एखन राति कटै छी हम कनिते-कनिते,
एखन दिन बीतै पहर गनिते-गनिते ।
लगै अछि ई जीवन अकारथ, अचानक,
बिसरलहु गामो शहर तकिते-तकिते ।
पहुँचलहु ने जानी कोना एहि चौबटिया,
बिसरलौ ठेकाना कखन चलिते-चलिते ।
कहाँ कऽ सकलियइ एकचारी हम ठाढ़ो,
बिकेलइ घरारी महल बन्हिते-बन्हिते ।
कही कोन कथा आओर सुनायब की पाँति,
शब्दहुँ हेराओल गजल पढ़िते - पढ़िते ।
नियति केर फेरा मे ओझरायल ''चंदन",
छिड़ियेलै सपना पलक मुनिते-मुनिते ।
-----वर्ण-१६-----
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें