शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

गजल


अभय कान्त झा दीपराज कृत -ग़ज़ल



सोचैत छथि किछु लोकनि अक्सर- हमर कप्पार जरल अछि |
उठावय में जे भारी अछि, एहन किछु भार परल अछि ||

जखन विश्वास अपना पर, अहाँ के नहिं रहत बाँचल,
ओहू शेरक नज़र सँ मोन घबरायत जे मरल अछि ||

कोना ओहि आदमी के जीत भेंटतै वा सफल होयत ....?
जे बस हरदम बनल कोढ़ियाठ, बिस्तर ध क परल अछि ||

पड़ोसी भाई के कनियाँ, अहाँ के साइर और भौजी,
लगैत अछि देह हुनकर माटि नहि, कुन्दन सँ गढ़ल अछि ||

बहुत किछु ज्ञान रहितो हम, बहुत गलती सँ नहिं बचलौं,
तेना लागल जेना दारु, एखन माथा में चढल अछि ||

परीक्षा के जखन हम नाम सुनैत छी त कँपैत छी,
लगैत अछि- सबटा बिसरल रहैत छी, जे की पढल अछि ||

जों राखब मोन में संतोष, थोरबो में खुशी भेंटत,
ओ गाछी काल्हि फेर फरत, जे कम एहि बेर फरल अछि ||

जे करक अछि अहाँके काज, करब जों, त भ जायत,
जों देहक दर्द के अनुभव करब, लागत जे बढल अछि ||

निराशा मोन में जों अछि, त रस्ता नहिं कटत कखनों,
बुझायत ई- जेना किछु काँट सन तरवा में गड़ल अछि ||

भेंटल जे हैसियत, ओहि सँ, करू उपकार दुर्बल के,
ओ पोखरि कोन काजक ? जे भरल अछि किन्तु सड़ल अछि ||

रचनाकार - अभय दीपराज

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