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बुधवार, 30 मार्च 2011
रुबाइ
गीत बनि ठोर पर गाबि जाउ
बढ़ि गेल दूरी संगो रहैत
के कतेक दूर प्रेम सँ नापि जाउ
मंगलवार, 29 मार्च 2011
गजल (बहरे मुतकारिब)
जिबै कोन बैबे नियारी अनेरे
हहारो उठेलौं नचारी गबेलौं
सिहाबै किए छी मदारी अनेरे
जतेको नबारी छबारी बुरैए
घुरेबै कियो नै सुतारी अनेरे
घरोमे उपासे बहारो निरासे
दहारे अकाले हियासी अनेरे
चलै छी खटोली उठा ऐ भरोसे
भसाठी अबैए डरै छी अनेरे
सोमवार, 28 मार्च 2011
गजल
शनिवार, 26 मार्च 2011
गजल
गजल
गुरुवार, 24 मार्च 2011
गजल
धतालबूढ़ प्रेमकेँ बोहेलक दुनू हाथसँ
निर्मल आंगुरसँ छूबै जे ओकर पुठपुरी
फरफैसी पसारै निदरदी अगिलकण्ठ जँ
निमरजना प्रेम जे छलै धपोधप निश्छल
बिदोरै लेल प्रेमीकेँ छलै ओ कड़ेकमान तेँ
अकरतब कर्तव्यमे भेद नै बुझलकै जे
जराउ प्रेमक गप्प नै कहियो नुकेलकै जँ
खञ्जखूहर ऐरावत नै बाटक छेँ बाटमे
धांगि बाट बनेबाक दाम अगूबार पेने छेँ
मंगलवार, 22 मार्च 2011
गजल
गजल
अनकर मचान पर, आशीष जी के दालान पर,
मिथिला के शान पर लिखय लए तैयार छि.
गामक गोप के, गामक लोग लए,
गामक भाषा में,परसय लए तैयार छि
मिथिला के रंग के, मैथिल के ढंग के,
मिथिला के मंच पे आनय लए तैयार छि,
मिथिला के गोप से, मैथिल के ढ़ोब से,
नै अनचिन्हार छि, हम 'झा' सुनील कुमार छि..
रविवार, 20 मार्च 2011
गजल
छोड़ि कऽ हमरा ई जे ओ जा रहल अछि
हृदैकेँ चीरैत जे सुनगा रहल अछि
नीक लगै छल ओकर बोलक संगोर
जाइए आइ हृदए कना रहल अछि
नै बुझलिऐ ई एते बढ़ल अछि बात
देखल आइ जे ओ भँसिया रहल अछि
हमरासँ कते की माँगै छल रहरहाँ
जे जुमल ओ बिनु लेने जा रहल अछि
ओकर हाक्रोस हमर चुप्पी सुनै छल
बाजब से बिनु सुनने जा रहल अछि
बात तँ छलै जड़िआएल तहिआयल
बीझ काटि बिनु पढ़ने जा रहल अछि
ककरा कहबै ई जे पतिआएत आइ
उपरागो बिनु सुनेने जा रहल अछि
घुरत नै देखैल अपनैती अपन ओ
आँखि शून्य हृदए हहारो देखाबै अछि
के टोकत एको बेर रुकि जाउ कहत
मुँह सीयल सभक शून्य बढ़ल अछि
२
की कहबै जे लुझतै ओ, कोना कहने बुझतै ओ
आँखिक नोर खसतै रूसतै आ फेर बजै ओ
चम्मन फूल भमरा गुम्म जब्बर छी सोझाँ ठाढ़
जलबाह सोझाँ माँछ बनल हमरा देखैए ओ
दाबी देखेतै जखन से देखबै नुका अँचरासँ
बहराइ छी हम मुदा घबरा कऽ, नै ताकै ओ
कोन बातपर तमसाइत अछि नै बुझलिऐ यौ
असोथकित आँखि लेने ओङठल पियासल ओ
सर्वज्ञानी बनल हम जाइ ऐ देशकेँ छोड़ने
छोड़ल गेल नै हएत बनल पाथर-मूर्ति ओ
उड़ै अछि अनेरे ई चिड़ै नील अकाशक बिच
हमर मोनो उड़ैए देखैए नै किअए अछि ओ
बनि माँछ आकुल छी बाझब ऐ जालमे कखन
फँसि त्राण पाएब आ आँखि बओने देखत की ओ
धानी रंगक ई आगि देखल हम पियासल छी
धाना ठाढ़ अछि शान्त निश्छल मुखाकृति लेने ओ
देशक धान अछि खखरी बनल, आगि धानी भेल
कखन जाइ ओइ देश जे पियासल, देखै नै ओ
धानी रंगक आगि आ पानि बनल ओकर संगी
धौरबी बनल हम आइ रूसत बुझत नै ओ
धुधुनमुहाँ बनल छी धोधराह गाछक सोझाँ
आगि जरबैत बनेलक फाहा बूझि देखल ओ
मिरदङियाक ध्वनि तरंग धारमे भँसियाइ
ओइ मोनिमे घुरमैत अकुलाइत देखै नै ओ
ऐ आँखिमे जे नोर एतै आ खसेतै आबि ओ सोझाँ
कहिया देखि हकासल हमरा जे दबाड़त ओ
देखितिऐ अँचरासँ आ बहरा जाइ दुअरासँ
चिड़ै उड़तै तँ उड़तै मोनसँ बेसी कोनो की ओ
सगुन बान्हसँ बान्हल ऐ मोनक उछाही बिच
सगुनियाँ छी बनल ठाढ़ कहिया देखत ई ओ
हरसट्ठे स्वयंसँ अपन चेन्हासी मेटा लेलक
माटिक मूरुत हम हरपटाहि बनेलक ओ
छरछर बहल धार मोनक कतऽ अछि गेल
बहि धेलक बाट आ उधोरनि बनल अछि ओ
शुक्रवार, 18 मार्च 2011
ग़ज़ल
मोन प्रपंच पाप सँ दूषित, भाषण जन - समुदाय के
कोना एहन नायक समाज में, परचम बनता न्याय के
कथनी में आदर्श, कलंकित करनी सँ नफरत के पात्र,
कोना समाज एहन व्यक्ति के, शत्रु कहय अन्याय के
किछु दिन संभव अछि चालाकी किन्तु अंत नहिं नीक एकर,
सदा अंत में हारव निश्चित, दानव के पर्याय के
धर्म, सत्य और न्याय-मनुजता, नैं हारल, नैं हारि सकत,
झूठ नैं कखनों बना सकत क्यों, अपन सबहक ऐहि राय के
धर्म अपन अछि - अपना कारण अपन वंश के मान बढय,
कहि नैं पावय क्यो कपूत के जननी अपना माय के
आदर्शक पथ पकडि चलू और करैत रहू कर्त्तव्य अपन,
लक्ष्य इहय बस सर्वोत्तम अछि, बुझू हमर अभिप्राय के
रचनाकार - अभय दीपराज
I have done B.Sc.[Biology]in 1982 and M.Sc.[Defence Science] from Government Science coleege Gwalior and thereafter I have done B.Ed.in 1986 from Government Education coleege Gwalior. After it I have done M.A.[History] in 1989. In 1989 I went to join the three year degree course of law. After the completing of my LL.B. in 1992 I have taken an M.A. degree in sociology in 1994.
Since childhood I like to read & write poems, articles & stories, which can be seen in my blogs....
गजल
सटै जँ ठोर अनचिन्हारक अनचिन्हार सँ त बुझिऔ होली छैक
बाजए जँ केओ प्यार सँ त बुझिऔ होली छैक
बेसी टोइया-टापर देब नीक नहि भाइ सदिखन अनवरत
निकलि जाइ जँ अन्हार सँ त बुझिऔ होली छैक
केहन- केहन गर्मी मगज मे रहै छैक बंधु
मनुख बचि जाए जँ गुमार सँ त बुझिऔ होली छैक
की दुख होइत छैक चतुर्थीक राति मे नहि बुझि सकबै
हँसी जँ आबए कहार सँ त बुझिऔ होली छैक
जहाँ कनही गाएक भिन्न बथान तहाँ सुन्न- मसान
होइ कोनो काज सभहँक विचार सँ त बुझिऔ होली छैक
मंगलवार, 15 मार्च 2011
Chandrabhanu singh 7.3.09.3gp
सोमवार, 14 मार्च 2011
गजल
कीनल खुशी पर हसूँ कतेक
पलास्टिकक कंठ सँ बाजू कतेक
रहस्य बेपारक बुझबै नहुँ-नहुँ
देखू कमजोर हाथ मे तराजू कतेक
आधुनिको नहि उत्तर आधुनिक जुग
बच्चा बेचैत मनुख गर्जू कतेक
बिनु आँकरक भात कतए भेटत
कहू कओरे-कओरे थुकरु कतेक
अनचिन्हारक चश्मा लागल आखिँ पर
कहू दोसर लग हम बैसू कतेक
बुधवार, 9 मार्च 2011
ग़ज़ल
ग़ज़ल
कहू कोना ? जे, आम आदमी बनि कय की - की भोगलौं हम
खून - खुनामह भेल करेजा, कोना - कोना क ? जोगलौं हम
बड़ उल्लास भेल बचपन में, हम बड़ सुन्दर, काबिल छी,
गौरव छल जे - बाबू - बौआ बनि, कोरा में झुललौं हम
भेलौं किशोर, मोंन बड़ हुलसल, मुट्ठी में संसार छलय,
धरती सँ आकाश लोक धरि, लहरेलौं और बुललौं हम
जखन वयस्क भेलौं और आयल कंधा पर दुनिया के भार,
यौवन के गौरव में डूबल, अपन शक्ति के खोजलौं हम
देश - समाजक और कुटुम्बक, अनुभव के कड़वाहट में,
बेर - बेर बनि कय अभिमन्यु , चक्र - व्यूह में फँसलौं हम
जाहि घडी तक आन लोक सब दुश्मन छल, मदमस्त छलौं,
बज्र माथ पर बजरल लेकिन, ओकरो सहि कय बचलौं हम
अपन खून सँ चोट जे लागल, सब बुद्धि - बल बिसरायल,
सुनल बात छल एक बेर के, लाख बेर पर मरलौं हम
जीवन सच में बड़ भारी छल, आदर्शक पथ और कठिन,
राम - नाम अवलंब रहल त, कुहरि -कुहरि क कटलौं हम
रचनाकार - अभय दीपराज
I have done B.Sc.[Biology]in 1982 and M.Sc.[Defence Science] from Government Science coleege Gwalior and thereafter I have done B.Ed.in 1986 from Government Education coleege Gwalior. After it I have done M.A.[History] in 1989. In 1989 I went to join the three year degree course of law. After the completing of my LL.B. in 1992 I have taken an M.A. degree in sociology in 1994.
Since childhood I like to read & write poems, articles & stories, which can be seen in my blogs....
मंगलवार, 8 मार्च 2011
गजल
मोन मे बैसल मात्र एकटा साँप
बाहर सह-सह करैत कएकटा साँप
लगबैत रहलहुँ वएट आ सूचना तंत्र
बढ़ैत रहल महँगी आपदा साँप
बिकनीक डिजाइन छैक वा सुन्दरीक अपने
छाती मे लेपटाएल तगमा साँप
बुझाएत नहि रहत पाते मे मिझराएल
एनाहित डसँत सुगबा साँप
शनिवार, 5 मार्च 2011
गजल

सदरे आलम ’गौहर’सदरे आलम "गौहर"
व्याख्याता:-एस.एम.जे.कालेज खाजेडीह, ग्राम पो:- पुरसौलिया.मधुबनी
दाम एतय सभ चीजक देब' पड़ै छै।
अधिकारक लेल झग्गड़ क'र' पड़ै छै।
गज भरि जमीन जौँ कौरव नहि देब' चाहै।
पाँडव के फेर लोहा लेब' पड़ै छै।
कर्बला केर खिस्सा त' दुनिया जानै छै।
धर्मक खातिर शीश कटाब' पड़ै छै।
झग्गड़ झँझट मानलौँ नीक नहि होइ छै मुदा।
जीब' खातिर ईहो क'र' पड़ै छै।
"गौहर" साधु ब'न' लए चाहैत अछि मुदा।
दुर्जन केँ जे पाठ पढ़ाब' पड़ै छै।
शुक्रवार, 4 मार्च 2011
गजल
के कनैत अछि एहिठाम हमरा लेल
के रहैत अछि एहिठाम हमरा लेल
केकरो सपना मे अएबैक हम भ्रम नहि पोसब
के सुतैत अछि एहिठाम हमरा लेल
उठनाइ खराप नहि मुदा कनेक अहूँ सोचिऔ
के उठैत अछि एहिठाम हमरा लेल
अनवरत बसातक संग आबि रहल गर्दा
के उड़ैत अछि एहिठाम हमरा लेल
अनचिन्हार नाम अनचिन्हार गाम अनचिन्हार सभ
के गबैत अछि एहिठाम हमरा लेल
मंगलवार, 1 मार्च 2011
गजल
मोन कतबो मरलिअइ मोन रहि गेलैक मुदा
छवि कतबो हटेलिअइ आँखि मे बसि गेलैक मुदा
हाँड़-पाँजड़ रहए ने थिर चित्त चंचल
नोरक धार सँ आँखि दहि गेलैक मुदा
बैसल छी घर मे एकसरे एखन
कान मे केओ किछु कहि गेलैक मुदा
एक त विख्ख ताहू मे इ प्रेमक विख्ख
रोकिते-रोकिते चढ़ि गेलैक मुदा
मुँह जे देखिऐक त लगैक अनचिन्हारे सन
की करु प्रेम सँ करेज मथि गेलैक मुदा