शनिवार, 17 सितंबर 2011

गजलक संक्षिप्त परिचय भाग-22

खण्ड-22

प्रिंट पत्रिकाक संपादक आ गजलकारसँ अपील

पहिने गजलकार सभसँ

कोनो पत्रिकाकेँ अपन गजल पठएबासँ पहिने ई देखू जे अहाँक गजल कोन बहरमे अछि। आ से देखि लेलापर तकर नाम लीखू आ संगे-संग ओहि बहरक मात्रा क्रम लिखबे टा करू। कारण अलग-अलग पत्रिकाक अलग-अलग वर्तनी आ ओहि हिसाबें प्रकाशित केने अहाँक गजलक बहर टूटि जाएत। एकरा हम एकटा उदाहरणसँ देखाएब। मानू जे अहाँ कोनो बहरक हिसाबसँ “कए “शब्दक प्रयोग केलहुँ जकर मात्रा क्रम छै 1+2 “ह्रस्व-दीर्घ” मुदा कतेको पत्रिका एकरा “कय” बना देताह जकर मात्रा क्रम छै 1+1 “ह्रस्व-ह्रस्व” वा 2 “दीर्घ” (दूटा लघु मिला एकटा दीर्घ)। तँ कतेको पत्रिका एकरा खाली “कऽ “वा “क “लीखि देताह जकर मात्रा क्रम छै 1 “ह्रस्व” । आब अहाँ अपने बुझि सकैत छी जे वर्तनी बदलने मत्रा क्रम टूटि जाएत। मने बहर टूटि जाएत आ गजल बेबहर भए जाएत। ऐठाम हम खाली एकटा शब्दक उदाहरण देलहुँ अछि मुदा अनेको शब्दपर ई लागू हएत। तँए गजलक संगे-संग बहरक नाम आ ओकर मात्रा क्रम जरूर लीखी। संगहि-संग गजल वा शेरो-शाइरीक अन्य विधा कोनो पत्रिकाकेँ पठबैत काल संपादक जीसँ ई आग्रह करू जे जँ हुनका अपन वर्तनीक हिसाबें गजल नै बुझान्हि तँ गजल नै छापथि। कारण जखन बहर टूटिए जेतै तँ ओ गजल बेकार। छपियो जाएत तँ कोनो कर्मक नै। जँ गजल सरल वार्णिक बहरमे अछि तैओ ई समस्या आएत। उदाहरण लेल मानू जे अहाँ “नहि “शब्दकेँ प्रयोग करैत एकटा गजल सरल वार्णिक बहरमे लीखि संपादक जीकेँ देलिअन्हि मुदा ओ संपादक जी अपन वर्तनीक हिसाबें ओकरा “नै “लीखि देलखिन्हि। मतलब जे सरल वार्णिक बहर सेहो टूटि गेल। तँए गजलकार सभसँ विशेष आग्रह जे ओ प्रिंट पत्रिकाक संपादककेँ अनिवार्य रूपें लिखथि जे जाहि स्वरूपमे गजल छै ताही स्वरुपमे गजल प्रकाशित हेबाक चाही नै तँ प्रकाशित नै करू।

आब प्रिंट पत्रिकाक संपादक सभसँ---

जँ संपादक महोदयमे कनियों बुझबाक शक्ति हेतन्हि तँ उपरका विवरणसँ हुनका गजलक संबंधमे व्यवहारिक समस्या बुझा जेतन्हि। तँए संपादक जी लेल हम विशेष नै लिखब।बस हमहूँ एतबे आग्रह करबन्हि जे अपन वर्तनीक पक्ष लए ओ गजलक संग बलात्कार नै करथि। जँ हुनका अपन वर्तनीकेँ रखबाक छन्हि तँ ओ गजलकेँ नै छापथि। या एकटा उपाय इहो भए सकैत छै जे ओ गजलकेँ छापथि आ संगे-संग ई नोट दए देथि जे “ई वर्तनी गजलकार विशेषक वर्तनी थिक, पत्रिकाक नहि” । अंतिकाक संपादक अनलकान्त जी अपन पत्रिकामे एहन नोट छापि लेखक विशेष आ अपन पत्रिका दूनूक वर्तनीक रक्षा केने छथि।
एकटा आर गप्प कविता जकाँ पाँतिकेँ सटा कए छापब गजल परंपराक विरुद्ध अछि। सङ्गे-सङ्ग एक पन्नाक दू भाग वा दू पन्नाक दू भागमे गजलकेँ छापब सेहो गजल परंपराक विरुद्ध अछि। एकटा गजल दए रहल छी राजीव रञ्जन मिश्र जीक जाहिसँ ई पता लागत जे एकटा गजलक विभिन्न शेरक बीचमे कतेक जगह रहबाक चाही---

गजल
कखनो किछु बात बुझल करू मोनक
धरकन दिन राति बनल करू मोनक

ई जे सिसकल तऽ लता पता सुनलक
आहाँ फरियाद सुनल करू मोनक

छोहक मारल तऽ घड़ी घड़ी तड़पल
मरहम बनि घाव भरल करू मोनक

कहबो ककरो जँ करब तऽ के बूझत
संगे बस मीत रहल करू मोनक

गाबी राजीव सदति गजल नेहक
ततबा धरि चाह सुफल करू मोनक
2222 112 1222
शीर्षक दऽ कऽ गजल छापब बेकार कारण गजलक शीर्षक नै होइ छै। चूँकि एकटा गजलमे जतेक शेर होइ छै ओतेक विषय रहैत छै गजलमे तँए शीर्षक देबाक परंपरा नै छै। हम अपन एकटा गजल दए रहल छी जाहिसँ ई स्पष्ट हएत जे ऐ तरीकासँ गजल नै प्रकाशित हेबाक चाही---
गजल

ओकर हाथसँ छूल अछि देह
सदिखन गम गम फूल अछि देह
प्रेमक उच्चासन मिलन छैक
दू टा घाटक पूल अछि देह
कोना चलि सकतै गुजर आब
देहक तँ प्रतिकूल अछि देह
गेन्दा सिंगरहार छै मोन
चम्पा ओ अड़हूल अछि देह
ऐठाँ अनचिन्हार चिन्हार
सभ देहक समतूल अछि देह
मात्रा क्रम 222221221 हरेक पाँतिमे
ऐ तरीकासँ छापब गलत थिक। एहन रूपसँ गजल प्रकाशित करब परम्परा विरुद्ध अछि। गजलमे सदिखन दूटा शेरक बीचमे जगह हेबाक चाही। ओना हिन्दीमे सेहो कविता जकाँ पाँति सटा कऽ गजल प्रकाशित कएल जाइत छै मुदा एकर मतलब नै जे दोसर इनारमे खसत तँ हमहूँ सभ खसि पड़ब।
एकटा दिक्कत जे कि शाइर आ संपादक दूनू दिससँ अबैए ओ थिक दू शब्दक बीचक जगह। मात्राक्रमक हिसाबसँ कोनो पाँति छोट नहमर भऽ भऽ सकैए (खाली मात्राक्रम बराबर हबाक चाही)। आब शाइर वा संपादक दू शब्दक बीचक जगह बढ़ा कऽ छोट पाँतिकेँ नमहर पाँतिक बराबर कऽ दै छथि। आब हमरा ई नै बुझाइए जे आखिर कागजपर पाँति बराबर कऽ देलासँ मात्राक्रम कोना बराबर भऽ जेतै। वास्तवमे ई किछु एहन संपादकक अज्ञानताक सूचक थिक जे कि बराबर पाँति बला दू पाँतिक रचनाकेँ गजल मानि लै छथि।

गजलक भाषा
चूँकि गजलकेँ प्रेमी-प्रेमिका (आत्मा-परमात्मा)क गप्प-सप्प सेहो मानल जाइत छैक। आ गप्प-सप्प सदिखन गद्यमे होइत छैक तँए गजल लेल गद्यात्मक भाषा हेबाक चाही। एहि स्तर पर ई संस्कृत काव्यसँ बिलकुल अलग अछि। जे गजल जतेक गद्यात्मक हएत ओ ओतेक बेसी नीक हएत। भाषाक संबंधमे एकटा आर गप्प हरेक भाषाक दूटा रूप होइत छैक पूर्ण आ अपूर्ण। मैथिलीओमे छैक, किछु उदाहरण देखू--
पूर्ण रूप ---अपूर्ण रूप
नहि--नै
जाहिठाम---जैठाम
कतेक--कते
हेतैक---हेतै
एहि ---ऐ, अइ
गजलक संदर्भ मे हमर ई अनुभव अछि जे अपूर्ण भाषा गजल लेल बेसी नीक। कारण भाषाक अपूर्ण रूप लोकमे उच्चरित होइत छैक आ गजल तँ पूरा-पूरी उच्चारण पर निर्भर छैक। तँए जे तेजी अहाँकेँ “नै हेतै” वाक्य खंडमे भेटत ततेक तेजी “नहि हेतैक” वाक्य खंडमे नहि भेटत। मने गजल जँ लोक भाषामे रचल जाए तँ बहुत बेसी सफल हएत। धोती-चानन-टीका बला भाषा गजल लेल उपयुक्त नै अछि। तथापि जे कियो धोती-चानन-टीका बला भाषामे लिखै छथि ओ खराप काज नै छै। अन्तर मात्र एतबे जे धोती-चानन-टीका बला भाषाक गजल लोकक जीहपर चढ़त की नै से देखबाक योग्य। हम अपन गजलमे अपूर्ण रूपकेँ प्रधानता देने छी। पूर्ण रूपकेँ प्रयोग हम खाली वर्ण आ मात्रा मिलेबाक लेल करैत छी। आ गजले किए हम अपने एही पोथीमे दूनू तरहँक वर्तनीकेँ प्रयोग केने छी।
संस्कृतमे विराम चिन्ह नै होइ छै चाहे ओ गद्य हुअए की पद्य। भारतीय भाषामे विराम चिन्ह अंग्रेजीसँ आएल अछि। हमरा जनैत विराम चिन्ह गद्य लेल उपयुक्त भऽ सकैए मुदा पद्य लेल नै। कारण पद्य सदिखन गायन वा आवृति लेल रचल जाइत छै। आ गायक वा आवृतिकार पद्यकेँ सोझे गेता वा आवृति करताह। गायन वा आवृतिमे विराम चिन्हक प्रयोग श्वासक ठहराव आ स्वरक अदला बदलीसँ होइत छै तँए हमरा हिसाबें गजल सहित आन सभ पद्य विधामे (छन्द युक्त)मे विराम चिन्ह प्रयोग नै हेबाक चाही। हिन्दी बला सभ करै छथि तँ करऽ दिऔ। हमरा सभकेँ नकलची नै बनबाक अछि।
मैथिलीमे अवधी, ब्रजभाषा आदिक  प्रभावें रस, रीति आ अलंकार आदिपर बहुत चर्चा भेलै मुदा ऐ सभहँक कारणें वाक्य असंतुलित होइत गेलै मने वाक्य केर स्वाभाविकता मरैत गेलै। मुदा अरबी-फारसी-उर्दूमे लोक जेहन अपन घरमे बाजैए ओकर शाइर ठीक ओहने वाक्यसँ शाइरी रचैत अछि तँए शेर-ओ-शाइरी सभहँक जीहपर चढ़ि जाइए मुदा मैथिलीक निज काव्य विधा जीहसँ खसि पड़ैत अछि मने लोक जल्दिए बिसरि जाइत छै। संस्कृतक एकटा प्रसिद्ध वाक्य थिक “गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति” । लोक एकर मतलब निकालै छथि जे कवि लेल गद्य लिखब आवश्यक कारण पद्यमे छंदक हिसाबसँ तोड़-ममोड़ तँ भऽ सकैए मुदा गद्यमे नै। मुदा ई सटीक नै। हमरा हिसाबें एकर गलत अर्थ लगाओल गेल छै। एकर अर्थ एना हेबाक चाही “पद्यमे जे कवि जतेक बेसी स्वाभिक रूपसँ गद्यक प्रयोग कऽ सकता सएह हुनक पद्य लेल निकष हेतनि” । हमरा बूझल अछि ई काज बहुत कठिनाह छै तँए एकरा मानए लेल  कवि तैयार नै हेता। गद्यकार तँ अपनाकेँ एही बलें महान मानै छथि हुनका तैयार हेबाक तँ कोनो सवाले नै।
ऐठाम कने रुकि कऽ मैथिलीक वाक्य विन्यासपर सेहो चर्चा कऽ ली तँ बेसी नीक। वाक्य विन्यासक मतलब जे पदक्रम कोना सजाओल जाए। पं.गोविन्द झा जी अपन पोथी “उच्चतर मैथिली व्याकरण” केर पृष्ठ 107पर लिखै छथि---
“133(1) वाक्यमे पद कोन क्रमे राखल जाय तकर सामान्य नियम ई थिक
1) पहिने कर्ता, तखन कर्म, तखन क्रियापद आबय।
2) करणादि कारक तथा क्रियाविशेषणक पद कर्ता ओ कर्मक बीचमे, आ कर्म नहि हो तँ कर्ता ओ क्रियापदक बीचमे आबय।
3) विशेषण विशेष्यसँ पूर्व आबय, किन्तु विधेय वा विधेयतापूरक विशेषण विशेष्यसँ पर आबय।
4) अन्वयसूचक निपात योजनीय कोटि द्यक बीचमे आबय।
5) विस्मयादिसूचक वाक्यक आदिमे आबय।
उदाहरण
खुशखबरी1 ! जयनारायण2 ओ3 रामनारायण4 आइ5 चारि6 बजैत7 दिनमे8 गाँधी9 मैदानमे10 एक11 विशाल12 सभामे13 पुनः14 ओजस्वी15 भाषण16 देताह17। एहिमे नियम(1) क अनुसार 21617 अछि, नियम(2) क अनुसार 25+(6+7+8)+(9+10)+(11+12+13)+14 अछि, नियम (3)क अनुसार 6+7+8,9+10,11+12+13, 15+16 अछि नियम (4) क अनुसार 2+3+4 अछि, तथा नियम (5) क अनुसार 1 अछि।
(नोट--बजैत केर बदलामे बजे हेबाक छलै ई शायद प्रिंटिग केर गलती छै आ.अ)
2) एहि पाँचो नियममे दोसर किछु ढील अछि। वक्ता अपन रुचि वा स्मृतिक अनुसार कालबोधक वा स्थानबोधक क्रियाविशेषणकेँ क्रियासँ पूर्व कतहु आबि सकैत छथि। यथा, उपर्युक्त वाक्यकेँ एहि रूपें राखल जाय सकैत अछि
1+5+6+7+8+2+3+4+9+10 अथवा 1+510+2+3+6+11।
(आबि केर बदलामे आनि हेबाक चाही छलै)
134(1) आलंकारिक वा भावावेशात्मक अभिव्यक्तिमे पदक्रम बहुधा तोड़ल  जाइत अछि ओ एहि युक्तिसँ नाना भाववेश व्यक्त कयल जाइत अछि। एहिमे सामान्यतः से पद आदिमे राखल जाइत अछि जाहिपर अधिकसँ अधिक जोर रहैत छै, यथा “लाज नहि होइत छौ तोरा” आ कहखनहुँ सभसँ जोरदार पद वाक्यक अन्तमे राखल जाइत अछि, यथा “हओ, भानस नहि करबह तँ खयबह की कटहर “
2) उद्येश्य-विधेयमे उद्देश्य तथा प्रकृति-विकृति भावमे प्रकृति पूर्वमे रहैत अछि। यथा, “गोपाल इंजीनियर छथि” एहिमे इंजीनियर विधेय अछि तँए गोपालक बाद आयल। “स्वर्णपिंड कुण्डल भऽ गेल आ पुनः गलओलापर कुण्डल स्वर्णपिंड भऽ गेल। एत' पहिल वाक्यमे स्वर्णपिंड प्रकृति थिक ओ कुण्डल ओकर विकृति किन्तु दोसर वाक्यमे तद्विपरीत।”
तँ ई छल वाक्य विन्यासक जानकारी। ऐ ठाम हम मात्र ई कहऽ चाहब जे आलंकारि ओ पद्यमे ऐ विन्यासक बहुत समय पालन नै कएल जाइत छै वा कही जे संभवो नै छै। मुदा जहाँ धरि गजलक प्रश्न अछि तँ गजल गप्प-सप्प जकाँ होइत छै मने गद्य तँए धेआन राखी जे अधिकांशतः वाक्य विन्यास सही रूपें आबै गजलमे। ओना गजलमे सेहो विन्यासक उलट-फेर भऽ सकैए।
आधुनिक साहित्यमे “रूपवादी भाषा”  वा “कलावादी भाषा”  शब्दक बेसी प्रचलन छै। हमरा हिसाबें जँ कोनो शब्दक अर्थ वर्तमान समय (जाहि समयमे रचना लिखल जा रहल हो)क हिसाबें नै हो ताहि रचनाक भाषाकेँ “रूपवादी भाषा”  वा “कलावादी भाषा”  कहल जाइत छै । मने एहन भाषा जकर शब्दक अर्थ प्राचीन समयक हिसाबें हो (जँ पुरनो शब्दक अर्थ समयक हिसाबें नव छै तखन ओकरा समकालीन भाषा मानबामे कोनो दिक्कत नै)। हमरा जनैत “समकालीन लेखन”  लेल ई दोष भेल (ऐतिहासिक वा पौराणिक रचना लेल ई दोष वा गुण दूनू भऽ सकैए)। आब ई बुझू जे “समकालीन लेखन”  की भेल। बहुत आलचोक भ्रमित भऽ जाइत छथि जे कोन कालखंडकेँ “समकालीन”  कहल जेतै। ओ आलोचक सभ “समकालीन”  शब्दकेँ एक समान कालखंडमे बाँटि कऽ गलती करै छथि। वस्तुतः “समकालीन”  शब्द प्रयोगकर्तापर निर्भर करै छै। रचनाकार लेल “समकालीन”  ओ कालखंड कहेतै जाहि कालखंडमे ओ रचना केलकै मुदा आलोचक लेल “समकालीन”  शब्द रचनाक समय आ आलोचनाक समय दूनू हेतै। वाल्मीकि लेल समकालीन समय ओ रहल हेतनि जहिया ओ रमायणक रचना केने हेता, तुलसी लेल समकालीन समय ओ रहल हेतनि जखन कि ओ मानसक रचना केने हेता तेनाहिते चंदा झा लेल समकालीन समय ओ हेतै जखन ओ मिथिला भाषा रमायणक रचना केने हेता। मुदा जखन कोनो आलोचक आइ केर समयमे वाल्मीकि केर आलोचना करता तँ हुनका लेल वाल्मीकि केर समय आ अजुका समय दूनू मिला कऽ “समकालीन”  कहेतै। तुलसीक आलोचना कालमे “समकालीन समय”  मने तुलसीक समय आ एखुनका समय हेतै। ठीक तेनाहिते चंदा झा लेल सेहो बुझि लिअ। उम्मेद अछि किछु वैचारिक लाभ प्राप्त भेल हएत।

गजलक भाव ओ कथ्य
कथ्यकेँ परिभाषित करैत कालमे मैथिल गजलकार भ्रममे फँसि जाइत छथि आ भ्रमक कारणे ओ “कथ्य” ओ “कहन” केँ एकै मानि लै छथि। वस्तुतः दूनू अलग-अलग चीज छै। “कथ्य”  मने ओ कोनो विषय भेल जैपर किछु कहबाक लेल शाइर चुनने छथि जखन कि “कहन” ओइ चूनल विषयकेँ कहबाक तरीकाकेँ कहल जाइत छै। अरबी-फारसी-उर्दूमे कथ्यसँ बेसी कहनपर जोर देल जाइत छै। निदा फाजली अपन एकटा इंटरभ्यूमे एना कहै छथि--” हँ, हमरा ई कहबामे संकोच नै जे गजल मीनाकारी केर विधा छै। एहिमे कथ्यसँ बेसी कहन केर महत्व छै। ऐ कहन लेल गजलक इतिहासकेँ चीन्हब जरूरी अछि। इतिहासकेँ बिना चिन्हने बात गड़बड़ भऽ जाएत” --
(आधारशिला-44, 2006, गजल विशेषांक, पन्ना-69)
तेनाहिते कथ्य आ तेवर सेहो दूनू अलग-अलग चीज अछि। कथ्य उपर देले अछि तँए तेवर की छै से बूझू। शब्दकोशीय हिसाबसँ क्रोधयुक्त भावकेँ तेवर कहल जाइत छै मुदा साहित्यमे सदिखन शब्दकोशक हिसाबसँ अर्थ नै बल्कि प्रयोगक हिसाबसँ अर्थ सेहो बदलि जाइत छै। साहित्यमे तेवर मतलब भेल "कहन केर तासीर"। तासीर मने प्रभाव। मने कहबाक तरीकासँ जे प्रभाव होइत छै तकरा तेवर कहल जाइत छै। एकटा उदाहरणसँ बुझू-- गूड़ आ चिन्नी दूनू मिट्ठ होइत छै मुदा दूनूक तासीर अलग-अलग होइत छै। गूड़ खूनमे जल्दी घुलनशील नै होइत छै मुदा चिन्नी खूनमे जल्दी मीलि जाइत छै तँइ डाक्टर वैद्य हकीम सभ चिन्नी बदला गुड़ खेबाक लेल कहैत छै। अहाँ देखि सकैत छी जे एकै सुआद भेलाक बादो दूनूक तासीर अलग-अलग अलग छै। आरो लेल एनाहिते बूझू। लेखनमे एकै विषयपर अलग-अलग कहन केर कारणे ओकर तेवर अलग-अलग भऽ जाइत छै। कथित प्रगतिशील मात्र साम्यवादी विचार बला कथ्यकेँ तेवर बुझि लै छथि से सर्वथा भ्रामक अछि आ ताही चक्करमे कहनकेँ छोड़ि दैत छथि जकर परिणामस्वरूप मैथिली गजलमे ने तेवर आबै छै ने लोच अबैत छै आ ने संगीत। मोन राखू गजलमे कथ्य मात्र विषय भेल आ मुख्य वस्तु ओकर कहन छै। कहन गजल केर प्राण छै। पहिने गजलमे मात्र ओहन कथ्य देल जाइत छलै जे की श्रृंगारिक होइत छलै की शराब बला (कहन केर कारण ओकर आंतरिक अर्थ चाहे जे हो)। आ एही कारणें  बहुत लोक गजलकेँ इश्क आ शराबक दोसर रूप मानै छथि। मुदा आब गजलमे सभ विषय आबि रहल छै चाहे इश्क हो की घृणा, भूख हो की भरल पेट, भ्रष्टाचार हो की राजनीति, बाढ़ि हो की सुखाड़। बहुतो लोक हमरा कहै छथि जे खाली व्याकरण सिखेलासँ की हएत कथ्य सिखबियौ। वस्तुतः व्याकरण तँ सिखाएल जा सकै छै मुदा कथ्यक निरूपण नै। कहन तँ आरो नै। कहन तँ मूलतः शाइरक संस्कार ओ अध्ययन  दूनूपर टिकल छै।  कथ्य तँ शाइरक उपर निर्भर छै जँ ओ प्रेमिकाक उपर लिखत तँ ऐमे हम की कऽ सकै छिऐ। तथापि हमर ई स्पष्ट धारणा अछि जे समकालीन विषय आ ओकर सुख-दुखकेँ रचनामे स्थान देलासँ ओ कालजयी होइत छै, मुदा कलाकेँ उपेक्षा कऽ कऽ नै। जेना की रामायण लिअ। स्त्री अपहरण वा ओकरापर अत्याचार जतबा वाल्मीकि जीक समयमे छल ततबे आइयो छै मुदा वाल्मीकि जी कलात्मक ढ़ंगसँ अनुष्टुप छन्दममे ओकरा रखलखिन्ह तँए आइयो रामायण जीवित अछि। ई कहब असान छै जे भक्तिक कारणें रामायण जीवित अछि जँ सएह तर्क तखन फेर आन धर्मग्रंथकेँ लोक किए बिसरि गेल। बेसी आब लोक अपने बुझता (आन धर्मग्रंथ सभ सेहो छंदमे अछि मुदा कालजयी साहित्य लेल छंद ओ भाव दूनू चाही)। प्राकृतक भाषक जन्मसँ साहित्याकरक माँझ भाव आ व्याकरणपर विचार चलि रहल छै। केओ कहै छथि भाव हेबाक चाही तँ केओ कहै छथि व्याकरण। ऐ संबंधमे श्री गजेन्द्र ठाकुरक जीक विचार देखू---
“हमरा हिसाबें भाव हरेक साहित्यिक विधा लेल आवश्यक अछि मुदा “भावक बहन्ना “लए कऽ व्याकरणकेँ नै छोड़बाक चाही।”
 ऐठाम हम गजेन्द्र ठाकुर जीक एकटा आर टिप्पणी देबए चाहब जे---
“गजलक व्याकरण मात्रसँ गजल उत्कृष्ट भऽ जाएत सेहो सम्भव नै, मुदा सम्भावनाक प्रतिशतता बढ़ि जाइ छै जे ओ उत्कृष्ट हएत। संगहि जँ व्याकरणक ज्ञानक बाद अ-बहर युक्त आजाद गजल लिखल जाए तँ ओहो उत्कृष्ट हेबे करत तकरो गारन्टी नै, मुदा ओकरो उत्कृष्ट हेबाक सम्भावना बढ़ि जाइ छै। जँ रामदेव प्रसाद मंडल झारूदार जे पढ़ल नै छथि आ खेती-बाड़ी करैत नीक साहित्य लिखै छथि ओ जँ बहन्ना करथि जे हमर रचना भावनामे भेल अछि से मानल जाएत मुदा जँ पढ़ल-लिखल लोक भावनाकेँ बहन्ना कए व्याकरण छोड़ि देता तँ ई मानल जाएत जे मेहनति नै करए चाहै छथि “
आब ई तय करू जे किनका लेल भावना नीक आ के मेहनति नै करए चाहैत छथि। हरेक भाषामे छंदोमे कूड़ा-कचरा बला रचनाक भंडार अछि ठीक ओनाहिते जेना छंदमुक्त कविताक नामपर ढ़ाकी भरि कूड़ा-कचरा अछि। मुदा एकर मतलब ई नै जे छंद खराप छै। किछु साम्यवादी सभ ई प्रचार केलथि जे छंद काव्यक सीमा छै मुदा हमर कहब जे छंद काव्यक सीमा नै बल्कि मर्यादा छै। आब रचनाकार ऐ मर्यादाक कतेक निर्वाह कऽ पबैत छथि से हुनक सामरथपर निर्भर अछि। मानि लिअ जे अहाँ शस्त्र निर्माता छी। सुविधा लेल बंदूक तँ कने सोचियौ बिना बंदूकक गोली सीनाक आरपार भऽ सकै छै। कथमपि नै। गोलीमे तीव्रता बंदूकक ढ़ाँचा आनै छै। जँ गोलीकेँ हाथसँ फेकि मारल जाए तँ केकरो किछु नै बिगड़तै। ऐ प्रसंगमे छंदकेँ बंदूकक ढ़ाँचा आ गोलीकेँ भाव मानि देखू। ओनाहुतों मनुष्यकेँ सुंदर बनेबामे ओकर वस्त्र वा आवरणक बहुत बड़का हाथ छै। सुंदरसँ सुंदर आदमी नंगटे ठाढ़ भऽ जाइ छै तँ किछुए कालमे मोनमे घृणा आबि जाइत छै। छंदकेँ काव्यक आवरण बूझू। प्राचीन कालमे संस्कृतमे गुण, भाव ओ अलंकारपर बहस होइत छल छंदपर नै, मने छंद अनिवार्य छलै आ काव्यमे भाव बेसी हेबाक चाही की अलंकार तैपर चर्चा कएल जाइत छलै। एखन किछु लोक अलंकार आ छंदकेँ एकै मानि रहल छथि से पूर्णतः भ्रामक आ गलत अछि। जे प्रगतिशील लेखक खाली लाल झंडा उठेने रहै छथि हुनकासँ हम पूछए चाहब जे ओ अपन कोबरमे की लाले झंडा उठेने रहथिन? की संतानक जन्मपर हुनक मूँहपर उदासी एलनि? गजलक कथ्य या भाव लेल बहुत किछु नै कहल जा सकैए कारण ओ शाइरक उपर छै जे कोन विषयपर केखन लिखल जाए। मनुख लग सुख आ दुख बेरा-बेरी अबै छै, सभ ओकरा अपना हिसाबें अनुभव करै छै आ ओहीपर रचना सेहो करै छै। भात-दालिमे सेहो सुआद होइ छै आ खीर-पूड़ीमे सेहो। खरापसँ खराप भोजनमे सुआद होइ छै। नुनगर तरकारीमे तँ नूनक सुआद रहिते छै ने? कड़ुगर तरकारीमे मिरचाइक सुआद रहिते छै। तेनाहिते प्रेम बला रचनामे सेहो भाव रहै छै आ क्रांति गीतमे सेहो। जे रचनाकार भाव की कथ्य लेल बेसी मगजमारी करथि हुनका कुंठाग्रस्त बुझू। भाइ बेसी प्रेमगीतसँ समाज नै बदलै छै तँ विश्वास राखू बेसी क्रांतिगीतसँ समाज सेहो नै बदलत। हम जहाँ धरि बुझि सकलहुँ अछि सभ कथित प्रगतिशील साहित्यकारक हिसाबें “भाव” या “कथ्य” मने साम्यवादी “भाव” या “कथ्य” । आब ई कते गलत या कते सही हेतै से तँ पाठके सभ कहता। हमरा हिसाबें “साम्यवादी भाव”  बहुत रास “भाव”  या “कथ्य” मेसँ एकटा “भाव” या “कथ्य”  भेल। प्रगतिशील सभ एकैटाकेँ पूरा बुझि लै छथि। ओना कथित प्रगतिशील सभ वैचारिक रूपें कतेक “पतितशील” छथि से मात्र ऐसँ बुझा जाएत जे ओ सभ कबीरकेँ महान क्रांतिकारी कवि घोषित करै छथि मुदा ई नै देखि-बूझि पाबै छथि जे कबीर छंदे टामे अपन रचना केलाह। एकटा पाठकक रूपमे ने हमरा आजाद गजलसँ परेशानी अछि आ ने आजाद कथा-उपन्यास-कवितासँ। हँ, एतेक उम्मेद तँ हम जरूर करै छी जे लेखक अपन लिखल रचना केर लेबल सही लगेता। जँ आजाद गजल लीखि कहबै जे ई गजल भेल तखन हमहीं की कियो नै मानत आ खारिज करबे करत। तँए अपन विधाकेँ देखू जे ओ की अछि तखन ओकर कोनो नाम दियौ। अइ ठाम एक बात आर कहब जे किछु प्रगतिशील सभ साहित्य केर आन विधाकेँ मंचीय आ गंभीर दू कोटिमे बाँटि देने छथि मुदा हमरा हिसाबें साहित्यकेँ “गंभीर”  आ “लोकप्रिय”  खेमामे बाँटब उचित नै। कोनो रचना कोनो कालखंडमे गंभीर कि लोकप्रिय कि बेकारक दर्जा पाबि सकैए। जे रचना लोकप्रिय हेतै से गंभीर भइयो सकैए आ नहियो भऽ सकैए तेनाहिते गंभीर रचना लोकप्रिय भइयो सकैए आ नहियो भऽ सकैए। लोकप्रियता तँ जनसामीप्यक सूचक थिक तखन प्रगतिशील सभ “लोकप्रिय” वा “मंचीय” रचना नै चाहै छथि एकर मतलब की? हम ऐठाम गजलपर बात कऽ रहल छी आ जेना कि उपर आन-आन ठाम अप्रत्यक्ष रूपें कहले गेल अछि जे गजल गंभीर विषय-वस्तुक सरल प्रस्तुतिकरण अछि तँइ गजलकेँ हम “गंभीर बनाम लोकप्रिय”  सन छुद्र विषयसँ काते राखब। एकटा बेमारी आर जे मैथिली किछु शाइर उर्दू शाइरक उदाहरण दऽ कऽ कहै छथि जे देखू ई शाइर गजलक परंपराकेँ तोड़ि देलाह। बात अइ ठाम धरि ठीक होइ छनि मुदा ओ ओइ परंपरा टुटबाक मतलब व्याकरण टूटि जाएब बुझै छथि जे कि गलत अछि। उर्दू गजलमे परंपरा टुटबाक मतलब छै कथ्य-कहन ओ प्रतीक टूटब। शाइर नव-नव काफिया-रदीफसँ कथ्य-कहन ओ प्रतीककेँ तोड़ै छथि, विस्तार करै छथि। जँ कियो चाहथि तँ ओ उर्दूक जानकारसँ जानि सकै छथि। ओना एकर विस्तृत विवरण हम उपर देने छी (उर्दू-हिंदी गजलक तक्ती बला प्रसंगमे)।

गजलक संगीत
गजल लेल तबला उपयुक्त होइ छै। ढ़ोल, नाल वा ओहन अन्य साज गजल लेल बेकार। कारण तबला केर सुर पक्का होइ छै आ ढ़ोल, नाल वा ओहन अन्य साज केर सुर काँच। तबलाक संगे हरमुनिया सही रहै छै। पहिनुक समयमे हरमुनियाक बदला सरंगीपर लहरा देल जाइत छलै। ओना हमरा हिसाबसँ मैथिली गजलक गायन समयमे तबला आ गुदड़ी बाबा बला सरंगीक लहरा बेसी नीक रहत, परंपराक तौरसँ सेहो आ प्रयोगक हिसाबसँ सेहो। भारतीय संगीतमे गजलकेँ उपशास्त्रीय संगीतक दर्जा भेटल छै आ एकर गायन करीब 200-250 बर्खसँ भऽ रहल छै ओना ई धेआन राखब जरूरी जे पहिने गजल गायन लेल नै होइत छलै आ अन्ये साहित्यिक विधा जकाँ प्रचलन छलै। मुदा गजलमे गायनकेँ जुड़िते एकर लोकप्रियता बहुत बढ़ि गेलै।
बहुत रास शाइर अपना आपकेँ गबैया मानि लै छथि संगे-संग बहुत सुनहो बला सभ अपना आपकेँ गबैया मानै छथि आ कहै छथि जे एतऽ ताल नै बैसि रहल अछि। भऽ सकैए जे ओ सभ ठीक कहि रहल होथि मुदा सदिखन ई धेआन राखू जे ताल, सुर, भास ई सभ गबैयाक काज छै शाइरक नै। शाइरक काज छै सही बहर ओ कथ्यक निर्वहन। आब गबैया ओकरा कोन रागमे गेतै, कोन तालमे गेतै, कतेक समयक आलाप लेतै, कोन शब्दपर मुरकी मारतै, कतऽ आरोह हेतै, कतऽ अवरोह हेतै एकर सभहँक निर्धारण गबैया करतै शाइर नै। ई मैथिलीक दुर्भाग्य छै जे शाइर सभ अपना आपकेँ आलरांउडर मानि लै छथि। आ एकरे परिणाम होइत अछि जे ओहन-ओहन शाइर-गीतकारक गजल-गीत काँच रहि जाइत अछि।
कदाचित् मानि लिअ जे शाइर गबैयाक रूपमे सेहो सिद्ध छथि आ ओ अपन गजलकेँ रागबद्ध करै छथि मुदा ऐ बातक कोन गारंटी छै जे दोसर गायक मात्र ओही रागमे ओइ गजलकेँ गाएत। दोसर गायक दोसरो रागमे ओकरा गाबि सकैए। तँए भलाइ एहीमे छै जे शाइर अपन काज करथि आ गबैया अपन। संगे-संग ईहो कहए चाहब जे जरूरी नै छै जे गायक गजलक हरेक शेरकेँ गाबै। जै शेरमे बेसी लोकप्रियताक संभावना छै बेसी गायक ताही शेर सभकेँ गाबै छै। मानि लिअ कोनो गजलमे पाँचटा शेर छै मुदा गायक चारिए टा गाबए चाहै छै तँ कोनो दिक्कत नै। गजल कोनो कविता तँ नै छै जे कोनो एकटा पाँति छुटि गेने अर्थ विहीन भऽ जेतै। गायक चाहथि तँ कोनो मतला सेहो छोड़ि खाली आन शेर गाबि सकै छथि।

गजलक प्रभाग
भारतीय परम्परामे काव्यक बहुत प्रभाग छै जेना प्रबन्ध काव्य, खण्ड काव्य, गीति काव्य, मुक्तक आदि-आदि। आब ई प्रश्न उठैए जे गजलकेँ कोन प्रभागमे राखी। बहुत रास विद्वान (हिन्दी बला सभ) गजलकेँ मुक्तक काव्यमे राखै छथि। तँए बेसी अनुमान जे मैथिलिओकेँ विद्वान सभ गजलकेँ मुक्तक काव्यमे रखता मुदा परम्परानुसार गजल मुक्तकमे नै आबै छै कारण गजलक हरेक शेर एक दोसरसँ अलग-अलग होइ छै तँए शेरकेँ तँए मुक्तक काव्यमे राखल जा सकैए मुदा गजलकेँ नै। वास्तवमे गजल प्रबन्ध काव्य, खण्ड काव्य, गीति काव्य, मुक्तक जकाँ अपनाआपमे एकटा अलग प्रभाग अछि। दिक्कत ई छै जे प्रबन्ध काव्य, खण्ड काव्य, गीति काव्य, मुक्तक आदि संस्कृत परम्परासँ अबैत अछि मुदा गजल अरबी परम्परासँ तँए ई समस्या अछि। मुदा हमर स्पष्ट मानब अछि जे गजल प्रबन्ध काव्य, खण्ड काव्य, गीति काव्य, मुक्तक जकाँ अपना-आपमे एकटा अलग प्रभाग अछि। ओना मुस्लसल गजल (बाल गजल आ भक्ति गजल सहित) मुक्तक काव्य परम्परामे आबि सकैए कारण ऐमे हरेक शेरक विषय एकै होइत छै।

की गजल आ कविता एकै थिक?
मैथिली साहित्य केर बहुत रास विडंबनामेसँ एकटा विडंबना ईहो छै जे जँ इज्जत देत तँ ससुर बना कऽ आ बेइज्जत करत तँ सार बना कऽ। मुदा गौरसँ देखल जाए तँ दूनू छै बेइज्जते करए बला गप्प। आधुनिक मैथिली साहित्यमे गजलक संग इएह भेलै।
शुरूआतेसँ किछु दुराग्रही आ कमजोर साहित्यकार,संपादक ओ आलोचक गजलक उपर कविताक लेबल साटऽ लगलथि। एखनो बहुत साहित्यिक लोक सभ गजलकेँ कविता कहै छथि। बहुत दुराग्रही सभ तँ ईहो कहै छथि जे गजल कविताक एकटा भाग भेल आ कविता संपूर्ण भेल आदि-आदि।आ एहन ठाम चुप्पे रहि जाए पड़ैए कारण दुराग्रहीसँ मूँह लगेलासँ कोनो फायदा नै।वस्तुतः जँ हमरा लोकनि अपन परम्पराकेँ देखी तँ बहुत रास गप्प फड़िछा जाएत। वेदमे रचनाकेँ काव्य कहल गेल अछि आ ॠचा निर्माताकेँ कवि (रचना मने ओ सभ जे कि रचल गेल चाहे ओ पाँति हो कि पदार्थ)।
पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति।
 (अथर्ववेद, अर्थ-परमात्माक काव्यकेँ देखू ओ ने तँ नष्ट होइत अछि आ ने मरैत अछि)
परम्परानुसार वेद सभकेँ अपुरुषेय मानल जाइत छै मने एहन काव्य जे मानव द्वारा नै भऽ कऽ भगवान द्वारा भेल हो। तँए यजुर्वेदमे परमात्माकेँ कवि कहल गेल छै—

---कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः याथातथ्यतो, अर्थात् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः|

ऐ दूटा उदाहरणसँ स्पष्ट अछि जे रचना लेल काव्य शब्द अछि आ रचयिता लेल कवि। चूँकि वेदकेँ अपुरुषेय मानल गेल अछि तँए लोक सभ वाल्मीकि रमायणकेँ पहिल मानव काव्य मानै छथि आ वाल्मीकिकेँ पहिल मानव  कवि। ऐ ठाम ई जानब रोचक हएत जे काव्य मने मात्र रचना होइत छलै चाहे ओ एखनका गद्य बला हो की पद्य बला सभ काव्य छल। कालक्रमे बहुत कवि लोकनि ई अनुभव केला जे काव्यक किछु भाग सरस ओ गेय अछि आ किछु भाग नीरस ओ शुष्क। कालक्रमे कवि सभ सरस, गेय ओ पदलालित्यसँ भरल काव्य एवं नीरस ओ शुष्क काव्यकँ अलग-अलग कऽ देलाह। एही ठामसँ पहिल बेर गद्य ओ पद्य केर अवधाराणा आएल। शुष्क ओ नीरस काव्य गद्य भेल तथा सरस,गेय आ पदलालित्यसँ भरल कव्य पद्य भेल। ॠगवेदसँ किछु ॠचा लऽ कऽ सामवेद बनाएब काव्यसँ पद्य बनेबाक सभसँ पहिल आ सुंदर उदाहरण अछि। ऐठाम कही जे पहिने ॠगवेदक पाठ कएल जाइत छलै बादमे सामवेदक बाद गायन परम्परा शुरू भेल।
ऐ ठाम ई स्पष्ट करब जरूरी जे छन्द व्यस्था गद्य-पद्य निर्धारणोसँ पुरान अछि। दुनिया जै पोथी सभकेँ प्राचीनतम पोथी मानैए तैमे ॠगवेदक पहिल नाम अछि आ ॠगवेदक सभ ॠचा विभिन्न छन्द यथा गायत्री, अनुष्टुप,पंक्ति, महापंक्ति, शक्वरी आदि-आदि छन्दसँ रचल सजल अछि। मने ई मानल जाइए वा मानबामे कोनो दिक्कत नै जे छन्द सभ ॠगवेदोसँ पुरान अछि। जँ पुरान नै रहितै तँ ई छन्द सभ ॠगवेदमे एबे नै करितै। वेद पढ़ैत काल तँ ईहो लागत जे कवि पहिने छन्दक रचना केने हेता तकर बादे वेदक। बादमे वैदिक छन्दक सहारासँ बहुत रास छन्द बनल। आ कवि लोकनि सेहो नाना प्रकारक काव्य रचना केला। बादमे जखन संस्कृत टूटल आ प्राकृत भाषा बनल तखन संस्कृतक बहुत रास छन्द नै चलल मुदा ओही संस्कृतक छन्दक सहारासँ अनेक नव छन्द बनल खास कऽ मात्रिक छन्दक अनेक भाग ओ प्रभाग। एही भागमे एकटा भाग अछि कवित्त कहि कऽ (उच्चारणमे कबित्त)। वस्तुतः कवित्त पहिने छन्द मात्र छल बादमे एकर विस्तार होइत गेल आ एकर अनेक भाग-उपभाग जेना भैरव (बंगलामे पयार), रूपघनाक्षरी, घनाक्षरी मनहरण आदि सभ बनल आ कवित्त अपना आपमे जातीय छन्द बनि गेल (जातीय छन्द मने एहन छन्द जकर बहुत उपभाग हो) ई वस्तुतः  वैदिक छन्द (सरल वार्णिक)क बेसी लगीच अछि मुदा वैदिक छन्दक गायन उदात-अनुदात-स्वरितसँ चलै छै तँ कवित्त जातीय छन्दक गायन शब्द खण्डपर। एकटा शब्दक अनेक खण्ड भऽ सकैए आ ई जरूरी नै छै जे शब्द खण्ड सभ सार्थक हुअए जेना परिशीलन ऐ शब्दमे तीनटा शब्द खण्ड अछि परि-शी-लन। कवित्त जातीय छन्द एही शब्द खण्डपर टिकल अछि। कवित्त जातीय छन्द चारि पाँतिक होइत अछि आ वैदिके छन्द जकाँ अक्षर गानि कऽ बनाओल जाइत छै। ई कवित्त जातीय छन्द सभ मध्यकालीन ब्रजभाषा साहित्यमे खूब भेल खास कऽ कृष्ण भक्ति काव्यमे। ब्रजभाषामे रसखान कवित्त केर प्रचुर प्रयोग केला। मैथिलीमे सेहो कवित्त जातीय छन्दक रचना भेल मुदा ब्रजभाषा केर बाद (प्राचीन मैथिली मने प्राकृत-अप्रभंश बला साहित्यमे कवित्तपर शोध एखन बाँकी अछि, कवित्तकेँ घनाक्षरी सेहो कहल जाइत छै)। डा. शिवप्रसाद सिंह अपन पोथी “विद्यापति “मे मैथिली ओ ब्रजभाषा मध्यक समता-विषमताक नीक जकाँ चर्चा केने छथि। निश्चित रूपसँ कवित्त जातीय छन्द ब्रजभाषासँ आएल हएत। मध्यकालीन मैथिली साहित्य सुप्तावस्थामे छल से सभ साहित्यिक इतिहासकार मानै छथि आ बहुत संभव जे ओही कालमे ई कवित्त जातीय छन्द सभ मैथिलीमे आएल आ कृष्ण भक्ति हेबाक कारणें ततेक लोकप्रिय भेल जे मिथिलामे कोनो प्रकारक पद्यकेँ कवित्त कहऽ लागल लोक सभ। मुदा ऐठाम ई धेआन राखब बेसी जरूरी जे ई कवित्त शब्दक प्रयोग महिला द्वारा बेसी होइत छल। गाम घरक पुरान महिला सभ एखनो कहै छथि जे ई बड्ड कवित्त करैए। मने ई सूक्ष्म अवधारणा भेल जे कतिपय पुरुष जे की साहित्यिक छलाह से पद्यक अलग-अलग भागसँ परिचित छलाह एवं असाहित्यिक लोक एवं महिला लोकनि हरेक पद्यकेँ मात्र कवित्त जानै बूझै छलथि। मने ई कवित्त शब्द एक तरहें पद्य शब्दकेँ झाँपि देने छल। आधुनिक कालमे एही कवित्त शब्दसँ कविता शब्द लोकप्रिय भेल। मुदा ई कविता शब्द हिन्दीमे बनल आ तकर बाद मैथिलीमे आएल।  भ्रम सदिखन भ्रम होइत छै से पद्य आ कविताक संदर्भमे छै आ ई सभ साहित्यिक लोककेँ बुझबाक चाही। आब अहाँ सभ ऐ पाँतिपर अबैत-अबैत गप्प बुझि गेल हेबै जे कविता संपूर्ण नै थिक ई मात्र काव्यक प्रभाग थिक।मुदा हम मात्र पाठकसँ अपेक्षा करै छी जे ओ ई अंतरकेँ बुझता कारण दुराग्रही आलोचक ओ संपादक संगे-संग जानि-बूझि कऽ बनल अज्ञानी तथ्यकेँ कात कऽ कऽ अपन गप्प रखै छथि से सर्वविदित अछि। जँ ऐ लेखक संक्षिप्त रूप हम राखए चाही तँ एना हएत--
काव्य= रचना
कवि= रचना रचए बला
पद्य= सरस, गेय ओ पदलालित्यसँ भरल रचना
गद्य= नीरस ओ शुष्क रचना

बादमे विषयमे रोचकता आ अद्भुत आख्यान जोड़ि गद्यकेँ सेहो सरस बनाओल गेल किछु गद्यमे सरसता ओ पदलालित्य दूनू आएल मुदा गेयता नै आबि सकल। ऐ काव्य प्रकरणमे नाटक आंदोलनकारी भूमिकामे आएल आ एकरा दृश्य काव्यक उपाधि भेटलै।नाट्यशास्त्रकेँ पंचमवेद सेहो कहल जाइत छै।आब ऐ प्रश्नपर आबी जे गजल लिखनाहरकेँ की कहबाक चाही। गजल चूँकि काव्यक एकटा प्रभाग अछि तँए गजल लिखनाहर लेल कवि शब्द प्रयोगमे आनल जा सकैए मुदा आन-आन विधा जेना कथा लेल कथाकार,उपन्यास लेल उपन्यासकार, नाटक लेल नाटककार, गीत लेल गीतकार आलोचना लेल आलोचक आदि भऽ सकैए तखन गजल लेल गजलकार वा शाइर किएक नै? गद्यो तँ काव्यक प्रभाग छै तखन एकर विधा सभ लेल कवि शब्द प्रयोग हुअए। जहिया गद्य लेल कवि शब्द प्रयोग होमए लागत तहिया गजलो लेल एहन भऽ जेतै।



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