रविवार, 29 जुलाई 2012

गजल

गजल-१८

दू - आखर कागत पर उतरल सौंसे हाथ सियाही लागल
अर्थ नै बूझय आखर के बस हाथ देखि वाह-वाही लागल

खर डोलेलन्हि दू टा तकरो सात कोस धरि ढोल पिटेलथि
मंच सजाकऽ लोक हकारल आसन ऊंचगर शाही लागल

धोती-कुरता सजल देहमें चौक-चौबटिया करैत फुटानी
बेटा सभ नेता बनि घूमय बाप कतहु चरवाही लागल

अप्पन थारी कूकुर चाटैत अनकर हिस्सा लूझि रहल छै
जेहने भोजन तेहने शोणित ज्ञानक पात में लाही लागल

काजक बेर में दोग नुकायल खाय काल देने पेटकुनिया
सांझ परैत धऽ लैछ रतौन्ही भोर होइत अगराही लागल

पुरुखक बीच में भेल निप्पत्ता मौगी लग पुरखाहा छाँटैत
बाहर सिह्कल मरचुन्नी आ अंगना अबैत पसाही लागल

नेताजीके कुर्सी भेटलन्हि जन-जनके दुःख हरथिन्ह आब
गाम ओगरतै चोर-उचक्का सेंध खूनई में सिपाही लागल

पुरना गाछक नमहर धोधरि शोकाकुल छै भेल "नवल"
नव-अंकुर के नव-पल्लव कुसुमित जे देखै डाही लागल

***आखर-२३
(सरल वार्णिक बहर)
©पंकज चौधरी (नवलश्री)
(तिथि-२3.०७.२०१२)

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