गजल-२८
पथिया लऽ बाधे-बाध गोबर बिछै छै ओ
अन्नक खगल छै तैं चिपड़ी पथै छै ओ
जिनगी के बोझ तर दाबल छै तैसँ की
भट्ठा पर राति-दिन पजेबा उघै छै ओ
एलैयै बाधसँ तऽ थाकल आ चूर भेल
जा तइयो घरे-घर बर्तन मँजै छै ओ
भरि दिन मजूरी कऽ आनै जे चारि सेर
सभके पेट भरि कऽ भुखले सुतै छै ओ
की नै कहै छै लोक बह्सल समाजमे
सभटा सहै छै चुप्पे किछु नै कहै छै ओ
बन्ह्की पड़ल भाव सऽख छै बोनि पर
निर्धनताके कैंचीसँ जिनगी कटै छै ओ
रीनसँ उरीन कहिया हेतै नञि जानि
कएक बरखसँ तऽ सुइदे बुकै छै ओ
अपन सभ सेहनता चूल्हामे धऽ देने
संतति के सुख लै सदिखन मरै छै ओ
सुखाकऽ देह टांट-टांट भेल छै "नवल"
संतति के पोसै लेल तइयो खटै छै ओ
*आखर १५ (तिथि-२८.०८.२०१२)
©पंकज चौधरी (नवलश्री)
पथिया लऽ बाधे-बाध गोबर बिछै छै ओ
अन्नक खगल छै तैं चिपड़ी पथै छै ओ
जिनगी के बोझ तर दाबल छै तैसँ की
भट्ठा पर राति-दिन पजेबा उघै छै ओ
एलैयै बाधसँ तऽ थाकल आ चूर भेल
जा तइयो घरे-घर बर्तन मँजै छै ओ
भरि दिन मजूरी कऽ आनै जे चारि सेर
सभके पेट भरि कऽ भुखले सुतै छै ओ
की नै कहै छै लोक बह्सल समाजमे
सभटा सहै छै चुप्पे किछु नै कहै छै ओ
बन्ह्की पड़ल भाव सऽख छै बोनि पर
निर्धनताके कैंचीसँ जिनगी कटै छै ओ
रीनसँ उरीन कहिया हेतै नञि जानि
कएक बरखसँ तऽ सुइदे बुकै छै ओ
अपन सभ सेहनता चूल्हामे धऽ देने
संतति के सुख लै सदिखन मरै छै ओ
सुखाकऽ देह टांट-टांट भेल छै "नवल"
संतति के पोसै लेल तइयो खटै छै ओ
*आखर १५ (तिथि-२८.०८.२०१२)
©पंकज चौधरी (नवलश्री)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें