एकटा शेर लेल कतेक बेर पांति तारतार होइत छै,
गजल बनैत बनैत कतेक कागज बेकार होइत छै.
ओ काटैत आंगुर अपने दोख हमरा कपार होइत छै
लोकके लगायल बोली स दहेजक व्यापार होइत छै
कियो हथिया लै जोतल रोपल खेत बिनु घाम चुएने
जे घाम चुबाए ओकरहि मुह में छुच्छे लार होइत छै
रौद बसात स हुनका भय जे रहैथ छप्पर तअर
सड़क किनार रहै बलाके कतएक जार होइत छै
जोड़ तोड़ आ खरीद बिकिनमें जे होमय सबसा चालू
इ अभागल देशमें बुझू ओकरे सरकार होइत छै
रावणक करम कतौक पाप होए कलियुगमें, राम
बिभिखनक करम अहि जुगमें बेभिचार होइत छै
बाबूजी कहैत जे इमानक सोहारी पर जिबू "रौशन"
मुदा इमानक सोहारी पर जिनाई पहार होइत छै
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें