लागल छै अगराही शहर मे चलि क' देखलिय.
इक्किसवीं सदिं मे घर सं निकलि क'देखलिय.
बात दोसरक करी ई कोनो निक गप्प नहीं,
दोसर सं पहिने अपने कांट प'चलि क'देखलिय.
नहि कियो दोस्त नहि दुश्मन एही दुनियां मे,
मनुष्य मात्र चेतन अछी मन के बदलि देखलिय.
ई कोनो खेल नहि बालू केर जिनगी जी लेव एहिना,
लगे शर्त प' शर्त तं सिक्का उछालि क' देखलिय .
एहि दुनियां के सम्हारी क' आहा की देखबैन ,
देखबाक हुए "दीपक"तं स्वयं के सम्हारी क'देखलिय.
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गुरुवार, 15 सितंबर 2011
गजल
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