गुरुवार, 27 सितंबर 2012

गजल

गजल-२८

पथिया लऽ बाधे-बाध गोबर बिछै छै ओ
अन्नक खगल छै तैं चिपड़ी पथै छै ओ

जिनगी के बोझ तर दाबल छै तैसँ की
भट्ठा पर राति-दिन पजेबा उघै छै ओ

एलैयै बाधसँ तऽ थाकल आ चूर भेल
जा तइयो घरे-घर बर्तन मँजै छै ओ

भरि दिन मजूरी कऽ आनै जे चारि सेर
सभके पेट भरि कऽ भुखले सुतै छै ओ

की नै कहै छै लोक बह्सल समाजमे
सभटा सहै छै चुप्पे किछु नै कहै छै ओ

बन्ह्की पड़ल भाव सऽख छै बोनि पर
निर्धनताके कैंचीसँ जिनगी कटै छै ओ

रीनसँ उरीन कहिया हेतै नञि जानि
कएक बरखसँ तऽ सुइदे बुकै छै ओ

अपन सभ सेहनता चूल्हामे धऽ देने
संतति के सुख लै सदिखन मरै छै ओ

सुखाकऽ देह टांट-टांट भेल छै "नवल"
संतति के पोसै लेल तइयो खटै छै ओ

*आखर १५ (तिथि-२८.०८.२०१२)
©पंकज चौधरी (नवलश्री)

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