गजल-५७
कौआ जँ कोइली बनि कूकत के कुचरत के देत सनेश
सभके मोजर सभक खगता अपना मे छै सभ विशेष
परतर गाम-शहरमे की अपन-अपन शोभा सभके
जतए रही से कर्मभूमि थिक देश कथी आ की परदेस
ठाढ़ केने छी हृदयक सीमा नेहक बखरा बाँट केलहुँ
अपने नै आनो सभ थूकत अपनामे जँ करब कलेश
क छोडू कर्त्तव्य बिसरलहुँ "अ" पढ़लौं अधिकार अबैए
कर्मठतामे सभसँ पाछू अगुआ बनि जे दए उपदेश
एक चुनावक खेल छै सभटा एक बेर बस कुर्सी चाही
एक घोटाला हमरो नामे हमहूँ रंकसँ बनब नरेश
एहन व्यवस्था देख रहल छी लोकतंत्रमे आब "नवल"
ककरो भूखे अंतरी सटकल किओ करैए खूब निंघेष
>आखर - २२ (तिथि: १५.०३.२०१३)
©पंकज चौधरी (नवलश्री)
कौआ जँ कोइली बनि कूकत के कुचरत के देत सनेश
सभके मोजर सभक खगता अपना मे छै सभ विशेष
परतर गाम-शहरमे की अपन-अपन शोभा सभके
जतए रही से कर्मभूमि थिक देश कथी आ की परदेस
ठाढ़ केने छी हृदयक सीमा नेहक बखरा बाँट केलहुँ
अपने नै आनो सभ थूकत अपनामे जँ करब कलेश
क छोडू कर्त्तव्य बिसरलहुँ "अ" पढ़लौं अधिकार अबैए
कर्मठतामे सभसँ पाछू अगुआ बनि जे दए उपदेश
एक चुनावक खेल छै सभटा एक बेर बस कुर्सी चाही
एक घोटाला हमरो नामे हमहूँ रंकसँ बनब नरेश
एहन व्यवस्था देख रहल छी लोकतंत्रमे आब "नवल"
ककरो भूखे अंतरी सटकल किओ करैए खूब निंघेष
>आखर - २२ (तिथि: १५.०३.२०१३)
©पंकज चौधरी (नवलश्री)
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