मंगलवार, 29 मई 2012

अज्ञानी संपादकक फेरमे मरैत गजल


किछु मास पहिने हम प्रिंट पत्रिकाक संपादक आ गजलकार सभसँ एकटा अपील केने रही। ई अपील मैथिलीक वर्तनी आ आ बहरक संबंधमे छल। ऐ अपीलक डिस्कशनमे गुंजन श्री नामक व्यक्ति कहलाह जे ठीके कहै छी, एना कए क' बहुत संपादक गजलक प्राण घीचि लै छथि। ताहि पर हम कहलिऐ जे " विदेह"क संपादककेँ छोड़ि किनको बहरक ज्ञान नै छन्हि । ताहि पर कुंदनक कुमार मल्लिक नामक एकटा पाठक कहलाह जे बुझायत अछि जे …”” .”....Ashish Anchinhar जी सभ मैथिली पत्रिकाक सम्पादक लोकनिक ज्ञान केँ परीक्षा लय चुकल छथि. मैथिली गजल मे अपनेक योगदान अतुलनीय आ मीलक पाथर जेकां अछि. जहिया कहियो वा जतय कतओ मैथिली गजलक चर्चा हेतय ओतय अपनेक नाम निसंदेह सभ सँ पहिने आ आदरक संग लेल जायत। मुदा एना निन्दा केनाय कतेक उचित? आलोचन करी संगे संग निन्दा स' सेहो बची.मुदा फेर वैह गप कहब जे गजलक बारे मे हमरा ओतबे बुझल अछि जतेक कोनो गजल के बुझल हेतैक. किछु बेसी कहा गेल हुयै त' एहि टिप्पणी केँ मिटा देबैक” .” तकरा बाद हम कुंदन जीकेँ संबोधित करैत लिखलहुँ जे..." हमर नाम लेल जाए की नै लेल जाए से विषय नै छै। बहस एहि बातकेँ छै जे गजलक आ मैथिली वर्तनीक व्यवहारिक समस्याक फरिछौट। से उपर पढ़ि कए बुझा गेल हएत अहाँकेँ। जहाँ धरि निन्दाकेँ गप्प छै। ओ आदमी उपर निर्भर छै। हम गजलक निखरल आ स्थिर स्वरूप चाहै छी आ ओहि लेल हमरा जँ किनको प्रसंशा वा खिद्दांसो करए पड़त तँ हम करबै।.” ... आ तकरा बाद कुंदन जी लिखला जे...... " हमर टिप्पणी अहाँक आलेखक लेल नञि अपितु अपनेक टिप्पणीक संदर्भ मे छल।" ताहि पर हम फेरो लिखलहुँ जे...." हमहूँ ओही संदर्भमे कहलहुँ अछि आ फेर कहब जे...जहाँ धरि निन्दाकेँ गप्प छै। ओ आदमी उपर निर्भर छै। हम गजलक निखरल आ स्थिर स्वरूप चाहै छी आ ओहि लेल हमरा जँ किनको प्रसंशा वा खिद्दांसो करए पड़त तँ हम करबै।” .......आ फेर हम कुंदन जीकेँ संबोधित करैत लिकलहुँ जे....--" आ जे सही गप्प छै तकरा कहबामे हर्जे की। जँ अहाँकेँ कोनो एहन संपादकक नाम बुझल हो जे विदेहक नै होथि आ ओ बहर बुझैत होथि तनिकर नाम प्रमाण सहित देल जाए।:” ताहि पर कुंदन जी लिखला जे.........." एहि बात के निर्णय करय बला हम के जे कोन सम्पादक के कतेक ज्ञान छन्हि जखन हम पहिने स्पष्ट कय देने छी जे एहि विषय मे हमरा कोनो ज्ञान नञि. हमरा जे बुझायल से कहलहुँ।"...... आब कने आबी पात्र सभ पर। गुंजन श्री कमलमोहन चुन्नू जीक बालक छथि आ एखन कमल मोहन चुन्नू... पटनासँ प्रकाशित " घर-बाहर" नाम पत्रिकाक संपादक मंडलमे छथि आ पत्रिकाक लेल सामग्री पर हिनके निर्णय मान्य होइत अछि। आ कुंदन जी पाठक मात्र छथि।


आब आबी कने " घर-बाहर"क नव अंक पर मने अप्रैल-जून 2012 बला अंक पर। ऐ अंकमे जे संपादक महदोय अपन जे कृत्य देखला से वर्णन करबा योग्य नै। सभसँ पहिने तँ देखू जे सुरेन्द्रनाथ आ अरविन्द ठाकुर जीक बिना बहर बला 6-6टा गजल प्रकाशित केला। ई बारहो गजल ईर घाट-बीर घाट बला बानगी अछि। सुरेन्द्र नाथ जीक गजलमे एखनो काफिया गड़बाड़ाएल अछि तँ अरविन्द जी बहरक नाम पर कुहरि रहल छथि। एही अंकमे योगानंद हीरा जीक " गीत " शीर्षकसँ दूटा रचना छपल अछि। ई आश्चर्य बला बात छै जे योगानंद हीरा जीक ई दूनू रचना गजल छै मुदा संपादक ओकरा गीत कहि रहल छथिन्ह। ई कोन प्रकारक संपादकीय दायित्व छै। हमरा बुझने घर-बाहरक संपादक अज्ञानी तँ छथिहे संगे-संग हीन भावनासँ सेहो भरल छथि। कारण योगानंद हीरा जीक ई उपरोक्त गजल पूरा-पूरा अरबी बहरक पालन करैत अछि। संगे संग संपादक अपन मूर्खताकेँ चलते दोसर गजलक मएकटा पाँति गाएब क' देने छथिन्ह। आ हमरा बुझने संपादक ई काज जानि-बूझि क' केने छथि। कारण हुनका ई बरदास्त नै छन्हि जे केओ बहर युक्त गजल लिखए। ई दूनू गजलक स्कैन दए रहल छी आ देखू जे संपादक कोना बदमाशी केने छथि। पहिल गजलक मतलाक पहिल पाँत अछि----


" किसलय पर घूमै अछि भमरा"

देखू जे ऐमे आठ टा दीर्घकेर प्रयोग अछि आ ई शेरक हरेक पाँतिमे निमाहल गेल छै।


आब जखन अहाँ दोसर गजल पार आएब तँ माथ घुमि जाएत। संपादक महोदय एहीठाम बदमाशी केने छथिन्ह। कने गौरसँ स्कैन देखू----पता लागत जे " छी हुलसल" रदीफ छै आ " मोर", भोर, "कोर" आदि काफिया छै। संपादक महोदय ऐ गजलक एकटा पाँति छोड़ि देने छथिन्ह। जाहि कारण ई 11पाँतिक गजल बनि गेल अछि आ किछु नै पता लागि रहल छै। जँ संपादक महोदयकेँ गजलक संबंधमे ज्ञान रहितन्हि तँ एहन प्रकारक गलतीसँ बाँचल जा सकै छल। जँ अंतसँ ऐ गजलकेँ देखी तँ एकर बहर एना छै-दीर्घ-हर्स्व-दीर्घ-दीर्घ+दीर्घ-हर्स्व-दीर्घ-दीर्घ+दीर्घ आ हरेक पाँतिमे ई क्रम पालन कएल गेल छै। आ हमरा बुझने संपादक ऐ तरहँक अज्ञानतासँ मैथिली गजलक भविष्य गर्तमे जा रहल छै। आखिर जिनका मेहनति नै करबाक छन्हि से गजल लिखबाक लौल किएक करै छथि। साहित्य केर बहुत रास विधा छै मेहनति नै करए बला सभ दोसरे विधामे हाथ अजमाबथि तँ नीक।



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