भाइ आब हमहूँ लिखब अपन फूटल कपारपर
जेना ई
भात-दालि तीमन ओकर उपर अचारपर
सोन सनक घर-आँगन स्वर्ग सन हमर परिवार
छोड़ि एलहुँ देश अपन दू-चारि टकाक बेपारपर
कनिको आटा नहि एगो जाँता नहि करछु कराही
नहि
नून-मिरचाइ आनि लेलहुँ सभटा पैंच-उधारपर
चिन्हलक नै केओ नै जानलक तूअर बनि
रहलहुँ
गेलहुँ ई अपन माटि-पानि छोड़ि दोसरक
द्वारपर
हम कमेलौं घर ओ भरलक हमर खोपड़ी खालिए
आब बैसल ’मनु’ कनैए बरखामे
चुबैत चारपर
(सरल वार्णिक बहर, वर्ण-२१)
@ जगदानन्द झा ‘मनु’
एही गजल लिखै में सम्पूर्ण योगदान छैन -आशीष अनचिन्हारजी व् गजेन्द्र ठाकुरजी कए,दुनु गोते कए सादर धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंबाह- बाह,
जवाब देंहटाएंमनुजी बहुत बढियां अपनेक ई गज़ल लागल .बास्तव में मानव कए सोचबाक लेल ई प्रेरित कर्तैंह .
पुनह धन्यवाद अहि लेल जए अपने मातृभाषाक लेल किछु समय लगावैत छी .
अपनेक,
जे.एस. चौधरी
मनु जी ! बहुत सुन्दर गजल लिखलहुँ अछि !पढिकय मोन प्रशन्न भS गेल !
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद, जटाशंकरजी आ अनिलजी |
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