रविवार, 27 जुलाई 2014

चिकनी माटिमे उपजल नागफेनी

अपन समीक्षाक श्रृंखला लेल आइ हम रमेश कृत कथित गजल संग्रह " नागफेनी " अनने छी। चूँकि ऐ संग्रहक सभ गजल बेबहर अछि तँए ऐ गजल सभपर हमर कोनो टिप्पणी नै रहत। कारण सभ समीक्षामे वएह तर्क, वएह घोंघाउज बेर-बेर आएत। एक बेर फेर हम कही जे हमर समीक्षा वा आलोचना-समालोचनाक अधार सदिखन व्याकरण रहैत अछि कारण हरेक लेखक रचनामे भाव (भावना) तँ रहिते छै संगे-संग सभ लेखक भावना अलग-अलग होइत छै तँए हम भावक अधारकेँ स्थायी नै मानै छी।
ऐ पोथीमे लेखकक छोड़ि शिवशंकर श्रीनिवासजी भूमिका अछि मने कुल दू टा भूमिका। आ हम अपन समीक्षा लेल इएह दूनू भूमिकाकेँ चुनलहुँ अछि। एही दूनू भूमिकाक अधारपर हम तात्कालीन गजल आ ओकर रचियताक मनोवृतिकेँ उजागर करबाक प्रयास केलहुँ अछि। पहिने शिवशंकरजीक भूमिका अछि तकर बाद शाइरक मुदा हम पहिने शाइरक भूमिकाकेँ विवेचित करब तकर बादें शिवशंकरजीक भूमिकापर आएब। शाइरक भूमिकामे कुल 13टा बिंदु अछि ऐमेसँ मात्र हम पहिल,दोसर, चारिम आ पाँचम बिंदुकेँ विवेचित करब। बाद बाँकी बिंदु सभ हुनक व्यक्तिगत छनि।
बिंदु-1) "गजलक ई कृति ओहि समालोचक लोकनिकेँ समर्पित छनि, जिनका लोकनिक घोंकचि जाइत छनि नाक, गजलक नामें सुनि।“
ऐ पहिल बिंदुसँ ई नीक जकाँ बुझाइत अछि जे रमेशजी सेहो आलोचक सभकेँ बिना मापदंड देने बिना आलोचनाक उम्मेद केने छथि। मुदा हमर स्पष्ट मानब अछि जे ओइ समयक आलोचक सभ गजलक आलोचना नै कऽ कऽ गजलपर बड़का उपकार केने छथि कारण ओहि समयक 99 प्रतिशत गजल अयोग्य छल आ अछि एवं बचल 1 प्रतिशत गजल विजयनाथ झा  ओ जगदीश चंद्र ठाकुर अनिल जीक अछि जिनका ई सभ गजलकार मानिते नै छथि।
बिंदु-2) "गजलक स्थापना हेतु ओकरा पक्षमे  तर्ककेँ ओतबे मथल गेल जतबा ओकरा विपक्षमे कुतर्ककेँ। तँए आब हम कए टा तथ्यकेँ नहिं दोहराबए-तेहराबए चाहैत छी जे गजल आब ओ नहिं अछि जे अपन शास्त्रीय रूपमे छल, एकरामे नवकविता बला क्लिष्टता, दुरूहता आ अ-संप्रषेणीयता आदि नकारात्मक नहि छैक, एकरामे भाव आ अभिव्यक्ति दुनू आसान आ सकारत्मक छैक, आधुनिकताक कोनो कमी नहि छैक, आब ई माशूकाक आँचर नहि अछि आ ने शाकी. शराब, जाम आदिक बंधनमे जकड़ल अछि, ई नवकविता आ पुरान कविताक बीचक रस्ता थिक, एकरा गेयधर्मिताक पैमानापर नापब पुरान कट्टरता थिक,एकर शास्त्रीय चरित्रकेँ दँतिया कऽ एकर आलोचना करब मात्र गेंग रोपब थिक, दुष्यंत कुमार, फैजसँ लऽ कऽ अदम गोंडवी धरि जे एकर नव कलेवर तरासलनि तकरा स्वीकार करबाक आब कोनो टा अधारे नहिं छेक, आदि-आदि----------|”
ऐ दोसर बिंदुसँ ई गप्प स्पष्ट भऽ जाइत अछि जे आने आन कथित प्रगतिशील गजलकार जकाँ रमेशजी सेहो गजलक संबंधमे भ्रमित छथि।  ऐ बिंदुमे सभसँ आपत्तिजनक गप्प दुष्यंत कुमार, फैज अहमद फैज ओ अदम गोंडवीक संबंधमे अछि। ई तीनू गजलकार पूर्ण रूपेण शास्त्रीय गजल लिखने छथि खाली ओ सभ विषय वस्तुकेँ परिवर्तन कऽ देलखिन्ह व्याकरण ओहिना के ओहिना रहलै। मुदा मैथिलीक ई कथित प्रगतिशील सभ बिना बुझने-सुझने हिका सभकेँ प्रसंगमे आनि दै छथि जे की हिनकर सभहँक ज्ञानक सीमाकेँ देखार करैत अछि। ऐ ठाम हम किछु गजलकारक तक्ती कऽ कऽ देखा रहल छी जे कोना हिनकर सभहँक गजल व्याकरण ओ बहरमे अछि---
पहिने कबीर दासक एकट गजलकेँ तक्ती कऽ कऽ देखा रहल छी--
बहर—ए—हजज केर ई गजल जकर लयखंड (अर्कान) (1222×4) अछि--
ह1 मन2 हैं2 इश्2, क़1 मस्2ता2ना2, ह1 मन2 को 2 हो 2, शि1 या2 री2 क्या2
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?


तेनाहिते आजुक प्रसिद्ध शाइर मुनव्वर राना केर ऐ गजलक तक्ती देखू--
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है

यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

नकाब उलटे हुए जब भी चमन से वह गुज़रता है
समझ कर फ़ूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

मुनव्वर राना (घर अकेला हो गया, पृष्ठ - 37)
तक्तीअ
बहुत पानी / बरसता है / तो मिट्टी बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
न रोया कर / बहुत रोने / से छाती बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
यही मौसम / था जब नंगे / बदन छत पर / टहलते थे
1222 / 1222 / 1222 / 1222
यही मौसम / है अब सीने / में सर्दी बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
नकाब उलटे / हुए जब भी / चमन से वह / गुज़रता है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
(नकाब उलटे के अलिफ़ वस्ल द्वारा न/का/बुल/टे 1222 मानल गेल अछि)
समझ कर फ़ू / ल उसके लब / पे तितली बै / ठ जाती है
1222 / 1222 / 1222 / 1222
आब राहत इन्दौरी जीक ऐ गजलकेँ देखू--
ग़ज़ल (1222 / 1222 / 122) (बहर-ए-हजज की मुज़ाहिफ सूरत)
चरागों को उछाला जा रहा है
हवा पर रौब डाला जा रहा है

न हार अपनी न अपनी जीत होगी
मगर सिक्का उछाला जा रहा है

जनाजे पर मेरे लिख देना यारों
मुहब्बत करने वाला जा रहा है
राहत इन्दौरी (चाँद पागल है, पृष्ठ - 2४)
तक्तीअ =
चरागों को / उछाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122
हवा पर रौ / ब डाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122

न हार अपनी / न अपनी जी / त होगी
1222 / 1222 / 122
(हार अपनी को अलिफ़ वस्ल द्वारा हा/रप/नी 222 गिना गया है)
मगर सिक्का / उछाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122
जनाजे पर / मेरे लिख दे / ना यारों
1222 / 1222 / 122
मुहब्बत कर / ने वाला जा / रहा है
1222 / 1222 / 122

फेरसँ मुनव्वर रानाजीक एकटा आर गजलकेँ देखू--
हमारी ज़िंदगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है

सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता
कभी कश्मीर कटता है कभी बंगाल कटता है
(मुनव्वर राना)
1222 / 1222 / 1222 / 1222
(मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन)
हमारी ज़िं / दगी का इस / तरह हर सा / ल कटता है
कभी गाड़ी / पलटती है / कभी तिरपा / ल कटता है

सियासी वा/ र भी तलवा/ र से कुछ कम / नहीं होता
कभी कश्मी/ र कटता है / कभी बंगा / ल कटता है
आब दुष्यंत कुमारक ऐ गजलक तक्ती देखू--
2122 / 2122 / 2122 / 212
हो गई है / पीर पर्वत /-सी पिघलनी / चाहिए,
इस हिमालय / से कोई गं / गा निकलनी / चाहिए।
आब अहाँ सभ ऐ गजलकेँ अंत धरि जा सकै छी। पूरा गजल हम दऽ रहल छी--

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

आब कने अदम गोंडवी जीक दू टा गजलक तक्ती देखू—
1222 / 1222 / 1222 / 1222
ग़ज़ल को ले / चलो अब गाँ / व के दिलकश /नज़ारों में
मुसल्‍सल फ़न / का दम घुटता / है इन अदबी / इदारों में

आब अहाँ सभ ऐ गजलकेँ अंत धरि जा सकै छी। पूरा गजल हम दऽ रहल छी--

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्‍सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्‍बी क़तारों में

अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्‍मे के सिवा क्‍या है फ़लक़ के चाँद-तारों में

र‍हे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तज़रबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में

कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्‍तहारों में.

फेर गोंडवीजीक दोसर गजल लिअ—
2122 / 2122 / 2122 / 212
भूख के एह / सास को शे / रो-सुख़न तक /ले चलो
या अदब को / मुफ़लिसों की / अंजुमन तक /ले चलो
आब अहाँ सभ ऐ गजलकेँ अंत धरि जा सकै छी। पूरा गजल हम दऽ रहल छी--

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्‍वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगा जल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

ऐ गजल सभमे छंदानुसार छूट सेहो लेल गेल छै मुदा रमेशजीक वा अन्य कोनो मैथिली गजलकार जे भ्रमवश कहै छथि जे उर्दू-हिंदीक गजलमे बहर नै छै से हुनक बेसी ज्ञानक (??????????) परिचायक अछि। चाहितों हम फैज अहमद फैज केर गजलक तक्ती नै देखा रहल छी कारण समझदार आदमी कम्मे तथ्यसँ बेसी बात बूझै छथि।

एहि शाइरक सभहँक अतिरिक्त हम निराला आ जयशंकर प्रसाद जीक गजल सेहो देखा रहल छी..........

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है
देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है

मतला (मने पहिल शेर)क मात्राक्रम अछि--2122+2122+2122+212 आब सभ शेरक मात्राक्रम इएह रहत। एकरे बहर वा की वर्णवृत कहल जाइत छै। अरबीमे एकरा बहरे रमल केर मुजाइफ बहर कहल जाइत छै। मौलाना हसरत मोहानीक गजल “चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है” अही बहरमे छै जकर विवरण आगू देल जाएत। ऐठाँ ई देखू जे निराला जी गजलक विषय नव कऽ देलखिन प्रेमिकाक बदला विषय मिल आ पूँजी बनि गेलै मुदा व्याकरण वएह रहलै। बाँचल शेर एना छै--

हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है

तरस है ये देर से आँखे गड़ी शृंगार में,
और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है

पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, जोर से आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है

ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें,
सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है

जयशंकर प्रसाद

सरासर भूल करते हैं उन्हें जो प्यार करते हैं
बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं

उन्हें अवकाश ही इतना कहां है मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं यही उपकार करते हैं

जो ऊंचे चढ़ के चलते हैं वे नीचे देखते हरदम
प्रफ्फुलित वृक्ष की यह भूमि कुसुमगार करते हैं

न इतना फूलिए तरुवर सुफल कोरी कली लेकर
बिना मकरंद के मधुकर नहीं गुंजार करते हैं

'प्रसाद' उनको न भूलो तुम तुम्हारा जो भी प्रेमी हो
न सज्जन छोड़ते उसको जिसे स्वीकार करते हैं


बिंदु-4) मुदा शास्त्रीयतासँ दूर भैयो कऽ गजलत्व आ गजलजन्य अनुशासन समान्यतः गजलमे कायम रहय से प्रायः जरूरी छै। फैशनपर उकड़-गजल लीखि गजलक इतिहासमे नाम घोंसियायब एकटा कुत्सित प्रयास थिक, एहन लोक नवकविते अथवा आने कोनो विधामे डंड-बैसकी करथि से प्रायः उचित। किछु तुकबंदी मिला कऽ लीखि लेब गजलक संग अ-चेतनमे कयल गेल बलात्कार थिक। एहन लोक ओना सभ विधामे थोड़ेक दिन कुथैत छथि आ पुनः अपने आप साहित्यसँ पोछा जाइत छथि। तँए एहन गजलकारक कोनो तेहन चिन्ता आलोचक नहि करथि।“
ऐ चारिम बिंदुमे रमेशजी अपन भ्रमक सीमापर पहुँचि गेल छथि।
बंधु गजलजन्य  अनुशासने के तँ गजलक शास्त्रीय रूप वा गजलक व्याकरण कहल जाइत छै। ऐ बिंदुक हिसाबें देखल जाए तँ रमेशजी अपने फैशनक नामपर गजल लिखला आ गजलक संग बलात्कार केलथि।
बिंदु-5) "गजलमे निहित सौंदर्य-बोधकेँ चीन्हब आवश्यक छैक।“
ई पाँचम बिंदु पूरा-पूरी गलत आ भ्रमयुक्त अछि। रमेशजीक हिसाबसँ "सौंदर्य-बोधकेँ चीन्हब आवश्यक छैक" मुदा हमर कहब जे जखन एकबेर "सौंदर्य-बोध" भइये गेलै तखन फेरसँ चिन्हबाक बेगरता की? सही कथन एना हेतै---“गजलमे निहित सौंदर्यकेँ चीन्हब आवश्यक छैक।“ ओनहुतो ई वाक्य हिंदीक नकल अछि।  आब बहुतों भक्त लोकनि एकरा प्रेसक गड़बड़ी कहता......................
कुल मिला कऽ देखल जाए तँ रमेशजी अपने गजलक संबंधमे ततेक ने भ्रमित छथि जे वास्तवमे ई पोथी "नागफेनी" बनि गेल अछि आ वास्तविक गजलकेँ लहुलुहान केने अछि।
शिवशंकरजीक आलेख अपेक्षाकृत नीक अछि ( ओहि समयक अन्य आलेखक मुकाबले) मुदा शिवशंकरोजी बहुत रास तथ्यपर भ्रमित छथि। प्रथमतः ओहो आन कथित प्रगतिशील गजलकार जकाँ गजलकेँ दरबारी मानै छथि जखन की गजलमे प्रयुक्त शराब, माशूक, हुस्न, इश्क आदिक परलौकिक अर्थ सेहो होइत छै आ सभ शाइर ऐ शब्द सभकेँ प्रतीकक रूपमे प्रयोग करै छथि।
दोसर जे श्रीनिवासजी कहै छथि----"गजलक अपन अनुशासन छैक, बंदिश आ सीमा छैक। ओकरा रखैत रमेशजी गजल कहबामे सफल भेला हे जे हिनक विशेषता आ सफलता दुनू थिक"......... मुदा गजलक अनुशासन की छै आ बंदिश की छै तकर जानकारी श्रीनिवासजी पाठककेँ नै दऽ रहल छथि आ ने रमेशजीक गजलकेँ तक्ती कऽ कऽ कहि रहल छथि जे ऐ कारणें रमेश जीक गजलमे अनुशासन अछि।
कुल मिला कऽ ई दुन्नू आलेख भ्रमयुक्त अछि आ मैथिली गजलक वास्तविक साक्ष्यसँ बहुत दूर अछि।
ओना हमरा ई मानबामे कोनो दुविधा नै जे ऐ संग्रहक सभ रचना नीक तुकांत कविता अछि ( उपरमे साबित भऽ चुकल अछि जे ई सभ गजल नै थिक )। खास कऽ ओहि समय आन गजलकार ( तारानंद वियोगी, देवशंकर नवीन,) आदिक अपेक्षा अपन रचनामे बेसी मैथिली शब्दक प्रयोग केलह अछि जे की ऐ पोथी विशेषता अछि ऐ विशेषता दिस शिवशंकरजी इशारा सेहो केने छथि। तँ चली ऐ संग्रहक किछु रचना दिस जे की हम पाँतिक उदाहरण दऽ कऽ देखाएब--

नवम रचनाक ई पाँति  नीक अछि--

लाख लाख कोस सागर के अगम अगम जल
देख हेलवाक छौ तँ तुरंत जूटि जो

एगारहम रचनाक ई पाँति देखल जाए--
कियो केकरो पुछारि क' क' की करतै
सभ अपन-अपन दर्द के पिबैत अछि

जँ अप्रस्तुत योजना विधान देखबाक हो तँ सोलहम रचनापर आउ--

जामु आ गम्हारि केर छाह तर मे
बाँस केर कोपर सुखैल जा रहल

मानल जाइत अछि जे बाँसक छाहरि तर कोनो गाछ नमहर नै भ' सकैए कारण बाँसक प्रकृति गरम होइत छै मुदा रचनाकार एतऽ उन्टा गप्प कहि अप्रस्तुतकेँ प्रस्तुत केलाह अछि। सैतीसम रचनाक ई पाँति देखू-

की सोचय अइ देसक जनता
एक्कहि खिच्चड़ि एक्कहि हंडा

जँ 58 टा रचनामेसँ हमरा कोनो एकटा रचना चूनबाक जरूरति पड़त तँ हम 12हम रचनाकेँ ऐ संग्रहक श्रेष्ठ रचना कहब। तँ लिअ ऐ बारहम रचनाक टूटा पाँति--

सौंथ जए टा चाही तए टा छूबि लिअ
टीस मुदा ताजिन्दगी रहैत छै


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