गजल
हया राखि के रहू कहीं हेहर नै भ जाइ
उठैत धुआँ में निधोक अहाँ स्वांस लैत छी
आगि लागि कहीं छाउर सगर नै भ जाइ
दिनक इजोर में साधु बनि रहय बला
रातिक रूप में कहीं उजागर नै भ जाइ
मउल साजि माथ पर बौरल सभ गोट
प्रकृतिक निरसल तरुअर नै भ जाइ
सत बजबाक ककरो साहस नै रहल
चुप्प रहि देखैत कहीं पाथर नै भ जाइ
कखन धरि कात रहि बहलैब मोन के
कहीं मनुक्खक वर्ग सँ बाहर नै भ जाइ
राजीव चिकरि सब के कहय छै सगरो
सम्हरू आबहूँ कहीं निशाचर नै भ जाइ
सरल वार्णिक वर्ण -१६
राजीव रंजन मिश्र
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