मंगलवार, 6 सितंबर 2011

गजलक संक्षिप्त परिचय भाग-12

खण्ड-12
आघात बला शब्दक काफिया
पं.गोविन्द झाजी अपन पोथी “मैथिली परिशीलन” केर पन्ना 53 पर सूचना दै छथि जे मैथिलीमे रागात्मक आघात प्राचीने कालमे समाप्त भऽ गेल छल। पन्ना 54 पर ओ मात्रात्मक आघात केर बारेमे सूचना दै छथि। ओही पन्नापर ओ ईहो सूचना दै छथि जे डा. रामावतार यादवजी मैथिलीमे मात्रात्मक आघातकेँ नै मानै छथि संगे-संग कहै छथि जे आघातसँ स्वरक प्रलम्बता बढ़ै छै आ तँइ लघु स्वर दीर्घमे नै बदलै छै। पं.जी ईहो लीखै छथि जे आघातसँ रैखिक प्रतीकमे कोनो बदलाव नै होइ छै। पन्ना 55 पर ओ बलात्मक आघात (बलाघात) केर बारेमे सूचना देने छथि। ऐठाम ईहो ध्यान राखब उचित जे पं.गोविन्द झाजी अपन पोथी “उच्चतर मैथिली व्याकरण” क पृष्ठ 18 पर बलाघातकेँ मानक नै मानै छथि। व्यक्तिगत रूपसँ हमरा हिसाबें मैथिलीमे खाली दू लघु वर्ण आ किछु हद धरि तीन वर्णसँ बनल शब्दमे मात्रात्मक आघात अछि आ बाद बाँकीमे खत्म भऽ गेल अछि, तँए हम एतए खाली मात्रात्मक आघात पर बिचार करब आ ओइ हिसाबसँ कतऽ लघु, कतऽ दीर्घ से देखाएब। मैथिलीमे कोन शब्दमे कतए आघात पड़त तकरा देखल जाए--

1) एक वर्णक शब्दमे ओहीपर आघात पड़ै छै। दू वर्ण धरि बला एहन शब्द जाहिमे एकौटा गुरू वर्ण नहि हो एहन शब्दमे अन्तसँ दोसर शब्द पर आघात पड़ैत छैक जेना “घर”, “बर” । एकर उच्चारण “घऽर”, “बऽर” आदि होइत अछि। मतलब “घ” आ “ब” पर आघात पड़ल छैक। एकर अपवादो छै आ ताही अनुकूल अर्थो बदलि जाइत छै जेना एकटा शब्द अछि “रस” आब जँ एहि शब्दक “र” पर आाघात हेतै तखनो ओ खाए-पीबए बला वस्तुक तरल पदार्थ रूपमे जानल जेतै मुदा जँ “र” पर बिना आघात देल बाजल जाए तँ ओ साहित्य बला भाव, अर्चा-चर्चा बला भाव रूपमे लेल जेतै। दोसर उदाहरण लिअ जेना “घर-घरमे हरकंप” अइ वाक्य खंडमे उच्चारण “घऽर-घऽरमे हरकंप” नै अछि मतलब आघात गाएब अछि)।  जँ दू वर्ण बला शब्दमे एक या एकसँ बेसी दीर्घ हुअए तँ पहिल दीर्घ पर आघात पड़ैत छैक। जेना “हाथ”, “सही” आदि।मतलब “हा” आ “ही” पर आघात छैक। “हाथी” “माछी” । एहि शब्द सभमे पहिल गुरू “हा” एवं “मा” पर आघात छैक। संयुक्ताक्षर बला शब्दमे संयुक्ताक्षरसँ पहिने बालपर आघात होइ छै जेना “खत्ता” अइमे “ख” पर आघात छै।

2) तीन वर्ण बला एहन शब्द जाहिमे तीनू लघु वर्ण हो एहन शब्दमे अन्तसँ दोसर वर्ण पर आघात पड़ैत छैक आ तँइ एहन शब्दक उच्चारणमे पहल आ दोसर वर्ण एक संग आ तेसर वर्ण अलग उच्चरित होइ छै। जेना “तखन”, “बिगड़ि” ।एहिमे “ख” आ “ग” पर आघात छैक मने एकर उच्चारण “तख-न” वा “बिग-ड़ि” अछि। जँ तीन वर्ण बला शब्दमे एक या एकसँ बेसी दीर्घ हुअए तँ पहिल दीर्घ पर आघात पड़ैत छैक। जेना “ओसारा” मे “ओ” पर आघात छैक। “बतासा” मे “ता” पर आघात छैक। वर्तमान समयमे बहुतो तीन लघु वर्ण बला शब्दपर आघात गायब भऽ गेल अछि। उपर देल शब्द “तखन” केर उच्चारण “त-खन” होइत अछि। तेनाहिते “बि-गड़ि” बाजल जाइत अछि मुदा किछु एहनो शब्द अछि जइमे आघातक कारणे अर्थे बदलि जाइत छै आ तँइ ओकर उच्चारण पहिने जकाँ रहत उदाहरण लेल एकटा शब्द “कमल “लिअ। आब जँ अहाँ एकर उच्चारण क-मल (मने लघु-दीर्घ) करबै ताहिसँ एकटा फूलक अर्थ निकलत मुदा जखन अहाँ एही शब्दकेँ कम-ल (मने दीर्घ-लघु मने “म” पर आघात) करबै तखन एकर अर्थ घटनाइमे हेतै जेना  पानि कमल की नै इत्यादि। तँए हमर आग्रह जे पहिने कोनो शब्दकेँ उच्चारणक हिसाबेँ अर्थ देखू जाहिसँ उच्चारण अनर्थ नै हुअए।


3) चारि वर्णक एहन शब्द जइमे सभ लघु हो तइमे अन्तसँ दोसर वर्ण पर आघात पड़ैत छैक। उदाहरण लेल “भिनसर” मे “स” पर आघात छैक, “अगहन” मे “ह” वर्ण पर छैक। जँ चारि वर्ण बला ओहन शब्द जाहिमे दीर्घ सेहो छैक तकर आघात उपरमे देल गेल आने नियम जकाँ अछि। जेना “उच्चारण” मे च्चा पर आघात छैक। कुल मिला कए एकसँ चारि वर्ण धरिक शब्द लेल एकै रंगक नियम अछि। वर्तमानमे चारि वर्णक एहन शब्द जइमे सभ लघु हो तइमे आघात खत्म भऽ गेल अछि उदाहरण लेल “भिनसर” एकर उच्चारण छै “भिन+सर एकर मतलब जे “भिनसर” मे जे “सर” छै तकर उच्चारण समान्यतः “सऽर” नै होइत अछि। दोसर शब्द “कबकब” लिअ एकर वर्तमान उच्चारण “कब+कब” अछि।

4) पाँच वर्ण बला शब्दमे पहिल दीर्घक संगे अन्तसँ दोसर वर्ण पर सेहो आघात होइत छैक। उदाहरण लेल “देखलहक” मे पहिल दीर्घक संग अन्तसँ दोसर वर्ण “ह” पर आघात छैक, तेनाहिते “कमरसारि” मे “सा” पर आघात छैक, “कनपातर” मे दीर्घक संग “त” पर आघात छैक। मूल रूपसँ पाँच वर्ण बला शब्दमे आघात बहुत मंद रूपें अबैत छै तँइ वर्तमान समयमे एहनो शब्दसँ आघात हटि गेल अछि।

5) छह वर्णमे आघात पाँचे वर्ण जकाँ होइत छै।

अइ ठाम धरि अबैत-अबैत हमरा बुझाइए जे वर्तमान मैथिलीमे आघात हटि जेबाक कारणे रामावतारजी मात्रात्मक आघातकेँ अमान्य केने हेता।

जँ पूरा विवेचनाकेँ देखबै तँ पता लागत जे मैथिलीमे दू वर्णक ओहन शब्द जाहिमे सभ लघु हो (अपवाद छोड़ि) आघात  प्रकरण ओहीपर बेसी टिकल छै। तेनाहिते किछु अपवाद छोड़ि तीन, चारि, पाँच वा छह वर्ण ओहन शब्द जाहिमे सभ वर्ण लघु हो तइमे आघात गाएब भऽ चुकल अछि। तँए जँ कोनो शाइर मतलाक कोनो पाँतिमे दू अक्षर बला शब्दक काफिया लै छथि तँ ओ प्रयास राखथि जे पूरा गजलमे आन-आन काफिया दुइए अक्षर बला शब्द बला हो। शुरूआतमे सभ गोटा (हमरा सहित) “घर “केर काफिया “भिनसर” सेहो बनबै छलाह। सभ गोटासँ आग्रह जे ओ प्रवाह देखथि।
एहन ठाम ई मोन राखू जे काफियामे आघात बला स्थान आ वर्णक मात्रा समान रहए। उदाहरण लेल “घर” आ “मजूर” दूनूमे दोसर स्थान पर आघात  छैक मुदा मात्रा अलग-अलग छैक, तँए इ दूनू एक-दोसराक काफिया नहि बनि सकैए। तँ “घर” शब्दक काफिया लेल “बर”, “तर”, “हर”, आदि उपयुक्त रहत । आ “मजूर” लेल “मयूर”, “हजूर” आदि उपयुक्त रहत। आनो-आन आघात बला शब्दक काफिया लेल इएह नियम बूझू। एहिठाम हम फेर मोन पाड़ी जे काफियाक निर्धारण खाली मतलामे होइत छैक आ बाँकी शेरमे ओकर पालन। तँए जँ केओ मतलामे विभक्ति बला शब्दकेँ “फूलक” आ हाथक” काफिया लेताह तँ सही हएत आ बाद-बाँकी शेरमे “अक” काफियाक प्रयोग हेतैक। मुदा जँ केओ मतलामे “फूलक” आ “अड़हूलक” लेता आ तकरा बादक शेरमे “हाथक” प्रयोग करता तँ ओ बिल्कुल गलत हएत। “फूलक” आ “अड़हूलक” बाद आन शेर लेल काफिया “ूलक” होएबाक चाही।
(किछु उर्दू शाइरक सभहँक मोताबिक जँ एकै शब्दक दूटा अर्थ हो तँ ओ मतलामे आबि सकैए। जेना “बौआ” बच्चा केर अर्थमे आ “बौआ” बेकार घूमब केर अर्थमे। मुदा हमरा जनैत मैथिलीमे ई गलत हएत कारण अर्थ संगत रूपें बैसबे नै करतै। बेसी प्रमाण चाही ऐ “बौआ” शब्दकेँ मतलामे प्रयोग कऽ कऽ देखि लिऔ।)
ई तँ काफिया लेल छल मुदा अहूसँ आगू ई आघात गजलक हरेक पाँतिमे प्रभावी हएत कारण आघातक पालन केलासँ गजलमे उच्चारण स्पष्टता आएत आ गजल प्रभावी बनत। उर्दूमे एहने सन नियम छै जकरा मुतहर्रिक-साकिन व्यवस्था नामसँ जानल जाइत छै (किछु अंतरक संग)। ऐ ठाम एकटा महत्वपूर्ण गप्प जे आघातक कारणे मैथिलीमे लघु-गुरू व्यवस्थामे सेहो प्रभावित अछि खास कऽ एहन शब्द जइमे सभ वर्ण लघुए-लघु हो। एकर वर्णन विस्तारसँ निच्चा कऽ ली तँ आगू लेल सुविधा रहत—

1) दू वर्णसँ बनल शब्दक दोसर वर्णपर आघात रहै छै तँइ एकरा दीर्घ मानू मने “घर” =दीर्घ (संस्कृतमे लघु-लघु)

2) तीन वर्णसँ बनल शब्दपर जाएसँ पहिने लेखक अपन निर्णय लेथि जे ओ पारंपरिक रूपें आघात मानै छथि वा वर्तमान उच्चारण मानै छथि (बिना आघातक)। जँ कियो शाइर आघात मानै छथि तँ अनिवार्य रूपें ओ अपन सभ गजलमे आघातक पालन करथि। एहन नै जे कोनो गजलमे मात्रा पुरेबा लेल आघात मानि लेलहुँ आ कोनोमे नै मानलहुँ। जे कियो एना करता तँ हुनकर काव्य दोषसँ ग्रसित बूझल जाएत। जे आघात नै मानै छथि तिनकोसँ आग्रह जे ओ अपन गजलमे उच्चारणक एकरूपता राखथि। मने तीन वर्णसँ बनल शब्द लेल दू टा ग्रुप भेल--पहिल जे आघात मानै छथि, दोसर जे आघात नै मानै छथि। तँ आब आउ तीन वर्णसँ बनल शब्दपर---

“पहिल” जे आघात मानै छथि तिनका लेल उच्चारण हेतै पहि-ल मने दीर्घ-लघु मने 2-1। जे आघात नै मानै छथि तिनका लेल उच्चारण प-हिल मने लघु-दीर्घ 1-2
“तखन” जे आघात मानै छथि तिनका लेल उच्चारण हेतै तख-न मने दीर्घ-लघु मने 2-1। जे आघात नै मानै छथि तिनका लेल उच्चारण त-खन मने लघु-दीर्घ 1-2
“बिगड़ि” जे आघात मानै छथि तिनका लेल उच्चारण हेतै बिग-ड़ि मने दीर्घ-लघु मने 2-1। जे आघात नै मानै छथि तिनका लेल उच्चारण बि-गड़ि मने लघु-दीर्घ 1-2
आन शब्द लेल एहने सन बुझू।

आब आउ चारि लघु वर्णसँ बनल शब्दपर --

“भिनसर” जे आघात मानै छथि तिनका लेल उच्चारण हएत भिनस-र मने दीर्घ-लघु-लघु मने 2-1-1। जे आघात नै मानै छथि तिनका लेल भिन-सर मने दीर्घ-दीर्घ मने 2-2
“कबकब” जे आघात मानै छथि तिनका लेल उच्चारण हएत कबक-ब मने दीर्घ-लघु-लघु मने 2-1-1। जे आघात नै मानै छथि तिनका लेल कब-कब मने दीर्घ-दीर्घ मने 2-2
आन शब्द लेल एहने सन बुझू।

आब आउ पाँच लघु वर्णसँ बनल शब्दपर--

“चहटगर” जे आघात मानै छथि तिनका लेल उच्चारण हएत चहटग-र मने लघु-दीर्घ-लघु-लघु मने 1-2-1-1 । जे आघात नै मानै छथि तिनका लेल चहट-गर मने लघु-दीर्घ-दीर्घ मने 1-2-2
आन शब्द लेल एहने सन बुझू।
आब आउ छह लघु वर्णसँ बनल शब्दपर--

“चपलचरण” जे आघात मानै छथि तिनका लेल उच्चारण हएत चप-ल-चर-ण मने दीर्घ-लघु-दीर्घ-लघु मने 2-1-2-1। जे आघात नै मानै छथि तिनका लेल च-पल-च-रण मने लघु-दीर्घ-लघु-दीर्घ मने1- 2-1-2
आन शब्द लेल एहने सन बुझू।
ऐठाम धरि आबैत-आबैत बुझा गेल हएत जे आघात कोना मात्राक स्थान परिवर्तन करा दै छै तँए मैथिली गजल लेल आघात महत्वपूर्ण रहत। व्यक्तिगत रूपें हम वर्तमान उच्चारणकेँ (बिना आघातक) मानै छी। एकटा आर विशेष गप्प हमर सभहँक एखन धरि गजलमे आघातक अनियमता भेटि सकैए आ ताइ लेल एकटा मेंटरक रूपमे हमहीं दोषी छी।

नोट--” उच्चतर मैथिली व्याकरण” केर पृष्ठ18 पर पं.गोविन्द झाजी लीखै छथि जे कोनहुँ स्थितिमे आघात अंतसँ तेसर वर्णसँ पाछू नै जा सकैए मुदा “मैथिली परिशीलन पृष्ठ” केर 54पर ओ लीखै छथि जे तीनसँ अधिक अक्षर बला शब्दमे आघात दू ठाम पड़ैत अछि पहिल ठाम मंद आ दोसर ठाम स्वाभाविक मुदा कतए मंद आ कतए स्वाभाविक से नै फड़िछाएल गेल अछि। तथापि जखन पंडित जी बिना कोनो सूचना देने जखन अपन पोथी “उच्चतर मैथिली व्याकरण” केर तर्क अपने दोसर पोथी “मैथिली परिशीलन” मे काटि दै छथि तखन हम सभ की करी। मुदा पाठक भ्रममे नै पड़थि तँइ अइ प्रकारक सूचना हम पाठककेँ दऽ रहल छी।

एक नजरि विसर्ग बला काफियापर सेहो फेरि ली--

विसर्ग कोनो अलग वर्ण नै छै खाली स्वाराश्रित छै। विसर्गक उच्चारण विशिष्ट आ अलग हेबाक कारणें ओकरा सही रूपमे लिखब संभव नै छै।

सामान्यतः जँ विसर्गक पहिले ह्रस्व स्वर/व्यंजन हो तँ ओकर उच्चारण त्वरित ‘ह’ जेहन होइत छै आ जँ विसर्गक पहिले दीर्घ स्वर/व्यंजन हो तँ विसर्गक उच्चारण त्वरित ‘हा’ जेहन करबाक चाही।

विसर्गक पूर्व ‘अ’कार हो तँ विसर्ग का उच्चारण ‘ह’ जेहन, ‘आ’ हो तँ ‘हा’ जेहन; ‘ओ’ हो तँ ‘हो’ जेहन, ‘इ’ हो तँ ‘हि’ जेहन होइत छै। मुदा जँ विसर्गक पूर्व अगर ‘ऐ’कार हो तँ विसर्ग का उच्चारण ‘हि’ जेहन होइत छै--
केशवः = केशव ()
बालाः = बाला (हा)
भोः = भो (हो)
मतिः = मति (हि)
चक्षुः = चक्षु (हु)
देवैः = देवै (हि)
भूमेः = भूमे (हे)

पँतिक बीचमे विसर्ग हो तँ ओकर उच्चारण आघात देल ‘ह’ जेहन करबाक चाही।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

विसर्गक बाद अघोष (कठोर) व्यंजन आएल हो, तँ विसर्गक उच्चारण आघात देल ‘ह’ जेहन करबाक चाही।
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ।

विसर्गक बाद यदि ‘श’, ‘ष’, या ‘स’ आबै, तँ विसर्गक उच्चारण क्रमशः ‘श’, ‘ष’, या ‘स’ हेतै ।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः (लिखित रूप)
यज्ञशिष्टाशिन(स्)सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः (उच्चारण रूप)

धनञ्जयः सर्वः = धनञ्जयस्सर्वः
श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः
गंधर्वाः षट् = गंधर्वाष्षट्

‘सः’ केर सामने (बाद) ‘अ’ एलापर दूनूक ‘सोऽ’ बनि जाइत छै; आ ‘सः’ केर विसर्ग, ‘अ’ केर छोड़ि आन वर्ण सामने एलापर, लुप्त भऽ जाइत छै।
सः अस्ति = सोऽस्ति
सः अवदत् = सोऽवदत् 

विसर्गक पहिले जँ ‘अ’कार हो आ ओकरा बाद मृदु व्यञ्जन आएल हो तँ अकारआ विसर्ग मीलि कऽ ‘ओ’ बनि जाइत छै।
पुत्रः गतः = पुत्रो गतः
रामः ददाति = रामो ददाति

विसर्गक पहिले जँ ‘आ’कार हो आ ओकरा बाद मृदु व्यञ्जन आएल हो तँ, विसर्गक लोप भऽ जाइत छै।
असुराः नष्टाः = असुरा नष्टाः
मनुष्याः अवदन् = मनुष्या अवदन्

विसर्गक पहिले जँ ‘अ’ या ‘आ’कार के छोड़ि कऽ आन स्वर आबैत हो, आ ओकरा बाद जँ स्वर अथवा मृदु व्यञ्जन आबैत हो, तँ विसर्गक ‘र्’ बनि जाइत छै।
भानुः उदेति = भानुरुदेति
दैवैः दत्तम् = दैवैर्दत्तम् 

विसर्गक पहिले जँ ‘अ’ या ‘आ’कार के छोड़ि कऽ आन स्वर आबैत हो, आ ओकरा बाद जँ ‘र’कार आबैत हो, तँ, विसर्गक पहिले आबऽ बला स्वर दीर्घ भऽ जाइत छै।
ऋषिभिः रचितम् = ऋषिभी रचितम्
भानुः राधते = भानू राधते
शस्त्रैः रक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्

मैथिलीमे शब्दक अंत बला विसर्गक उच्चारण प्रलंबित (रेघाएल) “वर्ण सनक होइत छै जेना अतः=अतह”, “समान्यतः=समान्यतहमुदा वास्तविक तौरपर ई केर असली उच्चारण नै छै से उपर पढ़ि स्पष्ट भऽ जाएत। आब ऐठाम प्रश्न उठि सकैए जे ‘विरह’ आ ‘अत:’ केर उच्चारण छै तँ की ई दूनू एक दोसराक काफिया बनि सकैए?
सुनलापर ‘विरह’ आ ‘अत:’ऑल्मोस्ट समान बुझाइए मुदा ऐ दूनू शब्दक अन्तमे दृष्टव्य आकृति [देखाए बला] एक नै हेबाक कारणें एकरा उचित / सटीक काफिया नै मानल गेल छै। उपर कहले गेल अछि जे विसर्ग खाली स्वाराश्रित छै। तँए ‘विरह’ आ ‘अत:’ एक दोसराक काफिया नै बनि सकैए।मने “ह” आ “विसर्ग” एक दोसरक काफिया नै बनि सकैए।

मैथिली आ उर्दू वर्णमालामे अंतर

जखन मैथिली गजलमे नियम सभ लागू होमए लागल तखन बहुत लोक सभकेँ कष्ट शुरु भेलन्हि। जिनका सभकेँ कष्ट एखनो छन्हि ओहिमे दू तरहँक आदमी छथि। पहिल तरहँक तँ ओ भेलाह जे पहिनेसँ गजल लिखै छथि मुदा बिना कोनो नियमक आ नियम लागू भेलासँ हुनक सभ रचनापर प्रश्न चिन्ह लागि गेल तँए ओ सभ नियमक विरोध करए लगलाह। दोसर तरहँक आदमी ओ छथि जे गजल तँ नै लिखै छथि मुदा गजल विधाक विकास नै सोहेलन्हि तँए ओहो विरोध करए लगलाह। हमरा लग एकटा एहन आदमी छथि जे अपने गजल तँ नै लिखै छथि मुदा नियमक विरोध करै छथि। एक दिन ओ कतहुँसँ उर्दूक एकटा नीक शाइर केर गजल पोथी किनलन्हि जे की देवनागरीमे लिप्यंतरण भेल रहै। आब भाइ मैथिली आ उर्दू तँ अलग भाषा छै से ओ नै बूझि सकलाह आ हमरासँ प्रश्न पूछि देलाह जे ई महान उर्दू शाइर फल्लाँ केर पोथी थिक आ ऐमे “त “अक्षर केर काफिया “थ “अक्षर छै मुदा अहाँ मैथिलीमे तँ “त” आ “थ” केर अलग नियम बना देने छिऐ। जे नियम उर्दूमे नै चललै से मैथिलीमे कोना चलत आदि-आदि। हम तँ गुम्म रहि गेलहुँ। ई एकटा खिस्सा अछि मुदा एहन घटना अहाँ संग सेहो भए सकैत अछि। मानि लिअ जे अहूँ कोनो उर्दू गजलक देवनागरी लिप्यंतरण भेल पोथी किनलहुँ आ पढ़लापर देखलहुँ जे “भ “केर काफिया “ब” भेल छै तँ अहूँ भ्रममे पड़ि जाएब। मुदा ऐठाम मोन राखू जे उर्दू आ मैथिली भाषा अलग छै आ ओकर लिपि सेहो अलग-अलग छै तँए काफियाक नियम दूनू भाषामे थोड़े अलग रहतै। इहो मोन राखू जे उर्दू केर जन्म भारतमे भेलै मुदा लालन-पालन अरबी-फारसी बला सभ केलकै। फलस्वरूप उर्दू भाषामे भारतीय भाषाक संगे-संग अरबी-फारसीक नियम चलैत अछि। आ तँए हम अतए देवनागरी (संगे संग मिथिलाक्षर सेहो) आ उर्दू लिपिमे अंतर दए रहल छी जाहिसँ अहाँ सभ ओहि आदमी जकाँ भ्रमित नै हएब।
देवनागरी (संगे-संग मिथिलाक्षरमे सेहो) कुल 16 टा स्वर आ 36 टा व्यंजन अछि मतलब जे हरेक ध्वनि लेल अलग-अलग अक्षर बनाएल गेल छै मुदा उर्दूमे किछुए अक्षर छै आ तकरामे नुक्ता लगा वा “ह” ध्वनिक प्रयोग कए नव शब्द बनाएल जाइत छै।नुक्ता लगा वा “ह “मिला कए जे नव शब्द बनैत छै तकरा उच्चारणक हिसाबसँ चारि भागमे बाँटि सकैत छी--
a) जे लिखलो जाइत छै आ तकरा उच्चारणों कएल जाइत छै (हर्फे मक्तूबा मलफूजा) ई सरल बात छै आशा अछि जे एकरा बुझि गेल हेबै।
b) जे लिखल तँ जाइ छै मुदा ओकर उच्चारण नै कएल जाइत छै (हर्फे मक्तूबा गैर मलफूजा) उर्दूमे बहुत रास एहन शब्द छै जाहिमे किछु अक्षर लिखल तँ जाइ छै मुदा ओकर उच्चारण नै होइत छै आ मात्रा गनबा काल सेहो ओकरा नै गनल जाइत छै जेना “तुम अपनी” ऐकेँ आवश्यकता पड़लापर “तुमपनी” सेहो उच्चारित कएल जाइत छै। आब देखू जे “तुम अपनी” मे अ लिखल छै मुदा ओकर उच्चारण नै भए रहल छै (आवश्यकता पड़लापर) । शब्दकेँ ऐ तरीकासँ मिलेनाइकेँ “अलिफ वस्ल” नियम कहल जाइत छै।
c) जे लिखल तँ नै जाइ छै मुदा ओकर उच्चारण नै कएल जाइत छै (हर्फे मलफूज गैर मक्तूबा) जेना पढ़ल तँ बिल्कुल जाइ छै मुदा लिखल बालेकुल जाइ छै। आ चूँकि उच्चारणमे आबि रहल छै तँए मात्रा सेहो गनल जाइत छै। एहन-एहन आर उदाहरण सभ अछि।
एहन अक्षर जकर अन्तमे “ह” केर उच्चारण होइक (हाए मख्तूली) लगभग कुल चौदहटा अक्षर उर्दू वर्णमालामे संस्कृत वर्णमालासँ लेल गेल छै। ई अक्षर सभ अछिख, घ, ङ, छ, झ,ठ,ढ,थ, ध,फ,भ, ल्ह,म्ह आ न्ह।
उर्दूमे ऐ शब्द सभकेँ एना लिखल जाइत छै--
क संग ह जोड़लापर ख
ग संग ह जोड़लापर घ
च संग ह जोड़लापर छ
ज संग ह जोड़लापर झ
ट संग ह जोड़लापर ठ
ड संग ह जोड़लापर ढ़
त संग ह जोड़लापर थ
द संग ह जोड़लापर ध
प संग ह जोड़लापर फ
ब संग ह जोड़लापर भ
ङ, ल्ह, म्ह आ न्ह स्वतंत्र रूपेँ लिखल जाइत छै।
आब अहाँ सभ देखि सकै छी जे देवनागरीमे तँ ख,घ इत्यादि लेल स्वतंत्र अक्षर आ तकर ध्वनि छै मुदा उर्दूमे एकरा लेल “ह” मिलाबए पड़ैत छै संगे संग ङ आदिक उच्चारणमे तँ “ह “छैके।आब जँ कोनो उर्दू शाइर “ह “फेंटाएल अक्षरक काफिया बनबै छथि तँ ओ उर्दूक उच्चारण परम्पराक अनुसार “ह “केर उच्चारण नै करै छथि। तँए उर्दूमे “बात “शब्दक काफिया “साथ “बनि सकै छै। कारण “साथ “मे जे “थ” छै तकर “ह” उच्चारणमे निकालि देल जाइत छै। आन-आन “ह “मिश्रित शब्दक काफिया लेल एनाहिते बुझू। ऐठाँ ईहो मोन राखू जे मात्रा सेहो उच्चारणक हिसाबसँ गानल जाइत छै उर्दूमे तँए जँ कोनो देवनागरी लिप्यंतरण बला पोथी केर अधार पर मात्रा निकालि रहल छी तँ गड़बड़ भए सकैए। मूल उर्दू लिपि सीखू आ तकर उच्चारण सेहो तखने अहाँ उर्दू गजलक सही मात्रा पकड़ि सकै छी। उर्दू गजलमे अरबी-फारसी शब्दक बड्ड प्रयोग कएल जाइत छै ओहो मूल रूपमे। मुदा ओकर देवनागरी लिप्यंतरण दोसर रूपमे भऽ जाइत छै। एकटा उदाहरण देखू अरबीमे शब्द छै “तमईज” एकर मात्रा क्रम भेल 221 मुदा देवनागरीमे एकर लिखित रूप छै “तमीज “जकर मात्रा क्रम अछि 121, आब मानू जे कोनो उर्दू शाइर तमईज शब्दक प्रयोग केलाह मुदा देवनागरी मे ई भऽ गेलै तमीज आ तखन जे अहाँ गिनती कए कहबै जे गजलमे बहर नै छै से कते उचित? तँए कहलहुँ जे मूल उर्दू लिपि आ उच्चारण सीखू। सङ्गे-सङ्ग ईहो मोन राखू जे उर्दूमे जखन हिन्दी वा ब्रजभाषा वा अवधी आदिक क्रियापद आबै छै (जेना “तेरा, मेरा, से “) तँ उर्दू लिपि केर कारण ओकरा दीर्घ वा ह्रस्व दूनू तरहें पढ़ल जाइत छै ।
एकटा आर गप्प उर्दूमे मात्र गजले नै छै। आर विधा छै आ सभ विधा गजल गायक द्वारा गाएल गेल छै तँ ओहि अधारपर ई निर्णय नै करू जे गजलमे बहर नै होइ छै।
2) वर्तमान सभ भारतीय भाषा लिपि बामसँ दहिन लिखल जाइत अछि मुदा उर्दू दहिनासँ बाम। तेनाहिते देवनागरीमे शब्द रचना काल अक्षरक स्वरूप नै बदलै छै मुदा उर्दूमे बदलि जाइत छै। ऐकेँ अतिरिक्तो आन-आन अंतर छै जे व्यवहारिक स्तरपर बूझल जा सकैए।
आब हमरा पूरा विश्वास अछि जे अहाँ सभ ओहि आदमी जकाँ भ्रमित नै हएब। एक बेर फेर मोन राखू जे देवनागरीक अलग-अलग ध्वनि लेल अलग-अलग अक्षर छै (गाम घरक उच्चारणमे स, श आदि एकसमान उच्चारण होइत छै जकर विवरण आगू देल जाएत) मुदा उर्दूमे नै तँए देवनागरी (मिथिलाक्षर)मे “त “केर काफिया “थ “नै बनि सकैए वा “प “केर काफिया “फ “नै बनि सकैए।
काफियापर चरचा शुरू करऽ कालमे हम कहने छलहुँ जे संस्कृतमे काफिया वा अंत्यानुप्रास नै छलै मुदा अरबीमे शुरूआतेसँ काफिया भेनाइ अनिवार्य छै।। आब किछु गोटे कहबे करता जे तखन मैथिली गजल लेल काफिया किएक अनिवार्य अछि। संस्कृते जकाँ बिना अंत्यानुप्रासक गजल लिखल जाए आदि-आदि। ऐ प्रश्नक उत्तर देबऽसँ पहिने हम संस्कृतक वैदिक काव्य, लौकिक काव्य, प्राकृत ओ अप्रभंश काव्यक किछु उदाहरणकेँ देखाबऽ चाहब। तँ पहिने देखी वैदिक काव्यकेँ---

ॠगवेद (प्रथम मंडल. अथ प्रथमोऽष्टकः,प्रथमोऽध्यायः, वर्गाः137, ॠषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः छन्द गायत्री, देवता अग्नि)
1) ॐ अग्निमीले पुरोहितमं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्

2) अग्निः पूर्वेभिॠषिभिरीड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति

वाजसनेयिमाध्यन्दिनशुक्ल

यजुर्वेदसंहिता
अथ प्रथमोऽध्यायः

1) ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या ऽ इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवा ऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽ ईशत माघश थ्ंऽ सो ध्रुवाऽ अस्मिन गोपतौ स्यात बह्रीर्यजमानस्य पशून्पाहि।

2) वसोः पवित्रमसि द्दौरसि पृथिव्यासिमातरिश्वनो घर्मोऽसि विश्वधाऽ असि। परमेण धाम्नाः दृ थ्ंऽ हस्व मा ह्रार्मा ते यज्ञपतिहर्षीत्

अथर्ववेदसंहिता अथ प्रथमं काण्डम्मेघाजनन सूक्त
ॠषि अथर्वा, देवतावाचस्पति, छन्द अनुष्टुप चतुष्पदा विराट् उरोबृहती

1) ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः

वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे

2) पुनरेहि वाचस्पते देवेन मनसा सह। वसोष्पते नि रमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम्

सामवेद संहिता

पूर्वार्चिकःआग्नेयं काण्डम्अथ प्रथमोऽध्यायः अथ प्रथमप्रपाठके प्रथमोऽर्धः

(1सँ 10 धरिक, 1,2,4,7,9 भरद्वाजो बार्हस्पत्यः,3 मेघातिथिः काणवः, 5 उशनाः काव्यः,6 सुदीतिपरुमीढावाङ्गिरसौ तयोर्वान्यतरः, 8 वत्स काणवः,10 वामदेवः) देवता अग्नि, गायत्री छन्द

1) अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि

2) त्वमग्ने यज्ञाना होता विश्वेषा हितः देवेभिर्मानुषे जने

3) अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्

4) अग्निवृत्रानणि जङ्घनद्दविणस्युवर्पपन्यया समिद्धः शुक्र आहुतः

कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता केर रुद्र नमकम् केर किछु मंत्र देखू---

नमो॒ हिर॑ण्य बाहवे सेना॒न्ये॑ दि॒शां च॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यः पशू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ स॒स्पिञ्ज॑राय॒ त्विषी॑मते पथी॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ बभ्लु॒शाय॑ विव्या॒धिने‌உन्ना॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ हरि॑केशायोपवी॒तिने॑ पु॒ष्टानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भ॒वस्य॑ हे॒त्यै जग॑तां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ रु॒द्राया॑तता॒विने॒ क्षेत्रा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सू॒तायाहं॑त्याय॒ वना॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ रोहि॑ताय स्थ॒पत॑ये वृ॒क्षाणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ म॒न्त्रिणे॑ वाणि॒जाय॒ कक्षा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भुव॒न्तये॑ वारिवस्कृ॒ता-यौष॑धीनां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ उ॒च्चैर्-घो॑षायाक्र॒न्दय॑ते पत्ती॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ कृत्स्नवी॒ताय॒ धाव॑ते॒ सत्त्व॑नां॒ पत॑ये॒ नमः॑ ॥ 2 ॥
उपरक मंत्रमे- (नमो॒ हिर॑ण्य बाहवे सेना॒न्ये॑ दि॒शां च॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑) पहिल पाँति अछि आब दोसर पाँति (वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यः पशू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑) देखू आ दूनूकेँ मिलाउ। अंतसँ दूनू पाँतिमे(पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑) उभयरूपसँ अछि आ “दि॒शां”  एवं “पशू॒नां”  दूनू शब्दमे तुकांत छै। एनाहिते सभ पाँतिमे मिलाउ सभमे तुकांत भेटत। आब फेर एनाहिते निच्चाक मंत्रमे तुकांतक मिलान करू--
नमः॒ सह॑मानाय निव्या॒धिन॑ आव्या॒धिनी॑नां॒ पत॑ये नमो॒ नमः॑ ककु॒भाय॑ निष॒ङ्गिणे॓ स्ते॒नानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निष॒ङ्गिण॑ इषुधि॒मते॑ तस्क॑राणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ वञ्च॑ते परि॒वञ्च॑ते स्तायू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निचे॒रवे॑ परिच॒रायार॑ण्यानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सृका॒विभ्यो॒ जिघाग्ं॑सद्भ्यो मुष्ण॒तां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑‌உसि॒मद्भ्यो॒ नक्त॒ञ्चर॑द्भ्यः प्रकृ॒न्तानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ उष्णी॒षिने॑ गिरिच॒राय॑ कुलु॒ञ्चानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॒ इषु॑मद्भ्यो धन्वा॒विभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नम॑ आतन्-वा॒नेभ्यः॑ प्रति॒दधा॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॑ आ॒यच्छ॒॑द्भ्यो विसृ॒जद्-भ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो‌உस्स॑द्भ्यो॒ विद्य॑द्-भ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒ आसी॑नेभ्यः॒ शया॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ स्व॒पद्भ्यो॒ जाग्र॑द्-भ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒स्तिष्ठ॑द्भ्यो॒ धाव॑द्-भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ स॒भाभ्यः॑ स॒भाप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ अश्वे॒भ्यो‌உश्व॑पतिभ्यश्च वो॒ नमः॑ ॥ 3 ॥

स्पष्ट अछि जे वेदमे अनजान-सुनजानमे तुकांतक प्रयोग भेल अछि। तुकांतक आन उदाहरण चमकम् मंत्रमे सेहो ताकल जा सकैए।

आब आउ लौकिक संस्कृत काव्यक उदाहरणपर--

अथ अर्गलास्तोत्रम्

।।ॐ नमश्वण्डिकायै।।

मार्कण्डेय उवाच

ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ।। 1।।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।। 2।।

मधुकैटभविद्रावि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। 3।।

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। 4।।


कल्याणवृष्टिस्तवः

कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभिर्लक्ष्मीस्वयंवरणमङ्गळदीपिकाभिः।
सॆवाभिरम्ब तव पादसरोजमूलॆनाकारि किं मनसि भाग्यवतां जनानाम्॥1॥

एतावदॆव जननि स्पृहणीयमास्तॆत्वद्वन्दनॆषु सलिलस्थगितॆ च नॆत्रॆ।

सान्निध्यमुद्यदरुणायुतसोदरस्यत्वद्विग्रहस्य परया सुधया प्लुतस्य॥2॥

आदि शंकराचार्य (ऐ काव्यक मात्र दूटा श्लोक हम प्रस्तुत केलहुँ)

भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे।। 1।।

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां कुरू सद्बुद्धिं मनसिवितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम्।। 2।।

नारीस्तनभर नाभीदेशं दृष्ट्रवा मा गा मोहावेशम्।
एतन्मांसावसादि विकारं मनसि विचिन्तय वारं वारम्।।3।।

नलिनीदलगत जलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशक्वपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् ।। 4।।


श्री ललिता पञ्चरत्नम्

 प्रातःस्मरामि ललितावदनारविन्दंबिम्बाधरं पृथुलमौक्तिकशोभिनासम्।
आकर्णदीर्घनयनं मणिकुण्डलाढ्यंमन्दस्मितं मृगमदोज्ज्वलफालदॆशम्॥1॥

 प्रातर्भजामि ललिताभुजकल्पवल्लींरक्ताङ्गुळीयलसदङ्गुळिपल्लवाढ्याम्।
माणिक्यहॆमवलयाङ्गदशोभमानांपुण्ड्रॆक्षुचापकुसुमॆषुसृणीर्दधानाम्॥2॥

आदि शंकराचार्य (ऐ काव्यक मात्र दूटा श्लोक हम प्रस्तुत केलहुँ)

त्रिपुरसुन्दर्यष्टकम्

 कदम्बवनचारिणीं मुनिकदम्बकादम्बिनींनितम्बजितभूधरां सुरनितम्बिनीसॆविताम्।
नवाम्बुरुहलोचनामभिनवाम्बुदश्यामलांत्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुन्दरीमाश्रयॆ॥1॥

कदम्बवनवासिनीं कनकवल्लकीधारिणींमहार्हमणिहारिणीं मुखसमुल्लसद्वारुणीम्।
दयाविभवकारिणीं विशदरोचनाचारिणींत्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुन्दरीमाश्रयॆ॥2॥

अन्नपूर्णा स्तुति

नित्यानंदकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी निर्धूताखिलघोरपापनिकरी प्रत्यक्षमाहॆश्वरी।
प्रालॆयाचलवंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी भिक्षां दॆहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णॆश्वरी॥1॥

नानारत्नविचित्रभूषणकरी हॆमाम्बराडम्बरी मुक्ताहारविडम्बमानविलसद्वक्षोजकुम्भान्तरी।
काश्मीरागरुवासिताङ्गरुचिरा काशीपुराधीश्वरी भिक्षां दॆहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णॆश्वरी॥2॥

आदि शंकराचार्य

नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुध्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय।

मंदाकिनी सलिल चन्दन चर्चितायनन्दीश्वर प्रमध नाथ महेश्वराय
मंदार पुष्प बहु पुष्प सुपूजितायतस्मै मकाराय नमः शिवाय।

शिवाय गौरी वदनार विंद सूर्याय दक्ष द्वार नासकाय
श्री नीलकंठाय वृष ध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय।

वशिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमादि मुनेन्द्र देवर्चित शेखराय
चंद्रार्क वैश्वनर लोचनाय तस्मै वकाराय नमः शिवाय

यक्ष स्वरूपाय जटा धराय पिनाक हस्तथाय सनातनाय
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय।

मधुराष्टकम्

अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरम् ।
हृदयं मधुरं, गमनं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरम् ।।1।।

 वसनं मधुरं, चरितं मधुरं, वचनं मधुरं वलितं मधुरम्,
चलितं मधुरं, भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।2।।

वेणर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ,
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।3।।

गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्,
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।4।।

करणं मधुरं, तरणं मधुरं, हरणं मधुरं, रमणं मधुरम्,
वमितं मधुरं, शमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।5।।

 गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा,
सलिलं मधुरं, कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।6।।

गोपी मधुरा लीला मधुरा, राधा मधुरा मिलनं मधुरम्,
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।7।।

गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा,
दलितं मधुरं, फलितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।8।।

 ॥इति श्रीमद्वल्लभाचार्यकृतं मधुराष्टकं सम्पूर्णम्॥


लिंगाष्टकम्

ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गम् निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् ।
जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥1॥

देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् कामदहम् करूणाकरलिङ्गम् ।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥2॥

सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥3॥

कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम् ।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥4॥

कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम् ।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥5॥

देवगणार्चितसेवितलिङ्गम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम् ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥6॥

अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम् ।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥7॥

सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गम् सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम् ।
परात्परं परमात्मकलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥8॥

लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥

जयदेव कृत गीत-गोविन्दक एकटा गीत--

चंदन-चर्चित-नील-कलेवर-पीतवसन-वनमालिन् ।
केलि-चलन्मणि-कुंडल-मंडित-गंडयुग-स्मितशालीन् ।।

चंद्रक-चारु-मयूर-शिखंडक-मंडल-वलयित-केशम् ।
प्रचुर-पुरंदर-धनुरनुरंजित-मेदुर-मुदिर-सर्वेषम् ।।

संचरदधर-सुधा-मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशम् ।
वलित-द्रगंचल-चंचल-मौली-कपोल-विलोलवतंसम् ।।

हारममलतर-तारमुरसि-दधतं परिरभ्य विदूरम् ।
स्फुटतर-फेन-कदंब-करंबितमिव यमुना जल पूरम् ।।

आब आउ प्राकृत-अप्रभंश काव्यपर---

गहणं गइंदणाहो पिअविरहुम्माअपअलिअ विआरो
विसइ तरुकुसुम किसलअ भूसिअणिअदेहपव्भारो

आर्या वा गाथा छंद

कालिदास (विक्रमोर्वशीय त्रोटक) समय प्रथम शती ई.पू. चतुर्थ शती

विहरानल जाल करालिअउ पहिउ कोवि बुड्डिबि ठिअओ
अनिसिसिरकालि सअलजलहु घूमु कहन्तिहु उट्ठिअओ

उल्लाला छंदक कपूर नामक उपभाग

हेमचंद्र (प्राकृत व्याकरण)

त जिणभवणु णिएबि धवलत्तुंगु विसालु
वियसियवयणरविदुं मणिपरिओसिउ बालु

धनवाल (भविसयत्तकहा)

कत न कलावति नारि आ रे
अत सुविह नित रूप बटोरि आ रे

सबे सरीर मोर आ रे
तथिहि मुखमण्डल मोरा आ रे
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आगम वेद किछु किछु जानिअ
परक वित्त धन्धि घर आनिअ
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अरे रे सनातक तोरिहि कुमान्ति
अनङ्गसेना हरि लेल असंजाति

कतए विचार कराओल आनि
जन्हिक चरित सुन मूलनाशक जानि

हेरित हि हरि धन लए गेल चोर
हाथक रतन हेराएल मोर

मैथिली धूर्तसमागम (ज्योतिरीश्वर)

अरु पुरिस पसंसओ राय गुरु कित्ति सिंह गएणेस सुअ
जे संतु समर सम्मद्दि कहु वप्प वैर उद्दरिय धुअ

विद्यापति (कीर्तिलता)
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कनकभूधर शिखर वासिनी,चन्द्रिकाचय चारू हासिनी
दसन कोटि विकास बंकिम, तुलित चंद्रकले ........./

क्रुद्धसुररिपु  बल निपतिनी, महिष सुम्भ निशुम्भ घातिनी
भीत भक्त भायापनोदन, पाटब  प्रबले .......//1 //

जय देवी दुर्गे दुरित तारी, दुर्गमारी विमर्द  कारिणी
भक्ति नम्र सूरासूरा धिप, मंगला प्रवरे

गगन  मंडल गर्भ गाहिन समर भूमिषु सिंहवाहिनी
परशुपाश कृपाण, सायक शंकचक्र  धरे // 2 //

अष्ट भैरवी  संगशालिनी, स्वकरकृत कपाल मालिनी
दनुज  शोणित *पिशित वर्धित, पारना रभसे

संसार बन्धनिदानमोचिनी, चन्द्र  भानु कुशाणु  लोचिनी
योगनी गण गीत शोभित नृत्य भूमि रसे ...........// 3 //

जगति  पालन  जनन  मारण, प कार्य सहस्त्र कारण
हरि विरंचिमहेश शेखर, चुम्बयमानपदे

सकल  पापकला, परि च्युति सुकवि  विद्यापति  कृत स्तुति
तोषिते शिव सिंह  भूपति  कामना फल दे
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बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे.

छोड़इत निकट नयन बह नीरे।..                                                                                                                                                                         नोरि बिलमओ बिमल तरंगे.                                                                                                                                                                               पुनि दरसन होए पुनमति गंगे। .                                                                                                                                                                             क अपराध घमब मोर जानी।

परमल माए पाए तुम पानी।।                                                                                                                                                                                कि करब जपतप जोगधेआने।

जनम कृतारथ एकहि सनाने।।

भनई विद्यापति समदजों तोही।

अन्तकाल जनु बिसरह मोही।।

विद्यापति

(नव शोधक अधारपर अवहट्ट बला आ पदावली बला विद्यापति भिन्न छथि। मुदा हमर उद्येश्य ऐठाम मात्र तुकान्त देखाएब अछि।)

मेष मीन तिअ दण्डा दीस
ता उप्परि दिअ पल अठतीस
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मिथुन मकर पल तीनि गुनू
कर्कट तेंतालिस धनू
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नवमी चौठि चौदिशि भउ पोड़े
पड़िब एकादशि छठिक बिजोड़े
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पक्ष विराड़ा सिंह सुनइ अहि मूसा गज मेष
अचे हले दुहुकरसे गुणि वर गपमान उलेख

विशुद्ध डाक वचन

वन्दनेवार धएल ठाम ठाम, भगत नगर एहे गुण अभिराम।
वेद मङ्गल धुनि अहनिस होह, दिनकर किरण धरब धओने होइ।

धरम करम सबका थिर नीति, तें फले काहुक होअ न भीति।
त्रिभुवन जननी करथि निवास, अचिरेहि देथि सबक अभिलास।

भनइ वंशमणि हे जगदम्बे, नृप जगजोति मन पुर अविलम्बे।
(जगज्ज्योतिर्मल्ल कृत हरगौरी विवाह नाटकमे संकलित आ वंशमणि द्वारा विरचित)

उपरका उदाहरण सभकेँ दू भागमे बाँटू पहिल संस्कृत आ दोसर प्राकृत-अप्रभंश। संस्कृतक सभ वेदक उदाहरणमे तुकान्त अनजान-सुनजानमे प्रयोग भेल अछि। जखन अर्गला-कीलक स्त्रोतपर आएब तँ तुकान्त हुलकी मारैत बुझाएत आ शंकराचार्य लग अबैत-अबैत तुकान्त फरिच्छ भऽ जाइत अछि आ गीत-गोविन्दमे तँ पूरा-पूरी तुकान्त छैहे। चूँकि तुकान्त प्राकृत भाषामे महत्वपूर्ण तत्व रहल अछि आ आदि शंकराचार्यसँ पहिने प्राकृत भाषा विकसित भऽ गेल छल तँए ई तुकान्त आदिशंकराचार्यजीकेँ स्वाभाविक रूपसँ भेटल आ जयदेवजीक लेल ई अनिवार्य बनि गेल (ओना ऐठाम ई धेआन राखब बेसी जरूरी जे वैदिक छंद सभ प्रायः एक पाँति होइत छै (वर्तमान अधारपर) तँए ओइमे तुकान्तक बेसी जरूरति नै छलै मुदा जेना-जेना पाँतिक संख्या बढ़ैत गेल तुकान्त जरूरति बुझना गेलै)।  जेना की हमरा लोकनि जानै छी जे वैदिक काव्यमे अक्षर जनित छंद छल जकरा सरल वार्णिक छंद सेहो कहल जाइत अछि। बादमे संस्कृत जखन परिनिष्ठित भेल तखन वार्णिक छंद आएल जैमे हरेक पाँतिक मात्राक्रम (मात्राक्रम ) एक रहनाइ अनिवार्य भेल। वार्णिक छंद अपना-आपमे कठिन छै तँए लोकमे ई ओतेक प्रचलित वा लोकप्रिय नै भऽ सकल।मुदा लोक तँ लोक अछि ओ अपन अभिव्यक्ति छोड़त कोना? आ तँए लोकमे प्राचीन तालवृत छंद फेरसँ जोर पकड़लक। आब ई तालवृत छंद की भेल से कने आगू जा कऽ हम सभ देखब। ऐ छंदसँ पहिने संगीतक प्रारंभिक जानकारी ली। संगीतमे दू टा तत्व प्रमुख छै पहिल स्वर आ दोसर ताल। स्वर संगीत मुख्यतः आरोह-अवरोहपर अधारित रहै छै। संस्कृतक शिक्षित वर्ग स्वरकेँ प्रमुखता देलक तँ जन समान्य तालकेँ । स्वर निर्धारण लेल नाना प्रकारक छंद बनल जैमे सरल वार्णिक आ वार्णिक दूनू अबैए। तालवृत छंद लेल मात्र ताल बराबर भेनाइ अनिवार्य अछि। मने हरेक पाँतिमे चाहे अक्षर बराबर हो की नै हो, लघु-गुरू हरेक पाँतिक बराबर हो की नै मुदा हरेक पाँतिक ताल बराबर भेनाइ जरूरी अछि। तालवृत छंदमे कोनो शब्दक कोनो वर्णक उच्चारण नहियो भऽ सकैए। तालवृत छंदमे विराम आ प्लुत केर महत्व अछि। ऐमे शब्दककेँ विशुद्ध उच्चारण अनिवार्य नै अछि। तालवृतमे दीर्घक उच्चारण लघु भऽ सकैए आ लघु केर उच्चारण दीर्घ भऽ सकैए। जेना तालवृतक हरेक पाँतिक तालगण समान रहनाइ जरूरी छै तेनाहिते वैदिक छंदक हरेक पाँतिमे समान अक्षर हेबाक चाही तेनहिते वार्णिक छंदक हरेक पाँतिमे मात्राक्रम समान भेनाइ जरूरी छै। मैथिलीक सभ प्राचीन लोकगीत तालवृत छंदपर अधारित अछि। तालवृत छंदमे हरेक पाँतिक लय मिलबाके टा चाही तँए तालवृतमे तुक कहियौ, तुकान्त कहियौ, अन्यानुप्रास कहियौ की काफिया कहियौ एकर भेनाइ अनिवार्य अछि। एही तुकान्त निर्वाहक कारणे तालवृत बहुत बेसी लोकप्रिय भेल आ ई परवर्ती संस्कृत धरिकेँ बदलि देलक। बादमे आदि शंकराचार्य अपन सभ स्त्रोत सभमे तुकान्तक प्रयोग केला। आ जेना-जेना समय बितैत गेल संस्कृत काव्य तुकान्त होइत गेल। व्याकरणमे अंत्यानुप्रास सन अलंकारक जन्म भेल आ जयदेव रचित गीत गोविन्दम् सन काव्यकेँ जे मात्र सुमधुर ललित शैली आ अंत्यानुप्रासक कारणे संस्कृतमे विश्वविख्यात भेल। तालवृत छंदक ईहो एकटा बड़का विशेषता अछि जे ई गायकपर निर्भर अछि मने जँ एकटा गायक कोनो दू टा पाँतिकेँ अष्टमात्रिक तालमे बान्हि गेला तँ दोसर ओकरा सप्तमात्रिक तालमे सेहो बान्हि सकै छथि। तँए लौकिक संस्कृतक अन्तमे आ प्राकृतक जन्मसँ तुकान्त केर काव्यमे बहुत महत्व अछि आ जेना-जेना समय आगू बढ़ल तुकान्त बिनु काव्यक परिकल्पना असंभव भऽ गेल। पाठक ओ जनता तुकान्तयुक्त काव्यकेँ बेसी मान देलक कारण तुकान्तयुक्त काव्य कर्णप्रिय होइत अछि। प्राकृतक ई गुण अनायास रूपें अप्रभंशमे आएल आ चूँकि अप्रभंशसँ मैथिली सहित आन आधुनिक भारतीय भाषा बनल अछि तँ एहू सभमे तुकान्त अनिवार्य भेल। गएबा कालमे तालवृत छंद हरेक छंद (वैदिक, वार्णिक आ मात्रिक छंदपर) लागू भऽ सकैए। ओना वैदिक छंद ओ वर्णवृत लेल स्वर-संगीत अनिवार्य अछि। तथापि कोनो गायक ओकरा तालवृतमे सेहो गाबि सकै छथि। तालवृतकेँ मैथिलीमे भास कहल जाइत छै हमरा ज्ञानक हिसाबसँ। बूढ़-पुरान गितगाइन सभ एखनो कहै छथि जे ऐ गीतक भासे नै चढ़ि रहल अछि, एकर मतलबे भेलै जे उक्त गीतक तालवृत बराबर नै बैसि रहल छै। तालवृत छंदक किछु उदाहरण देखू--

भादब हे सखी रैनि भेयाओन
दोसरे अन्हरिया  के राति यौ

राति दुख सुख संगहि खेपब
लेसब दीप अकास यौ

ऐ बरहमासाक चारि पाँतिक अध्ययन केलासँ ई पता चलत जे पहिल पाँतिमे 19 मात्रा (जँ न्ह बला नियम नै मानी तँ 18)टा मात्रा अछि। दोसर पँतिमे 18 मात्रा, तेसर पाँतिमे 15 आ चारिम पाँतिमे 13 टा मात्रा अछि। चूँकि गायनमे न्हसँ पहिने बला स्वतः दीर्घ होमए लगैत अछि तँए हम पहिल पाँतिमे 19 मात्रा मानि रहल छी।

आब आउ देखू एकर तालवृत-

भादब हे सखी रैनि भेयाओन
दोसरे अन्हरियाx  के राति यौ

राति दुxxख सुxxख संगहि खेपब
लेसब दीxxxप अxxxकास यौ

दोसर उदाहरण देखू-

काली के देखलहुँ सपनमा
से ठाड़े अँगनमा

केओ नीपे अगुआर माँ के
केओ नीपे पछुआर माँ के
केओ नीपे काली के भवनमा....

पहिल पाँतिमे 16, दोसरमे 11, तेसर आ चारिममे 17-17 एवं पाँचम ओ अंतिम पाँतिमे 19 मात्रा अछि। आब आउ देखू एकर तालवृत--

काली के देखलहुँ सपनमा
सेxx ठाड़ेx अँगनमाxx

केओ नीपे अगुआर माँ के
केओ नीपे पछुआर माँ के
केओ नीपे काली के भवनमा...

तेसर पाँतिक अगुआर शब्दक “आ” पर विराम अछि तेनाहिते चारिम पाँतिक पछुआर शब्दक “आ” पर विराम अछि। अंतिम पाँतिक केओ शब्दक ओ, नीपे शब्दक पे, एवं काली शब्दक “ली” पर विराम अछि। फलस्वरूप हरेक पाँति 16 तालमात्रिक रचना बनि गेल अछि। प्रस्तुत ऐ गीत सभहँक गायन सुनबा लेल विदेह आडियो केर ऐ लिंकपर जाउ— http://sites.google.com/a/videha.com/videha-audio
संगीतमे x चिन्ह ताल लेल प्रयोग कएल जाइत छै। तँ ऐ उदाहरण देखि रहल छी जे चारू पाँतिमे ने तँ मात्रिक छंद छै ने वार्णिक आ ने वैदिक मुदा पाँतिक बीच-बीचमे रेघा कऽ वा ताल दऽ कऽ वा विराम लऽ कऽ सभ पाँतिके पूरा कएल गेल छै। इएह तालवृत कहबै छै। गीत मुख्यतः तालवृतक अनुगामिनी अछि ताहूमे मैथिलीक सभ प्राचीन गीत आ लोकगाथा सभ तालवृत छंदक सुदंर उदाहरण अछि। जँ कोनो- कोनो गीतमे आन छंदक लक्षण अबैए तँ ओकरा मात्र संयोग बुझू। ओना हम पहिने कहि चुकल छी जे सभ छंदोबद्ध रचना गेय होइत अछि।  तालवृत छंद आ वैदिक छंदमे मात्र एकैटा अन्तर छै बाद-बाँकी दूनू एकै अछि आ एही एक अंतरक कारणे एकटा स्वर संचालित भेल तँ दोसर ताल संचालित। आब हम पाठक सभसँ अनुरोध करब जे ओ सभ हिसाबसँ तालवृतक आन-आन उदाहरण ताकथि। आब ऐ पाँति धरि अबैत-अबैत पाठक स्वतः बूझि गेल हेता जे प्राचीन संस्कृत काव्यमे अंत्यानुप्रास नहियो रहैत आधुनिक भारतीय भाषाक गजलमे काफियाकेँ किएक अनिवार्य मानल गेल छै। आ तँए मैथिली गजल लेल सेहो काफिया अनिवार्य अछि। ओनाहुतो जँ अरबी गजलमे काफिया अनिवार्य छै तँ ई गजलक लेल अनिवार्य भेल। ई लेख मात्र परंपरा जनित ज्ञान लेल लीखल गेल अछि। खाली प्राचीने कालमे ई तालवृत छल से गप्प नै आधुनिक कालक मैथिलीक पहिल जनकवि श्री रामदेव प्रसाद मंडल झारूदार एकटा नव छंदक जन्म दऽ ओकरा विकसित केलाह जकर नाम थिक “झारू छंद “। ई झारू छंद हमरा जनैत तालवृतपर अधारित अछि। दूटा उदाहरण देखू--

भागि गेला अंग्रेज अकेला, छोरि कऽ पाछू ढेरो जाति
कर रंगदारी वसुल रहल अछि,मारि मारि कऽ सभकेँ  लाति

पहिल पाँतिमे 32 मात्रा आ दोसर पाँतिमे 31 मात्रा अछि एकरा तालवृतमे एना देखल जा सकैए

भागि गेला अंग्रेज अकेला, छोरि कऽ पाछू ढेरो जाति
कर रंगदारी वसुल रहल अछि, मारि मारि कऽ सभकेँx  लाति

आर एकटा उदाहरण लिअ-

हे भूमि कऽ भाग्य विधाता, जगक अदाता भगवान।
कहाँ पता तोरा सिबा छै केकरो, छूपल कतए छै खेतमे धान।

पहिल पाँतिमे 27 आ दोसर पाँतिमे 38 मात्रा। आब एकर तालवृत देखू--

हे भूxxxमि कऽ भाग्य विधाताxxx, जगक अदाxxता भगवाxxxन।
कहाँ पता तोरा सिबा छै केकरो, छूपल कतए छै खेतमे धान।

आब तालवृतसँ संचालित भऽ दूनू पाँतिमे 38-38 तालमात्रा भऽ गेल।

हुनक प्रकाशित पोथी “हमरा बिनु जगत सुन्ना छै “अनेको झारू छंद अछि जकरा पाठक सभ विदेह पोथी डाउनलोडसँ फ्रीमे डाउनलोड कऽ पढ़ि सकै छथि। झारूदार जी मात्र एकटा लेखक नै छथि बल्कि हमरा सभकेँ सिद्ध सरहपासँ लऽ कऽ आधुनिक कालक जे धार बनल अछि तकर दूनू घाटकेँ मिलेबाक लेल पूल सेहो छथि। ऐ ठाम हुनक पोथीक समीक्षा तँ नै कएल जा सकैए मुदा हमरा विश्वास अछि जे पाठक पोथीकेँ पढ़ता जरूर। आब पाठक सभ लग ई प्रश्न अबैत हेतन्हि जे की तालवृतमे गजल भऽ सकैए? हमर उत्तर हएत जे आने छंद जकाँ एकर गायन मात्र तालवृतमे संभव अछि रचना वा लिखित रूप पूर्ववते रहत।

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