गजल-1.52
नाङरकेँ जँ टाँग चाही
मैथिलकेँ तँ भाँग चाही
बेरा-बखत काज जे दै
सबकेँ ओ समाँग चाही
एक्कहि बेर गगन छू लै
जीवनमे छलाँग चाही
बढ़लै भीड़ भठल मनुखक
संस्कारक तँ झाँग चाही
बनतै सड़क बीच टोलसँ
दुखिया घरक पाँग चाही
सब जातिक तँ होइ इज्जत
एहन "अमित" माँग चाही
मफऊलात-फाइलातुन
2221-2122
अमित मिश्र
नाङरकेँ जँ टाँग चाही
मैथिलकेँ तँ भाँग चाही
बेरा-बखत काज जे दै
सबकेँ ओ समाँग चाही
एक्कहि बेर गगन छू लै
जीवनमे छलाँग चाही
बढ़लै भीड़ भठल मनुखक
संस्कारक तँ झाँग चाही
बनतै सड़क बीच टोलसँ
दुखिया घरक पाँग चाही
सब जातिक तँ होइ इज्जत
एहन "अमित" माँग चाही
मफऊलात-फाइलातुन
2221-2122
अमित मिश्र
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