात स्कॉच-सैम्पेन होइछ।
शिक्षा स्वास्थ्यक शुल्क वृद्धि मे हर्जे की॥
देशक प्रगति विकास विदेशी पूँजी स।
संसद हैत निलाम होउक ने हर्जे की॥
सौ-हजार भसि गेल बाढ़ि मे भसए दिऔ।
राता-राती शेठ बनत किछु हर्जे की॥
रौदी-दाही सबदिना छै रहए दिऔ।
जनता बाढ़ि अकाल मरत किछु हर्जे की॥
गाम-देहातक बात बैकवार्डक लक्षण।
मेट्रो प्रगति निशान देश के हर्जे की॥
नेता जिन्दावाद रहओ आवाद सदा।
देश चलै छै एहिना चलतै हर्जे की॥
(विदेह ई-पत्रिकाक 21म अंकसँ साभार)
खोजबीनक कूट-शब्द:
गजल,
रामलोचन ठाकुर
शनिवार, 14 नवंबर 2009
गजल
सत्य तकबामे अछि मेहनति बड़, से आइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - से आइ)
असत्यक ताकिमे छथि ओ पियासल, गे दाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - गे दाइ)
सुकाजमे देरी सेहो कखनो-काल होइए जे ककरोसँ तखन (२४ वार्णिक मात्रा)
मुदा सएह तर्कक बेढ़ बना लै छी, गै माइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - गै माइ)
अपन भावनाक अधीन नहि अछि लोकवेद से बूझल अछि (२४ वार्णिक मात्रा)
भावनाक लहरिपर उठै-डोलै छी, हौ भाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - हौ भाइ)
मेहनतिक आसे टा छै आइ से गप बुझू कपारक बाते टा छै(२४ वार्णिक मात्रा)
प्रतिभा-जन्मजातपर जोर, बरगाही भाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - बरगाही भाइ)
लोकक बूझब बेस जरूरी, मुदा देखू तँ ई भीड़क जादूगर (२४ वार्णिक मात्रा)
दै छी जखन-तखन भाषण-भाख, नेता आइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - नेता आइ)
बूझू भजार, इयार बड़ रास नहि भेटत आजुक व्यवस्थामे (२४ वार्णिक मात्रा)
मित्रक ताकिमे घुमै छी गामे-गामे, छी बौआइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - बौआइत)
जे प्रेमसँ करब, तँ से गप आगाँ बढ़बे टा करत फौदाइत (२४ वार्णिक मात्रा)
बड़जोरी बढ़ऽमे लागल छी, छी धड़फड़ाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - धड़फड़ाइत)
आस भविष्यक लगेने, आस नीकक लगेने, धकियेने जाइत (२४ वार्णिक मात्रा)
खरापे भविष्यवाणी करै छी, मुँहचुड़ू नञि, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - मुँहचुड़ू नाति)
कनेक जोर लगाऊ तँ होएत गऽ किछु अद्भुत सन, देखा चाही (२४ वार्णिक मात्रा)
बिनु जोर आस लगबिते छी, ससुरारि जाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - रहि ससुरारि)
ऊर्जा-परिणाम संगे रहैए ओ रहबे करैए, जोतल खेतमे(२४ वार्णिक मात्रा)
मोन हुस केने जे आस करै छी, ढेपियबइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - ढेपियबैत)
असत्यक ताकिमे छथि ओ पियासल, गे दाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - गे दाइ)
सुकाजमे देरी सेहो कखनो-काल होइए जे ककरोसँ तखन (२४ वार्णिक मात्रा)
मुदा सएह तर्कक बेढ़ बना लै छी, गै माइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - गै माइ)
अपन भावनाक अधीन नहि अछि लोकवेद से बूझल अछि (२४ वार्णिक मात्रा)
भावनाक लहरिपर उठै-डोलै छी, हौ भाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - हौ भाइ)
मेहनतिक आसे टा छै आइ से गप बुझू कपारक बाते टा छै(२४ वार्णिक मात्रा)
प्रतिभा-जन्मजातपर जोर, बरगाही भाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - बरगाही भाइ)
लोकक बूझब बेस जरूरी, मुदा देखू तँ ई भीड़क जादूगर (२४ वार्णिक मात्रा)
दै छी जखन-तखन भाषण-भाख, नेता आइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - नेता आइ)
बूझू भजार, इयार बड़ रास नहि भेटत आजुक व्यवस्थामे (२४ वार्णिक मात्रा)
मित्रक ताकिमे घुमै छी गामे-गामे, छी बौआइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - बौआइत)
जे प्रेमसँ करब, तँ से गप आगाँ बढ़बे टा करत फौदाइत (२४ वार्णिक मात्रा)
बड़जोरी बढ़ऽमे लागल छी, छी धड़फड़ाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - धड़फड़ाइत)
आस भविष्यक लगेने, आस नीकक लगेने, धकियेने जाइत (२४ वार्णिक मात्रा)
खरापे भविष्यवाणी करै छी, मुँहचुड़ू नञि, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - मुँहचुड़ू नाति)
कनेक जोर लगाऊ तँ होएत गऽ किछु अद्भुत सन, देखा चाही (२४ वार्णिक मात्रा)
बिनु जोर आस लगबिते छी, ससुरारि जाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - रहि ससुरारि)
ऊर्जा-परिणाम संगे रहैए ओ रहबे करैए, जोतल खेतमे(२४ वार्णिक मात्रा)
मोन हुस केने जे आस करै छी, ढेपियबइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - ढेपियबैत)
प्रेम संगीत होअए, फेरसँ जे बनाएब नव राग गजलक (२४ वार्णिक मात्रा)
द्विगुणित होएत बुझै छी, टेमी उसकाबइ, नहि जानि किएक? (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - टेमी उसकाबैत)
लोक बदलत से अछि मुदा मोनमे हम्मर सदिखन गुम्फित(२४ वार्णिक मात्रा)
सोचि, कनेक पलखति नै दै छी किए खौँझाइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - ई खौँझाएत)
अलंकृत भऽ भेर छी, दोकान मनिहारि आइ, नहि जानि किएक (२४ वार्णिक मात्रा - रदीफ नहि जानि किएक - काफिया - खोलि दोकान मनिहारी)
खोजबीनक कूट-शब्द:
गजल,
गजेन्द्र ठाकुर
गजल
राजेन्द्र विमल (1949- )।चामत्कारिक लेखन-प्रतिभाक स्वामी राजेन्द्र विमल नेपालक मैथिली साहित्यक एक स्तम्भ छथि। मैथिली, नेपाली आ हिन्दी भाषाक प्राज्ञ विमल शिक्षाक हकमे विद्यावारिधि (पी.एच.डी.)क उपाधि प्राप्त कएने छथि। सुललित शब्द चयन एवं भाषामे प्राञ्जलता डा. विमलक लेखनक विशेषता रहलनि अछि। अपन सिद्धहस्त लेखनसँ ई कोनहु पाठकक हृदयमे स्थान बना लैत छथि। कथा आ समालोचनाक सङ्गहि मर्मभेदी गीत गजल लिखबामे प्रवीण डा. विमलक निबन्ध, अनुवाद आदि सेहो विलक्षण होइत छनि। कम्मो लिखिकऽ यथेष्ट यश अरजनिहार डा. विमलक लेखनीक प्रशंसा मैथिलीक सङ्गसङ्ग नेपाली आ हिन्दी साहित्यमे सेहो होइत रहलनि अछि। खास कऽ मानवीय संवेदनाक अभिव्यक्तिमे हिनक कलम बेजोड़ देखल जाइत अछि। त्रिभुवन विश्वविद्यालयअन्तर्गत रा.रा.ब. कैम्पस, जनकपुरधाममे प्राध्यापन कएनिहार डा. विमलक पूर्ण नाम राजेन्द्र लाभ छियनि। हिनक जन्म २६ जुलाई १९४९ ई. कऽ भेल अछि। साहित्यकारक नव पीढ़ीकेँ निरन्तर उत्प्रेरित करबाक कारणे ई डा.धीरेन्द्रक बाद जनकपुर-परिसरक साहित्यिक गुरुक रूपमे स्थापित भऽ गेल छथि। जनकपुरधामक देवी चौक स्थित हिनक घर सदति साहित्यक जिज्ञासुसभक अखाड़ाजकाँ बनल रहैत अछि।
नयनमे उगै छै जे सपनाकेर कोँढ़ी
फुलएबासँ पहिने सभ झरि जाइ छै
कलमक सिनूरदान पएबासँ पहिने
गीत काँचे कुमारेमे मरि जाइ छै
चान भादवक अन्हरिये
कटैत अहुरिया
नुका मेघक तुराइमे हिंचुकै छल जे
बिछा चानीक इजोरिया
कोजगरामे आइ
खेलए झिलहरि लहरिपर
ओलरि जाइ छै
हम किछेरेपर विमल ई बूझि गेलियै
नदी उफनाएल उफनाएल
कतबो रहौ
एक दिन बनि बालू पाथरक बिछान
पानि बाढ़िक हहाकऽ हहरि जाइ छै
के जानए कखन ई बदलतै हवा
सिकही पुरिवाकेर नैया डूबा जाइ छै
जे धधरा छल धधकैत धोंवा जाइ छै
सर्द छाउरकेर लुत्ती लहरि जाइ छै
रचि-रचिकऽ रूपक करै छी सिंगार
सेज चम्पा आऽ बेलीसँ सजबैत रहू
मुदा सोचू कने होइ छै एहिना प्रिय
सींथ रंगवासँ पहिने धोखरि जाइ छै
नयनमे उगै छै जे सपनाकेर कोँढ़ी
फुलएबासँ पहिने सभ झरि जाइ छै
कलमक सिनूरदान पएबासँ पहिने
गीत काँचे कुमारेमे मरि जाइ छै
चान भादवक अन्हरिये
कटैत अहुरिया
नुका मेघक तुराइमे हिंचुकै छल जे
बिछा चानीक इजोरिया
कोजगरामे आइ
खेलए झिलहरि लहरिपर
ओलरि जाइ छै
हम किछेरेपर विमल ई बूझि गेलियै
नदी उफनाएल उफनाएल
कतबो रहौ
एक दिन बनि बालू पाथरक बिछान
पानि बाढ़िक हहाकऽ हहरि जाइ छै
के जानए कखन ई बदलतै हवा
सिकही पुरिवाकेर नैया डूबा जाइ छै
जे धधरा छल धधकैत धोंवा जाइ छै
सर्द छाउरकेर लुत्ती लहरि जाइ छै
रचि-रचिकऽ रूपक करै छी सिंगार
सेज चम्पा आऽ बेलीसँ सजबैत रहू
मुदा सोचू कने होइ छै एहिना प्रिय
सींथ रंगवासँ पहिने धोखरि जाइ छै
खोजबीनक कूट-शब्द:
गजल,
राजेन्द्र विमल
गजल
गजल ३
घसाइत आ खिआइत चोख फार भेल छी
गला-गला गात गजलकार भेल छी
शब्दकेर महफामे भावक वर-कनियाँ लऽ
सदिखन हम दुलकैत कहार भेल छी
धधराक धाह मारऽ पोखरि खुनाएल अछि
स्वयं भलहि प्यासल महाड़ भेल छी
हमरे फुनगी लटकल धानक जयगान-
मुदा, हमधरि तिरस्कृत पुआर भेल छी
भावक व्यापार मीत पुछू ने भेटल की
मलहम दऽ दर्दक अमार भेल छी
दुखियाक गीत जेँ गबैत अछि गजल हमर
लतखुर्दनि होइत तेँ पथार भेल छी
रूप-रङ्ग हम्मर आकार किए निरखै छी?
निज आखरमे हम तँ साकार भेल छी
अबियौ सहभोज करी बन्हन सभ तोड़िकऽ
प्रेमक हम परसल सचार भेल छी
गजल-४
जँ बजितहुँ हम फूसि तँ भगवाने छलहुँ
अछि आदति खराब जे कि साँच बजै छी
देश दलदल छै भेल फूटि नीतिक जे घैल
बुझू तकरे सुखएबा लेल आँच बजै छी
कियो कतबो कहौक शिवक ताण्डव छियै
हम तँ सत्ताकेँ नटुवाक नाँच बजै छी
भलहि झूलि जाइ ब्रह्म लेल फँसरी सही
तैयो पाकलकेँ कथमपि ने काँच बजै छी
मुक्तक सुरेन्द्रक लऽ गजल गढ़ि लेल
मुदा दू आ दू कहियो नइ पाँच बजै छी
गजल-५
आबि गेल गजलोमे रोशनसँ रोशनी
बढ़िते जेतैक एकर पोषणसँ रोशनी
हाथ सैंति मीत हमर मूहक उदार महा
मुदा कोना बरतै उद्घोषणसँ रोशनी?
आगिएमे जरिकऽ सोना हम चमकै छी
दुनियाभरि तेँ चतरल शोषणसँ रोशनी
भने सागपात खोंटब छोड़ि देल जनकपुरी
कहियो की भेल छै इमोशनसँ रोशनी!
बरू मोनक घाओमे लगा दियौ प्रेमर्षि
पसरत अवश्य प्रेम-लोशनसँ रोशनी
गजल-६
हम कहब ने कथमपि हथियार निकालू
कने धरगर यौ मीता अखबार निकालू
दासत्वक सिक्कड़िसँ जे अइ जकड़ाएल
जङ्ग खुरचैत ओ असली विचार निकालू
मुहदुब्बर भेल छी तेँ सभक्यो लुलुअबैए
लाल सोनितसन आखर ललकार निकालू
गौरवकेर गीत हमर गर्भहिमे मरिरहल
आब तकरोलए साँठल सचार निकालू
टकटकी लगौने पिआसल चकोर लेल
थोड़े चानहिसन मिठका दुलार निकालू
स्वर्णिम बिहान काल्हि बिहुँसत जरूर
बस गुजगुज एहि रातिसँ अनहार निकालू
केहनो हो तख्त-ताज जकरालग नतमस्तक
ओहनेसन कलमक तरवार निकालू
गजल-७
हम्मर सरकारक महा ने साफ नीयत छै
झूठ नइ बजैत अछि, साँचक कब्जीयत छै
गमलामे धान रोपि धान्याञ्चल यज्ञ करए
डण्ड खीचि मुसरीधरि खोलैत असलीयत छै
जनताक फोड़नसँ तेल कपचि टोइयामे-
बारए मशाल, जे इजोतक अहमीयत छै
लाख-लाख दीपक ई पसरल प्रकाश कहै-
आजुक एहि सुरुजमे जरूरे कैफीयत छै
कोरामिन लगा-लगा कोरमे सुतओने अछि
देश तेँ दुरुस्त छैक, सुस्त बस तबीयत छै
सभक मोनमे छैक मात्र आब प्रश्न एक-
हमर स्वप्न-आस्था की ओकरे मिल्कीयत छै!
गजल-८
जीवनकेर डोर छोड़ि हाथक लटाइमे
जुनि पुछू स्वाद की छै गुड्डीक कटाइमे
इतराएब-छितराएब कहू कोन गुमानपर
नान्हिटा शरीरो अछि भेटल बटाइमे
फटैत तँ दूधे छै, नेनक जे खानि छियै
खट्टा जाए दूधमे वा दूधहि खटाइमे
प्रेम छोड़ि संसारक रङ्ग सभ धोखड़ि जाइ
छोड़ू अगधाएब बैसि चकमक चटाइमे
कर्मक खड़ाम पहिरि शतपथपर चलबासन
पुण्य कतहु पाएब नहि रामक रटाइमे
जन्म आओर मृत्यु थिकै सृष्टिक विधानटा
मजा छैक जिनगीक सङ्घर्ष छटपटाइमे
गजल-९
बोल रे मन एकतारा बोलै टनन-टनन-टन-टन
धनुषक जनु टङ्कार छुटैछै झनन-झनन-झन-झन
कतबो घुमरैत आबै बदरा अपने जाएत बिलाकऽ
जेना तप्त ताबापर जल होइ छनन-छनन-छन-छन
प्रेमक डिबिया बचाकऽ राखी साँचक आँचर तरमे
बड़ उकपाती पवन बहैए सनन-सनन-सन-सन
जाधरि छौ साँसक घण्टी बस ताधरि छौ बजबाके
गनगनाइत रह तेँ रे मीता गनन-गनन-गन-गन
तोरे चुप्पीके मलजलसँ नित्य जे चतरल जाइछौ
जरा दही ओहि अकाबोनकेँ हनन-हनन-हन-हन
तोहर सुर-गर्जनसँ जरूरहि, ठाढ़ देबाल दरकतै
तखने चहुँदिस हँसी खनकतै खनन-खनन-खन-खन
गजल-१०
सिहकैत कनकन्नीमे सीटर छी, जर्सी छी
मखा-मखा प्रेम करी, मोनक प्रेमर्षि छी
चानक धियानमे धरती नहि छूटए, तेँ
डिहबारक भगता हम दूरक ने दर्शी छी
थाहैत आ समधानैत काँटोपर जे बढ़ैछ
फाटल बेमाएवला चरणक स्पर्शी छी
हम्मर वैदेहीक कुचर्च कएनिहार लेल
अँखिफोड़बा टकुआ छी, जिहघिच्चा सड़सी छी
गन्ध जँ लगैए तँ मूनि लिअ नाक अहाँ
तिरहितिया खेतक हम गोबर छी, कर्सी छी
जिनगीक कखहरबामे साँसक जे मात्रा अछि
दहिना दिर्घी नहि, बामाक हर्षि छी
गजल-११
मुक्तिगीत अम्मल अछि, जीयब हम अमलेमे
रचि-रचि सजाएब नेह-गीत मोन-कमलेमे
धूर-धूर खेत पड़ल शासनकेर मोहियानी
निष्ठाक अन्न तैयो उपजाएब गमलेमे
दूभिजकाँ चतरल अछि जे मोनक कणकणमे
उपटत धरखन्ने ओ धुरफन्दीक हमलेमे!
पघिलत जे बर्फ़ तखन ढाहि देत आरि-धूर
नाचि लिअए नङटे ओ भने एखन जमलेमे
शासनकेर भाथीसँ चिनगी अछि रञ्ज भेल
जुटिअबियौ खढ़-पात मेहनतिसँ घमलेमे
गजलक ई पनही पहीरि बाट चलैत काल
पओलहुँ जे हेआओ तेँ समर्पित ई विमलेमे
(विदेह ई-पत्रिकाक २२म अंकसँ साभार)
घसाइत आ खिआइत चोख फार भेल छी
गला-गला गात गजलकार भेल छी
शब्दकेर महफामे भावक वर-कनियाँ लऽ
सदिखन हम दुलकैत कहार भेल छी
धधराक धाह मारऽ पोखरि खुनाएल अछि
स्वयं भलहि प्यासल महाड़ भेल छी
हमरे फुनगी लटकल धानक जयगान-
मुदा, हमधरि तिरस्कृत पुआर भेल छी
भावक व्यापार मीत पुछू ने भेटल की
मलहम दऽ दर्दक अमार भेल छी
दुखियाक गीत जेँ गबैत अछि गजल हमर
लतखुर्दनि होइत तेँ पथार भेल छी
रूप-रङ्ग हम्मर आकार किए निरखै छी?
निज आखरमे हम तँ साकार भेल छी
अबियौ सहभोज करी बन्हन सभ तोड़िकऽ
प्रेमक हम परसल सचार भेल छी
गजल-४
जँ बजितहुँ हम फूसि तँ भगवाने छलहुँ
अछि आदति खराब जे कि साँच बजै छी
देश दलदल छै भेल फूटि नीतिक जे घैल
बुझू तकरे सुखएबा लेल आँच बजै छी
कियो कतबो कहौक शिवक ताण्डव छियै
हम तँ सत्ताकेँ नटुवाक नाँच बजै छी
भलहि झूलि जाइ ब्रह्म लेल फँसरी सही
तैयो पाकलकेँ कथमपि ने काँच बजै छी
मुक्तक सुरेन्द्रक लऽ गजल गढ़ि लेल
मुदा दू आ दू कहियो नइ पाँच बजै छी
गजल-५
आबि गेल गजलोमे रोशनसँ रोशनी
बढ़िते जेतैक एकर पोषणसँ रोशनी
हाथ सैंति मीत हमर मूहक उदार महा
मुदा कोना बरतै उद्घोषणसँ रोशनी?
आगिएमे जरिकऽ सोना हम चमकै छी
दुनियाभरि तेँ चतरल शोषणसँ रोशनी
भने सागपात खोंटब छोड़ि देल जनकपुरी
कहियो की भेल छै इमोशनसँ रोशनी!
बरू मोनक घाओमे लगा दियौ प्रेमर्षि
पसरत अवश्य प्रेम-लोशनसँ रोशनी
गजल-६
हम कहब ने कथमपि हथियार निकालू
कने धरगर यौ मीता अखबार निकालू
दासत्वक सिक्कड़िसँ जे अइ जकड़ाएल
जङ्ग खुरचैत ओ असली विचार निकालू
मुहदुब्बर भेल छी तेँ सभक्यो लुलुअबैए
लाल सोनितसन आखर ललकार निकालू
गौरवकेर गीत हमर गर्भहिमे मरिरहल
आब तकरोलए साँठल सचार निकालू
टकटकी लगौने पिआसल चकोर लेल
थोड़े चानहिसन मिठका दुलार निकालू
स्वर्णिम बिहान काल्हि बिहुँसत जरूर
बस गुजगुज एहि रातिसँ अनहार निकालू
केहनो हो तख्त-ताज जकरालग नतमस्तक
ओहनेसन कलमक तरवार निकालू
गजल-७
हम्मर सरकारक महा ने साफ नीयत छै
झूठ नइ बजैत अछि, साँचक कब्जीयत छै
गमलामे धान रोपि धान्याञ्चल यज्ञ करए
डण्ड खीचि मुसरीधरि खोलैत असलीयत छै
जनताक फोड़नसँ तेल कपचि टोइयामे-
बारए मशाल, जे इजोतक अहमीयत छै
लाख-लाख दीपक ई पसरल प्रकाश कहै-
आजुक एहि सुरुजमे जरूरे कैफीयत छै
कोरामिन लगा-लगा कोरमे सुतओने अछि
देश तेँ दुरुस्त छैक, सुस्त बस तबीयत छै
सभक मोनमे छैक मात्र आब प्रश्न एक-
हमर स्वप्न-आस्था की ओकरे मिल्कीयत छै!
गजल-८
जीवनकेर डोर छोड़ि हाथक लटाइमे
जुनि पुछू स्वाद की छै गुड्डीक कटाइमे
इतराएब-छितराएब कहू कोन गुमानपर
नान्हिटा शरीरो अछि भेटल बटाइमे
फटैत तँ दूधे छै, नेनक जे खानि छियै
खट्टा जाए दूधमे वा दूधहि खटाइमे
प्रेम छोड़ि संसारक रङ्ग सभ धोखड़ि जाइ
छोड़ू अगधाएब बैसि चकमक चटाइमे
कर्मक खड़ाम पहिरि शतपथपर चलबासन
पुण्य कतहु पाएब नहि रामक रटाइमे
जन्म आओर मृत्यु थिकै सृष्टिक विधानटा
मजा छैक जिनगीक सङ्घर्ष छटपटाइमे
गजल-९
बोल रे मन एकतारा बोलै टनन-टनन-टन-टन
धनुषक जनु टङ्कार छुटैछै झनन-झनन-झन-झन
कतबो घुमरैत आबै बदरा अपने जाएत बिलाकऽ
जेना तप्त ताबापर जल होइ छनन-छनन-छन-छन
प्रेमक डिबिया बचाकऽ राखी साँचक आँचर तरमे
बड़ उकपाती पवन बहैए सनन-सनन-सन-सन
जाधरि छौ साँसक घण्टी बस ताधरि छौ बजबाके
गनगनाइत रह तेँ रे मीता गनन-गनन-गन-गन
तोरे चुप्पीके मलजलसँ नित्य जे चतरल जाइछौ
जरा दही ओहि अकाबोनकेँ हनन-हनन-हन-हन
तोहर सुर-गर्जनसँ जरूरहि, ठाढ़ देबाल दरकतै
तखने चहुँदिस हँसी खनकतै खनन-खनन-खन-खन
गजल-१०
सिहकैत कनकन्नीमे सीटर छी, जर्सी छी
मखा-मखा प्रेम करी, मोनक प्रेमर्षि छी
चानक धियानमे धरती नहि छूटए, तेँ
डिहबारक भगता हम दूरक ने दर्शी छी
थाहैत आ समधानैत काँटोपर जे बढ़ैछ
फाटल बेमाएवला चरणक स्पर्शी छी
हम्मर वैदेहीक कुचर्च कएनिहार लेल
अँखिफोड़बा टकुआ छी, जिहघिच्चा सड़सी छी
गन्ध जँ लगैए तँ मूनि लिअ नाक अहाँ
तिरहितिया खेतक हम गोबर छी, कर्सी छी
जिनगीक कखहरबामे साँसक जे मात्रा अछि
दहिना दिर्घी नहि, बामाक हर्षि छी
गजल-११
मुक्तिगीत अम्मल अछि, जीयब हम अमलेमे
रचि-रचि सजाएब नेह-गीत मोन-कमलेमे
धूर-धूर खेत पड़ल शासनकेर मोहियानी
निष्ठाक अन्न तैयो उपजाएब गमलेमे
दूभिजकाँ चतरल अछि जे मोनक कणकणमे
उपटत धरखन्ने ओ धुरफन्दीक हमलेमे!
पघिलत जे बर्फ़ तखन ढाहि देत आरि-धूर
नाचि लिअए नङटे ओ भने एखन जमलेमे
शासनकेर भाथीसँ चिनगी अछि रञ्ज भेल
जुटिअबियौ खढ़-पात मेहनतिसँ घमलेमे
गजलक ई पनही पहीरि बाट चलैत काल
पओलहुँ जे हेआओ तेँ समर्पित ई विमलेमे
(विदेह ई-पत्रिकाक २२म अंकसँ साभार)
खोजबीनक कूट-शब्द:
गजल,
धीरेन्द्र प्रेमर्षि
गजल
ताकैत आसरा कोनो दुःख पी रहल-ए लोक !
घर-द्वारि दहि गेलैक सब बच्चा टा छै बांचल
रेलवेक कात, बाट-घाट जी रहल-ए लोक !
सांझो भरिक खोराक ने छैक अगिला फसिल धरि
जीबा लए ई लाचार कोना जी रहल-ए लोक !
सबटा गमा क' जान बचा आबि त' गेलय
आब फेकल छुतहर जकां हद जी रहल-ए लोक !
जले पहिरना, बिछाओन जले छैक ओढना
जबकल गन्हाइत पानि-ए खा पी रहल-ए लोक !
सब वर्ष जकां एहू बाढ़ि मे कारप्रदार
रिलीफ नामें अपन झोरी सी रहल किछु लोक !
चलि तं पड़ल-ए जीप-ट्र्क-नावक से तामझाम
आब ताही आसरा मे बस जी रहल-ए लोक !
कहि तं गेलाह-ए परसू-ए दस टन बंटत अन्न
एखबार-रेडियो भरोसे जी रहल-ए लोक !
घोखै तं छथि जे देच्च मे पर्याप्त अछि अनाज
सड़ओ गोदाम मे, उपास जी रहल-ए लोक !
उमेद मे जे आब आओत एन जी ओ कतोक
द' जायत बासि रोटी, वस्त्र, जी रहल-ए लोक !
अछि कठिन केहन समय ई राक्षस जकां अन्हार
किछु भ' रहल अछि तय, तें तं जी रहल-ए लोक !
(विदेह ई-पत्रिकाक १८म अंकसँ साभार)
खोजबीनक कूट-शब्द:
गंगेश गुंजन,
गजल
बुधवार, 11 नवंबर 2009
मैथिलीमे गजल आ एकर संरचना -धीरेन्द्र प्रेमर्षि
धीरेन्द्र प्रेमर्षि (१९६७- )मैथिली भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रक काजमे समान रूपेँ निरन्तर सक्रिय व्यक्तिक रूपमे चिन्हल जाइत छथि धीरेन्द्र प्रेमर्षि। वि.सं.२०२४ साल भादब १८ गते सिरहा जिलाक गोविन्दपुर-१, बस्तीपुर गाममे जन्म लेनिहार प्रेमर्षिक पूर्ण नाम धीरेन्द्र झा छियनि। सरल आ सुस्पष्ट भाषा-शैलीमे लिखनिहार प्रेमर्षि कथा, कविताक अतिरिक्त लेख, निबन्ध, अनुवाद आ पत्रकारिताक माध्यमसँ मैथिली आ नेपाली दुनू भाषाक क्षेत्रमे सुपरिचित छथि। नेपालक स्कूली कक्षा १,२,३,४,९ आ १०क ऐच्छिक मैथिली तथा १० कक्षाक ऐच्छिक हिन्दी विषयक पाठ्यपुस्तकक लेखन सेहो कएने छथि। साहित्यिक ग्रन्थमे हिनक एक सम्पादित आ एक अनूदित कृति प्रकाशित छनि। प्रेमर्षि लेखनक अतिरिक्त सङ्गीत, अभिनय आ समाचार-वाचन क्षेत्रसँ सेहो सम्बद्ध छथि। नेपालक पहिल मैथिली टेलिफिल्म मिथिलाक व्यथा आ ऐतिहासिक मैथिली टेलिश्रृङ्खला महाकवि विद्यापति सहित अनेको नाटकमे अभिनय आ निर्देशन कऽ चुकल प्रेमर्षिकेँ नेपालसँ पहिलबेर मैथिली गीतक कैसेट कलियुगी दुनिया निकालबाक श्रेय सेहो जाइत छनि। हिनक स्वर सङ्गीतमे आधा दर्जनसँ अधिक कैसेट एलबम बाहर भऽ चुकल अछि। कान्तिपुरसँ हेल्लो मिथिला कार्यक्रम प्रस्तुत कर्ता जोड़ी रूपा-धीरेन्द्रक धीरेन्द्रक अबाज गामक बच्चा-बच्चा चिन्हैत अछि। “पल्लव” मैथिली साहित्यिक पत्रिका आ “समाज” मैथिली सामाजिक पत्रिकाक सम्पादन।
मैथिलीमे गजल आ एकर संरचना-धीरेन्द्र प्रेमर्षि
रूप-रङ्ग एवं चालि-प्रकृति देखलापर गीत आ गजल दुनू सहोदरे बुझाइत छैक। मुदा मैथिलीमे गीत अति प्राचीन काव्यशैलीक रूपमे चलैत आएल अछि, जखन कि गजल अपेक्षाकृत अत्यन्त नवीन रूपमे। एखन दुनूकेँ एकठाम देखलापर एना लगैत छैक जेना गीत-गजल कोनो कुम्भक मेलामे एक-दोसरासँ बिछुड़ि गेल छल। मेलामे भोतिआइत-भासैत गजल अरबदिस पहुँचि गेल। गजल ओम्हरे पलल-बढ़ल आ जखन बेस जुआन भऽ गेल तँ अपन बिछुड़ल सहोदरकेँ तकैत गीतक गाम मिथिलाधरि सेहो पहुँचि गेल। जखन दुनूक भेट भेलैक तँ किछु समय दुनूमे अपरिचयक अवस्था बनल रहलैक। मिथिलाक माटिमे पोसाएल गीत एकरा अपन जगह कब्जा करऽ आएल प्रतिद्वन्दीक रूपमे सेहो देखलक। मुदा जखन दुनू एक-दोसराकेँ लगसँ हियाकऽ देखलक तखन बुझबामे अएलैक-आहि रे बा, हमरासभमे एना बैर किएक, हम दुनू तँ सहोदरे छी! तकरा बाद मिथिलाक धरतीपर डेगसँ डेग मिला दुनू पूर्ण भ्रातृत्व भावेँ निरन्तर आगाँ बढ़ैत रहल अछि।
गीत आ गजलक स्वरूप देखलापर दुनूक स्वभावमे अपन पोसुआ जगहक स्थानीयताक असरि पूरापूर देखबामे अबैत अछि। गीत एना लगैत छैक जेना रङ्गबिरङ्गी फूलकेँ सैँतिकऽ सजाओल सेजौट हो। मिथिलाक गीतमे काँटोसन बात जँ कहल जाइछ तँ फूलेसन मोलायम भावमे। एकरा हम एहू तरहेँ कहि सकैत छी जे गीत फूलक लतमारापर चलबैत लोककेँ भावक ऊँचाइधरि पहुँचबैत अछि। एहिमे मिथिलाक लोकव्यवहार एवं मानवीय भाव प्रमुख भूमिका निर्वाह करैत आएल अछि। जाहि भाषाक गारियोमे रिदम आ मधुरता होइत छैक, ओहि भूमिपर पोसाएल गीतक स्वरूप कटाह-धराह भइए नहि सकैत अछि। कही जे गीतमे तँ लालीगुराँसक फूलजकाँ ओ ताकत विद्यमान छैक जे माछ खाइत काल जँ गऽरमे काँट अटकि गेल तँ तकरो गलाकऽ समाप्त कऽ दैत छैक।
गजलक बगय-बानि देखबामे भलहि गीतेजकाँ सुरेबगर लगैक, एहिमे गीतसन नरमाहटि नहि होइत छैक। उसराह मरुभूमिमे पोसाएल भेलाक कारणे गजलक स्वभाव किछु उस्सठ होइत छैक। ई कट्टर इस्लामीसभक सङ्गतिमे बेसी रहल अछि, तेँ एकर स्वभावमे “जब कुछ न चलेगी तो ये तलवार चलेगा” सन तेज तेवरबेसी देखबामे अबैत छैक। यद्यपि गजलकेँ प्रेमक अभिव्यक्तिक सशक्त माध्यम मानल जाइत छैक। गजल कहितहिँदेरी लोकक मन-मस्तिष्कमे प्रेममय माहौल नाचि उठैत छैक, एहि बातसँ हम कतहु असहमत नहि छी। मुदा गजलमे प्रेमक बात सेहो बेस धरगर अन्दाजमे कहल जाइत छैक। कहबाक तात्पर्य जे गजल तरुआरिजकाँ सीधे बेध दैत छैक लक्ष्यकेँ। लाइलपटमे बेसी नहि रहैत छैक गजल। मिथिलाक सन्दर्भमे गीत आ गजलक एक्कहि तरहेँ जँ अन्तर देखबऽ चाही तँ ई कहल जा सकैत अछि जे गजल फूलक प्रक्षेपणपर्यन्त तरुआरिजकाँ करैत अछि, जखन कि गीत तरुआरि सेहो फूलजकाँ भँजैत अछि।
मैथिलीमे संख्यात्मक रूपेँ गजल आनहि विधाजकाँ भलहि कम लिखल जाइत रहल हो, मुदा गुणवत्ताक दृष्टिएँ ई हिन्दी वा नेपाली गजलसँ कतहु कनेको झूस नहि देखबामे अबैत अछि। एकर कारण इहो भऽ सकैत छैक जे हिन्दी, नेपाली आ मैथिली तीनू भाषामे गजलक प्रवेश एक्कहि मुहूर्त्तमे भेल छैक। गजलक श्रीगणेश करौनिहार हिन्दीक भारतेन्दु, नेपालीक मोतीराम भट्ट आ मैथिलीक पं. जीवन झा एक्कहि कालखण्डक स्रष्टासभ छथि।
मैथिलीयोमे गजल आब एतबा लिखल जा चुकल अछि जे एकर संरचनाक मादे किछु कहनाइ दिनहिमे डिबिया बारबजकाँ लगैत अछि। एहनोमे यदाकदा गजलक नामपर किछु एहनो पाँतिसभ पत्रपत्रिकामे अभरि जाइत अछि, जकरा देखलापर मोन किछु झुझुआन भइए जाइत छैक। कतेकोगोटेक रचना देखलापर एहनो बुझाइत अछि, जेना ओलोकनि दू-दू पाँतिवला तुकबन्दीक एकटा समूहकेँ गजल बूझैत छथि। हमरा जनैत ओलोकनि गजलकेँ दूरेसँ देखिकऽ ओहिमे अपन पाण्डित्य छाँटब शुरू कऽ दैत छथि। जँ मैथिली साहित्यक गुणधर्मकेँ आत्मसात कऽ चलैत कोनो व्यक्ति एकबेर दू-चारिटा गजल ढङ्गसँ देखि लिअए, तँ हमरा जनैत ओकरामे गजलक संरचनाप्रति कोनो तरहक द्विविधा नहि रहि जएतैक।
तेँ सामान्यतः गजलक सम्बन्धमे नव जिज्ञासुक लेल जँ किछु कहल जाए तँ विना कोनो पारिभाषिक शब्दक प्रयोग कएने हम एहि तरहेँ अपन विचार राखऽ चाहैत छी- गजलक पहिल दू पाँतिक अन्त्यानुप्रास मिलल रहैत छैक। अन्तिम एक, दू वा अधिक शब्द सभ पाँतिमे सझिया रहलहुपर साझी शब्दसँ पहिनुक शब्दमेअनुप्रास वा कही तुकबन्दी मिलल रहबाक चाही। अन्य दू-दू पाँतिमे पहिल पाँति अनुप्रासक दृष्टिएँ स्वच्छन्द रहैत अछि। मुदा दोसर पाँति वा कही जे पछिला पाँति स्थायीवला अनुप्रासकेँ पछुअबैत चलैत छैक।
ई तँ भेल गजलक मुह-कानक संरचनासम्बन्धी बात। मुदा खालि मुहे-कानपर ध्यान देल जाए आ ओकर कथ्य जँ गोङिआइत वा बौआइत रहि जाए तँ देखबामे गजल लगितो यथार्थमे ओ गीजल भऽ जाइत अछि। तेँ प्रस्तुतिकरणमे किछु रहस्य, किछु रोमाञ्चक सङ्ग समधानल चोटजकाँ गजलक शब्दसभ ताल-मात्राक प्रवाहमय साँचमे खचाखच बैसैत चलि जएबाक चाही। गजलक पाँतिकेँ अर्थवत्ताक हिसाबेँ जँ देखल जाए तँ कहि सकैत छी जे हऽरक सिराउरजकाँ ई चलैत चलि जाइत छैक। हऽरक पहिल सिराउर जाहि तरहेँ धरतीक छाती चीरिकऽ ओहिमे कोनो चीज जनमाओल जा सकबाक आधार प्रदान करैत छैक, तहिना गजलक पहिल पाँति कल्पना वा विषयवस्तुक उठान करैत अछि, दोसर पाँति हऽरक दोसर सिराउरक कार्यशैलीक अनुकरण करैत पहिलमे खसाओल बीजकेँ आवश्यक मात्रमे तोपन दऽकऽ पुनः आगू बढ़बाक मार्ग प्रशस्त्र करैत अछि। गजलक प्रत्येक दू-पाँति अपनहुमे स्वतन्त्र रहैत अछि आ एक-दोसराक सङ्ग तादात्म्य स्थापित करैत समग्रमे सेहो एकटा विशिष्ट अर्थ दैत अछि। एकरा दोसर तरहेँ एहुना कहल जा सकैत अछि जे गजलक पहिल पाँति कनसारसँ निकालल लालोलाल लोह रहैत अछि, दोसर पाँति ओकरा निर्दिष्ट आकारदिस बढ़एबाक लेल पड़ऽ वला घनक समधानल चोट भेल करैत अछि।
गीतक सृजनमे सिद्धहस्त मैथिलसभ थोड़े बगय-बानि बुझितहिँ आसानीसँ गजलक सृजन करऽ लगैत छथि। सम्भवतः तेँ आरसीप्रसाद सिंह, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, डॉ महेन्द्र, मार्कण्डेय प्रवासी, डॉ. गङ्गेश गुञ्जन, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र आदि मूलतः गीत क्षेत्रक व्यक्तित्व रहितहु गजलमे सेहो कलम चलौलनि। ओहन सिद्धहस्त व्यक्तिसभक लेल हमर ई गजल लिखबाक तौर-तरिकाक मादे किछु कहब हास्यास्पद भऽ सकैत अछि, मुदा नवसिखुआसभकेँ भरिसक ई किछु सहज बुझाइक।
मैथिलीमेकलम चलौनिहारसभमध्य प्रायः सभ एक-आध हाथ गजलोमे अजमबैत पाओल गेलाह अछि। जनकवि वैद्यनाथ मिश्र “यात्री” सेहो “भगवान हमर ई मिथिला” शीर्षक कविता पूर्णतः गजलक संरचनामे लिखने छथि। मुदा सियाराम झा “सरस”, स्व. कलानन्द भट्ट, डॉ.राजेन्द्र विमल सन किछु साहित्यकार खाँटी गजलकारक रूपमे चिन्हल जाइत छथि। ओना सोमदेव, डॉ.केदारनाथ लाभ, डॉ.तारानन्द वियोगी, डॉ.रामचैतन्य धीरज, बाबा वैद्यनाथ, डॉ. विभूति आनन्द, डा.धीरेन्द्र धीर, फजलुर्रहमान हाशमी, रमेश, बैकुण्ठ विदेह, डा.रामदेव झा, रोशन जनकपुरी, पं. नित्यानन्द मिश्र, देवशङ्कर नवीन, श्यामसुन्दर शशि, जनार्दन ललन, जियाउर्ररहमान जाफरी, अजितकुमार आजाद, अशोक दत्त आदिसमेत कतेको स्रष्टाक गजल मैथिली गजल-संसारकेँ विस्तृति दैत आएल अछि।
गजलमे महिला हस्ताक्षर बहुत कम देखल जाइत अछि। मैथिली विकास मञ्चद्वारा बहराइत पल्लवक पूर्णाङ्क १५, २०५१ चैतक अङ्क गजल अङ्कक रूपमे बहराएल अछि। सम्भवतः ३४ गोट अलग-अलग गजलकारक एकठाम भेल समायोजनक ई पहिल वानगी हएत। एहि अङ्कमे डा. शेफालिका वर्मा एक मात्र महिला हस्ताक्षरक रूपमे गजलक सङ्ग प्रस्तुत भेलीह अछि। एही अङ्कक आधारपर नेपालीमे मैथिली गजल सम्बन्धी दूगोट समालोचनात्मक आलेख सेहो लिखाएल अछि। पहिल मनु ब्राजाकीद्वारा कान्तिपुर २०५२ जेठ २७ गतेक अङ्कमे आ दोसर डा. रामदयाल राकेशद्वारा गोरखापत्र २०५२ फागुन २६ गतेक अङ्कमे। छिटफुट आनहु गजल सङ्कलन बहराएल होएत, मुदा तकर जानकारी एहि लेखककेँ नहि छैक। हँ, सियाराम झा “सरस”क सम्पादनमे बहराएल “लोकवेद आ लालकिला” मैथिली गजलक गन्तव्य आ स्वरूप दऽ बहुत किछु फरिछाकऽ कहैत पाओल गेल अछि। एहिमे सरससहित तारानन्द वियोगी आ देवशङ्कर नवीनद्वारा प्रस्तुत गजलसम्बन्धी आलेख सेहो मैथिली गजलक तत्कालीन अवस्थाधरिक साङ्गोपाङ्ग चित्र प्रस्तुत करबामे सफल भेल अछि।
समग्रमे मैथिली गजलक विषयमे ई कहि सकैत छी जे मैथिली गीतक खेतसँ प्राप्त हलगर माटिमे गुणवत्ताक दृष्टिएँ मैथिली गजल निरन्तर बढ़िरहल अछि, बढ़िएरहल अछि।
गजल १
झुट्ठो जे नहि डाइन नचौलक ओ भगता ओ धामी की
एको गाम जँ डाहि ने सकलहुँ तँ ओढ़ने रमनामी की
अक्षत-चानन धूप-दीपसँ जतऽ यज्ञ सम्पूर्ण हुअए-
ततऽ जँ क्यो हड्डी रगड़ैए, ओ कामी ओ कलामी की
बाप-माएपर्यन्त परोसै स्नेह जखन बटखारासँ-
नकली सभक दुलार लगैए, से काकी, से मामी की
सोनित सेहो शराब बनै छै शासनकेर सनकी भट्ठी
दियौ घटाघटि जे भेटए से, फुसियाही की दामी की
पोखरिक रखबारी पएबालए कण्ठी खालि बान्हि लिअ
फेर गटागटि घोँटने चलियौ, से पोठिया से बामी की
पाग उतारिकऽ कूदि गेल “प्रेमर्षि” सेहो अखाड़ामे
ढाहि सकल ने जुल्म-इमारत करतै ओहन सुनामी की
(वि.२०६२/०५/३०)
गजल २
मोन जँ कारी अछि तँ चमड़ी गोरे की करतै?
ममते जँ अरुआएल तँ माएक कोरे की करतै?
गगनसँ उतरै मेघ नयनमे जखन साँचिकऽ शङ्का
केहनो अन्हार चीरिकऽ जनमल भोरे की करतै?
नीम पीबिकऽ माहुर सेहो पचाबैत आएल छी तँ
काँटकेँ धाङैत डेगकेँ थोड़े अङोरे की करतै?
घामक सिँचल धरती छोड़ि ने जकरा कतौ भरोसा
तकरा लेल बनसीक सुअदगर बोरे की करतै?
आगि पीबिकऽ बज्र बनौने छै जे अप्पन छाती
तकरा आगाँ गोहिया आँखिक नोरे की करतै?
तैयो लागल “प्रेमर्षि” अछि बस प्रेमक खेतीमे
प्रेमक धन भेल घरमे जाबिड़ चोरे की करतै?
(वि.२०६२/०५/२०)
(विदेह ई-पत्रिकाक २१म अंकसँ साभार)
मैथिलीमे गजल आ एकर संरचना-धीरेन्द्र प्रेमर्षि
रूप-रङ्ग एवं चालि-प्रकृति देखलापर गीत आ गजल दुनू सहोदरे बुझाइत छैक। मुदा मैथिलीमे गीत अति प्राचीन काव्यशैलीक रूपमे चलैत आएल अछि, जखन कि गजल अपेक्षाकृत अत्यन्त नवीन रूपमे। एखन दुनूकेँ एकठाम देखलापर एना लगैत छैक जेना गीत-गजल कोनो कुम्भक मेलामे एक-दोसरासँ बिछुड़ि गेल छल। मेलामे भोतिआइत-भासैत गजल अरबदिस पहुँचि गेल। गजल ओम्हरे पलल-बढ़ल आ जखन बेस जुआन भऽ गेल तँ अपन बिछुड़ल सहोदरकेँ तकैत गीतक गाम मिथिलाधरि सेहो पहुँचि गेल। जखन दुनूक भेट भेलैक तँ किछु समय दुनूमे अपरिचयक अवस्था बनल रहलैक। मिथिलाक माटिमे पोसाएल गीत एकरा अपन जगह कब्जा करऽ आएल प्रतिद्वन्दीक रूपमे सेहो देखलक। मुदा जखन दुनू एक-दोसराकेँ लगसँ हियाकऽ देखलक तखन बुझबामे अएलैक-आहि रे बा, हमरासभमे एना बैर किएक, हम दुनू तँ सहोदरे छी! तकरा बाद मिथिलाक धरतीपर डेगसँ डेग मिला दुनू पूर्ण भ्रातृत्व भावेँ निरन्तर आगाँ बढ़ैत रहल अछि।
गीत आ गजलक स्वरूप देखलापर दुनूक स्वभावमे अपन पोसुआ जगहक स्थानीयताक असरि पूरापूर देखबामे अबैत अछि। गीत एना लगैत छैक जेना रङ्गबिरङ्गी फूलकेँ सैँतिकऽ सजाओल सेजौट हो। मिथिलाक गीतमे काँटोसन बात जँ कहल जाइछ तँ फूलेसन मोलायम भावमे। एकरा हम एहू तरहेँ कहि सकैत छी जे गीत फूलक लतमारापर चलबैत लोककेँ भावक ऊँचाइधरि पहुँचबैत अछि। एहिमे मिथिलाक लोकव्यवहार एवं मानवीय भाव प्रमुख भूमिका निर्वाह करैत आएल अछि। जाहि भाषाक गारियोमे रिदम आ मधुरता होइत छैक, ओहि भूमिपर पोसाएल गीतक स्वरूप कटाह-धराह भइए नहि सकैत अछि। कही जे गीतमे तँ लालीगुराँसक फूलजकाँ ओ ताकत विद्यमान छैक जे माछ खाइत काल जँ गऽरमे काँट अटकि गेल तँ तकरो गलाकऽ समाप्त कऽ दैत छैक।
गजलक बगय-बानि देखबामे भलहि गीतेजकाँ सुरेबगर लगैक, एहिमे गीतसन नरमाहटि नहि होइत छैक। उसराह मरुभूमिमे पोसाएल भेलाक कारणे गजलक स्वभाव किछु उस्सठ होइत छैक। ई कट्टर इस्लामीसभक सङ्गतिमे बेसी रहल अछि, तेँ एकर स्वभावमे “जब कुछ न चलेगी तो ये तलवार चलेगा” सन तेज तेवरबेसी देखबामे अबैत छैक। यद्यपि गजलकेँ प्रेमक अभिव्यक्तिक सशक्त माध्यम मानल जाइत छैक। गजल कहितहिँदेरी लोकक मन-मस्तिष्कमे प्रेममय माहौल नाचि उठैत छैक, एहि बातसँ हम कतहु असहमत नहि छी। मुदा गजलमे प्रेमक बात सेहो बेस धरगर अन्दाजमे कहल जाइत छैक। कहबाक तात्पर्य जे गजल तरुआरिजकाँ सीधे बेध दैत छैक लक्ष्यकेँ। लाइलपटमे बेसी नहि रहैत छैक गजल। मिथिलाक सन्दर्भमे गीत आ गजलक एक्कहि तरहेँ जँ अन्तर देखबऽ चाही तँ ई कहल जा सकैत अछि जे गजल फूलक प्रक्षेपणपर्यन्त तरुआरिजकाँ करैत अछि, जखन कि गीत तरुआरि सेहो फूलजकाँ भँजैत अछि।
मैथिलीमे संख्यात्मक रूपेँ गजल आनहि विधाजकाँ भलहि कम लिखल जाइत रहल हो, मुदा गुणवत्ताक दृष्टिएँ ई हिन्दी वा नेपाली गजलसँ कतहु कनेको झूस नहि देखबामे अबैत अछि। एकर कारण इहो भऽ सकैत छैक जे हिन्दी, नेपाली आ मैथिली तीनू भाषामे गजलक प्रवेश एक्कहि मुहूर्त्तमे भेल छैक। गजलक श्रीगणेश करौनिहार हिन्दीक भारतेन्दु, नेपालीक मोतीराम भट्ट आ मैथिलीक पं. जीवन झा एक्कहि कालखण्डक स्रष्टासभ छथि।
मैथिलीयोमे गजल आब एतबा लिखल जा चुकल अछि जे एकर संरचनाक मादे किछु कहनाइ दिनहिमे डिबिया बारबजकाँ लगैत अछि। एहनोमे यदाकदा गजलक नामपर किछु एहनो पाँतिसभ पत्रपत्रिकामे अभरि जाइत अछि, जकरा देखलापर मोन किछु झुझुआन भइए जाइत छैक। कतेकोगोटेक रचना देखलापर एहनो बुझाइत अछि, जेना ओलोकनि दू-दू पाँतिवला तुकबन्दीक एकटा समूहकेँ गजल बूझैत छथि। हमरा जनैत ओलोकनि गजलकेँ दूरेसँ देखिकऽ ओहिमे अपन पाण्डित्य छाँटब शुरू कऽ दैत छथि। जँ मैथिली साहित्यक गुणधर्मकेँ आत्मसात कऽ चलैत कोनो व्यक्ति एकबेर दू-चारिटा गजल ढङ्गसँ देखि लिअए, तँ हमरा जनैत ओकरामे गजलक संरचनाप्रति कोनो तरहक द्विविधा नहि रहि जएतैक।
तेँ सामान्यतः गजलक सम्बन्धमे नव जिज्ञासुक लेल जँ किछु कहल जाए तँ विना कोनो पारिभाषिक शब्दक प्रयोग कएने हम एहि तरहेँ अपन विचार राखऽ चाहैत छी- गजलक पहिल दू पाँतिक अन्त्यानुप्रास मिलल रहैत छैक। अन्तिम एक, दू वा अधिक शब्द सभ पाँतिमे सझिया रहलहुपर साझी शब्दसँ पहिनुक शब्दमेअनुप्रास वा कही तुकबन्दी मिलल रहबाक चाही। अन्य दू-दू पाँतिमे पहिल पाँति अनुप्रासक दृष्टिएँ स्वच्छन्द रहैत अछि। मुदा दोसर पाँति वा कही जे पछिला पाँति स्थायीवला अनुप्रासकेँ पछुअबैत चलैत छैक।
ई तँ भेल गजलक मुह-कानक संरचनासम्बन्धी बात। मुदा खालि मुहे-कानपर ध्यान देल जाए आ ओकर कथ्य जँ गोङिआइत वा बौआइत रहि जाए तँ देखबामे गजल लगितो यथार्थमे ओ गीजल भऽ जाइत अछि। तेँ प्रस्तुतिकरणमे किछु रहस्य, किछु रोमाञ्चक सङ्ग समधानल चोटजकाँ गजलक शब्दसभ ताल-मात्राक प्रवाहमय साँचमे खचाखच बैसैत चलि जएबाक चाही। गजलक पाँतिकेँ अर्थवत्ताक हिसाबेँ जँ देखल जाए तँ कहि सकैत छी जे हऽरक सिराउरजकाँ ई चलैत चलि जाइत छैक। हऽरक पहिल सिराउर जाहि तरहेँ धरतीक छाती चीरिकऽ ओहिमे कोनो चीज जनमाओल जा सकबाक आधार प्रदान करैत छैक, तहिना गजलक पहिल पाँति कल्पना वा विषयवस्तुक उठान करैत अछि, दोसर पाँति हऽरक दोसर सिराउरक कार्यशैलीक अनुकरण करैत पहिलमे खसाओल बीजकेँ आवश्यक मात्रमे तोपन दऽकऽ पुनः आगू बढ़बाक मार्ग प्रशस्त्र करैत अछि। गजलक प्रत्येक दू-पाँति अपनहुमे स्वतन्त्र रहैत अछि आ एक-दोसराक सङ्ग तादात्म्य स्थापित करैत समग्रमे सेहो एकटा विशिष्ट अर्थ दैत अछि। एकरा दोसर तरहेँ एहुना कहल जा सकैत अछि जे गजलक पहिल पाँति कनसारसँ निकालल लालोलाल लोह रहैत अछि, दोसर पाँति ओकरा निर्दिष्ट आकारदिस बढ़एबाक लेल पड़ऽ वला घनक समधानल चोट भेल करैत अछि।
गीतक सृजनमे सिद्धहस्त मैथिलसभ थोड़े बगय-बानि बुझितहिँ आसानीसँ गजलक सृजन करऽ लगैत छथि। सम्भवतः तेँ आरसीप्रसाद सिंह, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, डॉ महेन्द्र, मार्कण्डेय प्रवासी, डॉ. गङ्गेश गुञ्जन, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र आदि मूलतः गीत क्षेत्रक व्यक्तित्व रहितहु गजलमे सेहो कलम चलौलनि। ओहन सिद्धहस्त व्यक्तिसभक लेल हमर ई गजल लिखबाक तौर-तरिकाक मादे किछु कहब हास्यास्पद भऽ सकैत अछि, मुदा नवसिखुआसभकेँ भरिसक ई किछु सहज बुझाइक।
मैथिलीमेकलम चलौनिहारसभमध्य प्रायः सभ एक-आध हाथ गजलोमे अजमबैत पाओल गेलाह अछि। जनकवि वैद्यनाथ मिश्र “यात्री” सेहो “भगवान हमर ई मिथिला” शीर्षक कविता पूर्णतः गजलक संरचनामे लिखने छथि। मुदा सियाराम झा “सरस”, स्व. कलानन्द भट्ट, डॉ.राजेन्द्र विमल सन किछु साहित्यकार खाँटी गजलकारक रूपमे चिन्हल जाइत छथि। ओना सोमदेव, डॉ.केदारनाथ लाभ, डॉ.तारानन्द वियोगी, डॉ.रामचैतन्य धीरज, बाबा वैद्यनाथ, डॉ. विभूति आनन्द, डा.धीरेन्द्र धीर, फजलुर्रहमान हाशमी, रमेश, बैकुण्ठ विदेह, डा.रामदेव झा, रोशन जनकपुरी, पं. नित्यानन्द मिश्र, देवशङ्कर नवीन, श्यामसुन्दर शशि, जनार्दन ललन, जियाउर्ररहमान जाफरी, अजितकुमार आजाद, अशोक दत्त आदिसमेत कतेको स्रष्टाक गजल मैथिली गजल-संसारकेँ विस्तृति दैत आएल अछि।
गजलमे महिला हस्ताक्षर बहुत कम देखल जाइत अछि। मैथिली विकास मञ्चद्वारा बहराइत पल्लवक पूर्णाङ्क १५, २०५१ चैतक अङ्क गजल अङ्कक रूपमे बहराएल अछि। सम्भवतः ३४ गोट अलग-अलग गजलकारक एकठाम भेल समायोजनक ई पहिल वानगी हएत। एहि अङ्कमे डा. शेफालिका वर्मा एक मात्र महिला हस्ताक्षरक रूपमे गजलक सङ्ग प्रस्तुत भेलीह अछि। एही अङ्कक आधारपर नेपालीमे मैथिली गजल सम्बन्धी दूगोट समालोचनात्मक आलेख सेहो लिखाएल अछि। पहिल मनु ब्राजाकीद्वारा कान्तिपुर २०५२ जेठ २७ गतेक अङ्कमे आ दोसर डा. रामदयाल राकेशद्वारा गोरखापत्र २०५२ फागुन २६ गतेक अङ्कमे। छिटफुट आनहु गजल सङ्कलन बहराएल होएत, मुदा तकर जानकारी एहि लेखककेँ नहि छैक। हँ, सियाराम झा “सरस”क सम्पादनमे बहराएल “लोकवेद आ लालकिला” मैथिली गजलक गन्तव्य आ स्वरूप दऽ बहुत किछु फरिछाकऽ कहैत पाओल गेल अछि। एहिमे सरससहित तारानन्द वियोगी आ देवशङ्कर नवीनद्वारा प्रस्तुत गजलसम्बन्धी आलेख सेहो मैथिली गजलक तत्कालीन अवस्थाधरिक साङ्गोपाङ्ग चित्र प्रस्तुत करबामे सफल भेल अछि।
समग्रमे मैथिली गजलक विषयमे ई कहि सकैत छी जे मैथिली गीतक खेतसँ प्राप्त हलगर माटिमे गुणवत्ताक दृष्टिएँ मैथिली गजल निरन्तर बढ़िरहल अछि, बढ़िएरहल अछि।
गजल १
झुट्ठो जे नहि डाइन नचौलक ओ भगता ओ धामी की
एको गाम जँ डाहि ने सकलहुँ तँ ओढ़ने रमनामी की
अक्षत-चानन धूप-दीपसँ जतऽ यज्ञ सम्पूर्ण हुअए-
ततऽ जँ क्यो हड्डी रगड़ैए, ओ कामी ओ कलामी की
बाप-माएपर्यन्त परोसै स्नेह जखन बटखारासँ-
नकली सभक दुलार लगैए, से काकी, से मामी की
सोनित सेहो शराब बनै छै शासनकेर सनकी भट्ठी
दियौ घटाघटि जे भेटए से, फुसियाही की दामी की
पोखरिक रखबारी पएबालए कण्ठी खालि बान्हि लिअ
फेर गटागटि घोँटने चलियौ, से पोठिया से बामी की
पाग उतारिकऽ कूदि गेल “प्रेमर्षि” सेहो अखाड़ामे
ढाहि सकल ने जुल्म-इमारत करतै ओहन सुनामी की
(वि.२०६२/०५/३०)
गजल २
मोन जँ कारी अछि तँ चमड़ी गोरे की करतै?
ममते जँ अरुआएल तँ माएक कोरे की करतै?
गगनसँ उतरै मेघ नयनमे जखन साँचिकऽ शङ्का
केहनो अन्हार चीरिकऽ जनमल भोरे की करतै?
नीम पीबिकऽ माहुर सेहो पचाबैत आएल छी तँ
काँटकेँ धाङैत डेगकेँ थोड़े अङोरे की करतै?
घामक सिँचल धरती छोड़ि ने जकरा कतौ भरोसा
तकरा लेल बनसीक सुअदगर बोरे की करतै?
आगि पीबिकऽ बज्र बनौने छै जे अप्पन छाती
तकरा आगाँ गोहिया आँखिक नोरे की करतै?
तैयो लागल “प्रेमर्षि” अछि बस प्रेमक खेतीमे
प्रेमक धन भेल घरमे जाबिड़ चोरे की करतै?
(वि.२०६२/०५/२०)
(विदेह ई-पत्रिकाक २१म अंकसँ साभार)
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धीरेन्द्र प्रेमर्षि,
मैथिलीमे गजल आ एकर संरचना
शनिवार, 7 नवंबर 2009
गजल
यथा एन्नी तथा ओन्नी एन्नी-ओन्नी तथैव च
यथा माए तथा बाप मुन्ना-मुन्नी तथैव च
बलू हमर करेज जरैए अहाँ गीत लिखै छी
यथा भँइ तथा अच्छर पन्ना-पन्नी तथैव च
देखहक हो भाइ बोंगहक पोता कोना करै हइ
यथा मुल्ला तथा पंडित सुन्ना-सुन्नी तथैव च
देवतो जड़ि पकड़ै हइ मुहेँ देखि कए बचले रहू
यथा मौगी तथा भूत ओझा-गुन्नी तथैव च
बान्हि क भँइ दूरा पर मगबै ढ़ौआ पर ढ़ौआ
यथा समधी तथा समधीनी बन्ना-बन्नी तथैव च
की करबहक हो भगवान एमरी सभ के
यथा मरनाइ तथा जिनाइ रौदी-बुन्नी तथैव च
बचले रहिअह अनचिन्हार एहि गाम मे सदिखन
यथा साँप तथा मनुख जहर चिन्नी तथैव च
यथा माए तथा बाप मुन्ना-मुन्नी तथैव च
बलू हमर करेज जरैए अहाँ गीत लिखै छी
यथा भँइ तथा अच्छर पन्ना-पन्नी तथैव च
देखहक हो भाइ बोंगहक पोता कोना करै हइ
यथा मुल्ला तथा पंडित सुन्ना-सुन्नी तथैव च
देवतो जड़ि पकड़ै हइ मुहेँ देखि कए बचले रहू
यथा मौगी तथा भूत ओझा-गुन्नी तथैव च
बान्हि क भँइ दूरा पर मगबै ढ़ौआ पर ढ़ौआ
यथा समधी तथा समधीनी बन्ना-बन्नी तथैव च
की करबहक हो भगवान एमरी सभ के
यथा मरनाइ तथा जिनाइ रौदी-बुन्नी तथैव च
बचले रहिअह अनचिन्हार एहि गाम मे सदिखन
यथा साँप तथा मनुख जहर चिन्नी तथैव च
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